सांप्रदायिक षड़यंत्र के अंदेशों की ओट में नाकामियां छुपाने के 9 साल आलेख : राजेन्द्र शर्मा

सांप्रदायिक षड़यंत्र के अंदेशों की ओट में नाकामियां छुपाने के 9 साल

दैनिक समाचार

आलेख : राजेन्द्र शर्मा

सांप्रदायिक षड़यंत्र के अंदेशों की ओट में नाकामियां छुपाने के 9 साल

आलेख : राजेन्द्र शर्मा

जिस बहुचर्चित ”कवच” नाम की टक्कररोधी प्रणाली का मोदी सरकार, रेलवे को सुरक्षित बनाने में अपनी बहुत बड़ी उपलब्धि के रूप में ढोल पीटती नहीं थकती थी, उसकी सुरक्षा बालासोर में दुर्घटना की शिकार हुई दोनों एक्सप्रैस यात्री गाड़ियों को उपलब्ध ही नहीं थी। फौरन यह सच भी सामने आ गया कि सारे ढोल पीटे जाने के बावजूद, इस टक्कररोधी प्रणाली की सुरक्षा अब तक देश के रेल ताने-बाने के बहुत छोटे से हिस्से में ही उपलब्ध है।

संयोग ही सही, पर यह बहुत कुछ बताने वाला संयोग है कि ओडिशा में बालासोर के निकट हुई भयावह रेल दुर्घटना के बाद, भाजपा को नरेंद्र मोदी राज के 9 साल पूरे होने के मौके पर प्रस्तावित अपने आयोजनों को स्थगित कर देना पड़ा है। इस तिहरी रेल दुर्घटना में 277 मौतें होने की बात आधिकारिक रूप से मानी जा चुकी है। ऐसे जश्न के जरिए मोदी सरकार की 9 साल की उपलब्धियों का ढोल पीटना, तीन या उससे भी ज्यादा राज्यों को छूते मातम की पृष्ठभूमि में, उल्टा भी पड़ सकता था। बहरहाल, अब मुख्यधारा के मीडिया पर और उसमें भी सबसे बढ़कर खबरिया टीवी मीडिया पर अपने लगभग मुकम्मल नियंत्रण के जरिए, यह नैरेटिव गढ़ने की हर संभव, असंभव कोशिश की जा रही थी कि शीर्ष पर प्रधानमंत्री और उनके नेतृत्व में रेलमंत्री, एक ओर दुर्घटना विचलित व पीड़ितों के प्रति कितने संवेदनशील हैं और दूसरी ओर, खुद मौके पर पहुंचकर बहुत ही कुशल नेतृत्व मुहैया कराने वाले हैं और इस त्रासदी के लिए उनकी ओर उंगली उठाना, उनसे किसी प्रकार की जवाबदेही की मांग करना ही ज्यादती होगी। ”यह राजनीति करने का समय नहीं है” के बार-बार दुहराए जाते उपदेश, ठीक इसी प्रयास का हिस्सा थे।

सांप्रदायिक षड़यंत्र के अंदेशों की ओट में नाकामियां छुपाने के 9 साल

आलेख : राजेन्द्र शर्मा

याद रहे कि यह तब हो रहा था, जबकि मुख्यधारा के मीडिया पर वर्तमान शासकों के लगभग मुकम्मल नियंत्रण के बावजूद, वर्तमान शासन में रेलवे की भयंकर दुर्दशा तथा उपेक्षा की आंखों में गढ़ने वाली सच्चाईयां, गाढ़े रंगों में रंगकर सामने आने में खास देर नहीं लगी। मिसाल के तौर पर एक तो यही कि रेलवे में इस समय 3 लाख 20 हजार के करीब अनुमोदित पद खाली पड़े हुए हैं, जिनमें एक तिहाई से ज्यादा पद जमीनी स्तर पर रेल मार्ग का सुरक्षित संचालन करने से जुड़े हुए हैं। और यह भी कि रेल चालकों तक की इतनी भारी तंगी है कि खुद रेलवे की ही अपनी रिपोर्टों के अनुसार, उसके कुछ खंडों में तो तिहाई या उससे भी ज्यादा रेल चालकों को, बारह घंटा या उससे भी ज्यादा समय तक ड्यूटी करनी पड़ रही है और वह भी रेस्ट के बिना ही। रेल संचालन के सारे तकनीकी उन्नयन के बावजूद, रेलगाड़ियों के सुरक्षित संचालन के लिए, रेल चालक के ध्यान या कन्सेंट्रेशन तथा त्वरित प्रतिक्रिया की क्षमता की जितनी ज्यादा भूमिका होती है, उसे देखते हुए इस तरह थकाते हुए चालकों से रेलगाड़ियां और खासतौर पर यात्री रेलगाड़ियां चलवाना, दुर्घटनाओं को न्यौतने से कम किसी तरह नहीं है।

