आलेख : राजेंद्र शर्मा
कर्नाटक के चुनाव के जबर्दस्त भाजपाविरोधी फैसले में निहित जनादेश पर आने वाले दिनों में चर्चा चलती रहेगी। लेकिन, इस बात पर प्राय: सभी विश्लेषणकर्ता सहमत नजर आते हैं कि इस हार के नतीजे इतने भर तक सीमित नहीं रहेंगे कि एक और राज्य, भाजपा द्वारा सीधे तथा अकेले प्रशासित राज्यों की उस सूची से निकल गया है, जो पहले भी बहुत प्रभावशाली नजर नहीं आ रही थी या सिर्फ यह कि अब कर्नाटक में कांग्रेस पार्टी की सरकार होगी। बेशक, यह भी कम महत्वपूर्ण नहीं है कि कर्नाटक की इस हार के साथ, दक्षिण भारत के पांच राज्यों ने अपने दरवाजे मजबूती से आरएसएस-भाजपा की राजनीति के लिए न भी सही, फिर भी उसके वर्चस्व के लिए तो बंद कर ही लिए हैं। हां! इसी साल के अंत से पहले-पहले होने जा रहे विधानसभाई चुनाव के आखिरी चक्र में, दक्षिण के सबसे नये राज्य, तेलंंगाना में भी चुनाव होने हैं। जाहिर है कि वहां भी संघ-भाजपा का पूरे जोर-शोर से अपनी चुनावी किस्मत आजमाना तय है, लेकिन अब तक तो सारे आसार इसी के हैं कि वहां भी उनके लिए दरवाजे बंद के बंद ही रहेंगे। इसका एक सीधा और सरल-सा अर्थ तो यही है कि भारत के एक बड़े भौगोलिक-सांस्कृतिक हिस्से के लिए अस्वीकार्य संघ-भाजपा, कम से कम पूरे भारत का प्रतिनिधित्व करने का दावा तो नहीं ही कर सकती हैं।
लेकिन, कर्नाटक के चुनावी नतीजों का असर, इससे आगे तक जाने वाला है। जाहिर है कि सबसे पहले तो इस चुनाव नतीजे से, मोदी-शाह के नेतृत्व में संघ-भाजपा की अजेयता के उस मिथक के चूर-चूर होने की नौबत आ गयी है, जिसे बीच-बीच में होती रही चुनावी व राजनीतिक विफलताओं से होने वाली टूट-फूट के बावजूद, सबसे बढक़र मीडिया के माध्यम से अति-प्रचार तथा झूठ के प्रचार के सहारे, थेगलियां लगा-लगाकर, अब तक किसी तरह बनाए रखा जा रहा था। बेशक, अजेयता के इस मिथक को ऐसी टूट-फूट से बचाए रखने के लिए, संघ-भाजपा ने एक और उप-मिथक गढ़ा है, जो लोकसभाई तथा विधानसभाई चुनावों को मतदाताओं के कई बार-बार अलग-अलग देखने का सहारा लेकर, विधानसभाई चुनावों में मोदी की विफलताओं से, देश के स्तर पर मोदी की अजेयता के दावे को बचाने का ही काम करता है। लेकिन, अव्वल तो आम तौर पर मतदाताओं के राज्य तथा देश के स्तर के चुनाव की भिन्नता की अपनी सीमा है और ऐसा कम ही होता है, जब अपेक्षाकृत आस-पास हो रहे चुनावों में, उसी जनता के इन दोनों चुनावों की दिशाएं, एक-दूसरे की विरोधी हों।
दूसरे, कम से कम मोदी की भाजपा के मामले में इस भिन्नता का मिथक और भी अविश्वसनीय है, क्योंकि मोदी की भाजपा में अब बाकायदा सारे के सारे चुनाव, मोदी के ही नाम पर लड़े जाते हैं। यह संयोग ही नहीं है कि हिमाचल प्रदेश में तो पिछले चुनाव के समय मोदी ने बाकायदा मतदाताओं से इसकी ही अपील कर डाली थी कि उन्हें उम्मीदवार का नाम याद रखने भी जरूरत नहीं है, बस मोदी के लिए वोट डालें और उसके लिए कमल का निशान याद रखें! यहां तक कि उसी समय हुआ दिल्ली नगर निगम का चुनाव भी, नरेंद्र मोदी के ही नाम पर लड़ा गया था। बेशक, उस चुनाव में नरेंद्र मोदी खुद प्रचार के लिए नहीं उतरे थे, लेकिन मोदी के बाद नम्बर दो माने जाने वाले अमित शाह से लेकर नीचे तक, अनेक मुख्यमंत्रियों, मंत्रियों, सांसदों को ही नगर निगम के लिए चुनाव प्रचार में नहीं उतारा गया था, सारा प्रचार बाकायदा नरेंद्र मोदी की तस्वीर के बैनर के तले ही किया जा रहा था।
हैरानी की बात नहीं है कि कर्नाटक का हाल का चुनाव भी, पिछली विधानसभा के कार्यकाल के बीच में मुख्यमंत्री बनाए गए बोम्मई के नाम पर या किसी अन्य संभावित मुख्यमंत्री के नाम पर नहीं लड़ा गया था, बल्कि नरेंद्र मोदी के ही नाम पर लड़ा गया था। स्वाभाविक रूप से मोदी के आलोचकों द्वारा ही नहीं, बल्कि खुद को तटस्थ मानने वाले बहुत से लोगों द्वारा भी, इस हार को मोदी की हार के रूप में देखा जा रहा है। इसलिए, मोदी की भाजपा की अजेयता का मिथक अब लगभग तार-तार हो गया है और विधानसभा चुनाव के अगले चक्र के नतीजे अगर संघ-भाजपा के लिए राहत देने वाले नहीं निकले, जिसके पूरे आसार हैं, तो इस मिथक को हम कूड़ेदान में पड़ा देखेंगे।
बेशक, कर्नाटक के नतीजे के इसी सिक्के का दूसरा पहलू यह है कि सभी यह मान रहे हैं कि मोदी की भाजपा की इस हार से, 2024 के आम चुनाव में उसकी हार देखने के लिए उत्सुक राजनीतिक ताकतों के हौसले बढ़ेंगे। आखिरकार, अगर कर्नाटक में सत्ता में होने के बावजूद और केंद्र के सारे सत्ताबल से लेकर, कारपोरेटों के सारे धनबल समेत, हर-संभव ताकत झोंके जाने के बावजूद, जिसमें खुद प्रधानमंत्री मोदी द्वारा पिछले कई महीनों में सबसे सघन प्रत्यक्ष तथा अप्रत्यक्ष चुनाव प्रचार भी शामिल है, इस बड़े राज्य में भाजपा को जोरदार तरीके से हराया जा सकता है, तो देश के पैमाने पर क्यों नहीं हराया जा सकता है? वास्तव में कर्नाटक की इस हार के बाद, ऐसे राज्यों की संख्या आधा दर्जन से भी कम ही रह गयी है, जहां संघ-भाजपा ने अपने बूते जीत कर सरकार बनायी थी। विधायकों की चोरी-चकारी से बनायी गयीं मध्य प्रदेश तथा महाराष्ट्र की सरकारों को और दूसरी पार्टियों के साथ जोड़-गांठ कर के बनायी गयी सरकारों को भी गिन लिया जाए, तब कहीं जाकर यह संख्या दर्जन का आंकड़ा पार कर पाएगी।
फिर भी कर्नाटक के चुनाव के ये नतीजे ही यह भी दिखाते हैं कि 2024 के चुनाव में मोदी के नेतृत्व में संघ-भाजपा को हराना न सिर्फ संभव है, बल्कि उसकी संभावना भी समय के साथ बढ़ती जा रही है, तब भी इसे प्रदत्त मानकर चलने की महाभूल किसी को नहीं करनी चाहिए। उल्टे इसे असाधारण प्रयासों से ही संभव बनाया जा सकता है। बेशक, जनता के विशाल हिस्सों का मोदी राज का खुद अपनी जिंदगी का अनुभव, उन्हें इस जनविरोधी, तानाशाहीपूर्ण तथा सांप्रदायिक राज के खिलाफ धकेल रहा है। खासतौर पर रोजगार और आजीविका का संकट भयावह रूप ले चुका है। और कर्नाटक चुनाव का ही अनुभव यह भी दिखाता है कि जनता को झेलने पड़ रहे इन संकटों की सचाइयों को, हिंदू बहुसंख्यकों के विशाल हिस्सों के बीच, मौजूदा राज की हिंदू धार्मिक पहचान की दुहाइयों से तो खैर नहीं ही भुलाया जा सकता है, अब अल्पसंख्यकद्वेष और खासतौर पर मुस्लिमद्वेष के जहर के नशे के सहारे भी नहीं भुलाया जा सकता है। उल्टे तेजी से बढ़ते अनुपात में जनता इन तिकड़मों के खिलाफ ही मुखर हो रही है। इस चुनाव में 2018 के चुनाव के मुकाबले कांग्रेस के वोट में 5 फीसद से ज्यादा के उछाल और जनता दल (सेकुलर) के वोट में करीब इतनी ही कमी की, इसके सिवा दूसरी कोई व्याख्या संभव नहीं है। और ठीक यही है, जिसने कांग्रेस को इस चुनाव में 135 सीटों की अभूतपूर्व सफलता दिलायी है और मोदी की भाजपा को 65 सीटों पर समेटकर रख दिया है।
लेकिन, अगर यह सच है कि अब न तो संघ-भाजपा राज का विकास का मुगालता काम कर रहा है और न सांप्रदायिकता का भुलावा, तो वहीं यह भी सच है कि यह सब भी शायद 2024 के चुनाव में उन्हें हराने के लिए सिर्फ तभी समर्थ होगा, जब उनके विरुद्ध जनता का यह बढ़ता असंतोष, कमोबेश किसी एक ध्रुव पर केंद्रित हो सकता हो, जैसाकि कर्नाटक में व्यावहारिक मानों में हुआ है। और जाहिर है कि देश के पैमाने पर इस तरह का केंद्रीयकरण आसान नहीं होगा। कर्नाटक के संदर्भ में ही यह भी एक ध्यान रखने वाला तथ्य है कि 2018 के विधानसभाई चुनाव में भी, मत फीसद सबसे ज्यादा कांग्रेस का ही रहा था, लेकिन करीब इस बार के बराबर, 36 फीसद वोट हासिल कर के ही, भाजपा सबसे ज्यादा विधायक जिताने में सफल रही थी, क्योंकि उस चुनाव में करीब 20 फीसद वोट जनता दल (सेकुलर) के हिस्से में रहा था! यह दूसरी बात है कि उसके बाद भी जनता दल-सेकुलर और कांग्रेस के साथ आने के चलते, भाजपा को तब तक विपक्ष में ही बैठना पड़ा था, जब तक कि दूसरे पाले के विधायकों पर बड़े पैमाने पर डाके के जरिए, उसने अपने अल्पमत को बहुमत में तब्दील नहीं कर लिया। कर्नाटक की आम जनता ने 40 फीसद कमीशन की सरकार चलाने के अलावा, इस कपटलीला की भी मोदी की भाजपा को सजा दी लगती है।
फिर भी, सारी सत्ताविरोधी लहर के बावजूद, इस चुनाव में भी भाजपा का करीब पिछले चुनाव जितना ही वोट बनाए रखना, उसके खिलाफ खड़ी ताकतों के लिए एक चेतावनी भी है। बेशक, मोदी-मोदी का अति-प्रचार, कामयाबियों के झूठे दावे, सांप्रदायिक-ब्राह्मणवाद का चेहरा, सब ने मिलकर ही उसके लिए अपना पिछला वोट बनाए रखना संभव बनाया है। लेकिन, यह न सिर्फ कर्नाटक में, बल्कि देश के स्तर पर भी संभव है यानी सब कुछ के बावजूद मोदी की भाजपा, करीब हर तीसरे वोट पर अपना कब्जा बनाए रख सकती है। और हमारी फर्स्ट पास्ट द पोस्ट पर आधारित चुनाव प्रणाली में, उसके खिलाफ हर जगह, इससे बड़ी ताकत खड़ी होगी, तभी उनकी हार सुनिश्चित की जा सकेगी।
इसके लिए, दो चीजों की जरूरत होगी। पहला, दरबारी पूंजीपतियों की सेवा से लेकर, आम मेहनतकशों पर ज्यादा से ज्यादा बोझ डाले जाने, व्यावहारिक मानों में बढ़ते हिंदू राज व ब्राह्मण राज तथा आम जनता के खिलाफ बढ़ती तानाशाही तथा राज्यों के खिलाफ बढ़ते केंद्रीयकरण तक, मोदी राज देश व जनता के लिए जिन-जिन आपदाओं का प्रतिनिधित्व करता है, उनका सभी विरोधी ताकतें एक आवाज में और निरंतर विरोध करें। यह मौजूदा राज के खिलाफ व्यापक रूप से जनमत बनाएगा। दूसरे, हर जगह संघ-भाजपा के कोर वोट के मुकाबले, उससे कहीं बड़ी चुनौती खड़ी हो; जो देश के अधिकांश राज्यों में और इसलिए कुल मिलाकर देश के पैमाने पर भी संभव तो है, लेकिन आसान नहीं है। केंद्रीय स्तर पर यह जहां तक संभव हो, उसके अलावा यह मुख्यत: राज्यों के स्तर पर तालमेल से ही संभव होगा। हर राज्य में सबसे बड़ी विपक्षी ताकत के गिर्द, विपक्षी ताकतों को एकजुट होना होगा। हालांकि, यह भी सच है कि जहां यह भी संभव नहीं हुआ, थोड़े-बहुत नुकसान के साथ खुद जनता ही व्यवहार में ऐसी एकजुटता भी कर सकती है, कर्नाटक के हाल के चुनाव की तरह।
इसी सिलसिले में कर्नाटक के इस चुनाव के नतीजे ने, एक और फैसला कर दिया है। कांग्रेस को अलग कर के कोई मोर्चा बनाने की या कांग्रेस के खिलाफ कोई तीसरा-चौथा मोर्चा खड़ा करने की सारी कवायदें, संघ-भाजपा को जीवनदान देेने के ही प्रयास का हिस्सा हो सकती हैं, उन्हें सत्ता से बाहर करने के प्रयास का नहीं। विपक्ष की सबसे बड़ी ताकत के रूप में कांग्रेस को इस प्रयास में उसका उपयुक्त स्थान मिलना ही चाहिए। हां! पहले से सब का नेता तय करने की मांग, सूत न पौनी…लट्ठम लट्ठा जैसी नासमझी होगी। फिलहाल तो एक ही नेता की जरूरत है –हर वो मुद्दा, हर वो जगह, जहां मोदी राज जनता को चुभ रहा है।
आखिर में एक बात और। कर्नाटक के चुनाव का एक महत्वपूर्ण सबक यह भी है कि संघ-भाजपा के बहुसंख्यक-सांप्रदायिकतावादी पैंतरों की काट करने के लिए, धर्मनिरपेक्ष ताकतों का नरम या हलके हिंदुत्व की शरण लेना, न तो जरूरी है और न उपयोगी है। बजरंग बली भी, कर्नाटक की तरह देश भर में ही चुनाव का पहाड़ पार कराने के लिए, संघ-भाजपा को अपने कंधे पर चढ़ाने से इंकार कर सकते हैं, बशर्ते धर्मनिरपेक्ष ताकतें बहुसंख्यकवादियों के लिए खुद को स्वीकार्य बनाने की मरीचिका के पीछे भागने के बजाए, मेहनत की रोटी खाने वाले जनता के बहुमत के वास्तविक हितों की आवाज को अपनी पहचान बनाएं। सभी सर्वेक्षणों और विश्लेषणों का यह एकमत निष्कर्ष नहीं भूलना चाहिए — संघ-भाजपा के सांप्रदायिक तरकश के सारे तीर कर्नाटक में इसलिए भी विफल रहे हैं कि, कर्नाटक में अमीर-गरीब, शहरी-ग्रामीण, सवर्ण-अवर्ण, बहुसंख्यक-अल्पसंख्यक के विभाजन में, जो जितना वंचित था, कमजोर था, उसने उतना ही बलपूर्वक संघ-भाजपा को सत्ता से बाहर करने के लिए वोट दिया है।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और सप्ताहिक ‘लोकलहर’ के संपादक हैं।)