इसी प्रकार, इस सच्चाई को चर्चा में आने से भी नहीं रोका जा सका कि जिस बहुचर्चित ”कवच” नाम की टक्कररोधी प्रणाली का मोदी सरकार, रेलवे को सुरक्षित बनाने में अपनी बहुत बड़ी उपलब्धि के रूप में ढोल पीटती नहीं थकती थी, उसकी सुरक्षा बालासोर में दुर्घटना की शिकार हुई दोनों एक्सप्रैस यात्री गाड़ियों को उपलब्ध ही नहीं थी। फौरन यह सच भी सामने आ गया कि सारे ढोल पीटे जाने के बावजूद, इस टक्कररोधी प्रणाली की सुरक्षा अब तक देश के रेल ताने-बाने के बहुत छोटे से हिस्से में ही उपलब्ध है। और इससे भी बढ़कर यह कि यह महत्वपूर्ण सुरक्षा व्यवस्था उपलब्ध कराने के लिए जरूरत है 1 लाख करोड़ रुपये के निवेश की और हाल के बजट में इसके लिए मुश्किल से 500 करोड़ रुपए रखे गए हैं।

दिलचस्प है कि इस सिलसिले में वर्तमान सरकार के लिए पेश किए जा रहे बचाव के क्रम में ही यह सच्चाई भी सामने आ गयी कि कवच, जो वैसे भी इस माने में वर्तमान सरकार की उपलब्धि तो किसी भी तरह से नहीं है, क्योंकि उसकी शुरूआत रेलवे में यूपीए सरकार के अंतिम वर्षों में हो चुकी थी और वर्तमान सरकार ने तो अपने पहले कार्यकाल के अधिकांश हिस्से में इसकी ओर से आंखें ही फेर रखी थीं। बाद में जरूर उसने, जैसाकि मोदी राज का नियम ही बन गया है, ”कवच” का नया आकर्षक नाम देकर, अपनी उपलब्धि के रूप में इसे दोबारा लांच कर दिया। बहरहाल, ताजा दुर्घटना के सिलसिले में यह भी उजागर हुआ कि यह प्रणाली भी, सिर्फ एक ही लाइन पर दो गाड़ि़यों के बीच आमने-सामने की टक्कर को रोकने में समर्थ है। बालासोर जैसी दुर्घटना को टालने में नहीं।

इसी प्रकार, यह सच्चाई भी सामने आ गयी है कि रेलवे में दुर्घटनाओं के पैटर्न के अध्ययनों से साफ तौर यह स्थिति निकलकर सामने आती है कि वर्तमान सरकार, रेलवे को सुरक्षित बनाने के लिए जरूरी कदम उठाने में, लगातार कोताही ही बरतती रही है। उल्टे, वर्तमान सरकार ने स्वतंत्र रेल बजट को खत्म करने समेत, इस सबसे बड़े केंद्रीय राजकीय उद्यम का महत्व घटाने के लिए जो भी कदम उठाए हैं, उनका एक बड़ा नतीजा यह हुआ है कि कर्मचारियों की कमी समेत विभिन्न कारणों से ही नहीं, बल्कि सुरक्षा संबंधी उपायों के लिए समुचित निवेश के अभाव में भी, रेलों की सुरक्षा की ही सबसे ज्यादा बलि दी जा रही है। और यह इसके बावजूद है कि वर्तमान सरकार, अपने ढांचागत क्षेत्र में अभूतपूर्व पैमाने पर निवेश करने का ढोल पीटती है।

रेलवे तथा उसमें भी उसके सुरक्षित संचालन की इस आपराधिक उपेक्षा का संबंध, सिर्फ कमाई के हिसाब से रेलवे की सुविधाओं का बढ़ते पैमाने पर निजीकरण किए जाने और वास्तव में जनता के लिए रेल सुविधाओं की बढ़ती दुर्दशा को ढांपने के लिए, पहले बुलेट ट्रेन तथा ”वंदे भारत” जैसी मुख्यत: संपन्न वर्ग के ही उपयोग की, फैंसी परियोजनाओं पर और उनके जरिए शानदार प्रगति के जबर्दस्त प्रचार पर ही, मौजूदा राज के सारा जोर दिए जाने से भी है।

वास्तव में शुद्घ प्रचार के जरिए, वर्तमान शासन तो यह धारणा भी बनाने में भी काफी हद तक कामयाब रहा था कि अब बड़ी रेल दुर्घटनाएं अतीत की चीज हो चुकी हैं। लेकिन, तभी बीस साल की इस सबसे भयावह दुर्घटना के बाद, यह सच झटके के साथ सामने आ गया कि न सिर्फ रेल दुर्घटनाएं लगातार जारी हैं, बल्कि हर दुर्घटना से सीखकर, रेलवे को और सुरक्षित बनाने के काम में, मौजूदा निजाम में भारी कोताही ही होती रही है। बहरहाल, ताजा दुर्घटना समेत, रेलवे की मौजूदा खस्ता हालत के लिए जिम्मेदारी के सवालों से, मौजूदा शासन को बचाने में जब प्रचार के सामान्य तरीके कारगर नजर नहीं आए, यहां तक प्रधानमंत्री के खुद दौरा करने तथा रेल मंत्री के बहुत ही पढ़ा-लिखा होने और इसके बाद भी दुर्घटनास्थल पर चौबीस घंटे जमे रहने के टोटके भी खास कामयाब नहीं रहे, तो सांप्रदायिक संदेह के उस मारक हथियार को आगे बढ़ा दिया गया, जिसे मोदी राज के 9 साल में संघ-भाजपा ने, अपने सबसे कारगर राजनीतिक हथियार में बदल दिया है।

अचानक और बिना किसी आधार के, कम से कम दो प्रकार के सांप्रदायिक प्रचार संदेश सोशल मीडिया में वायरल कर दिए गए। पहला, दुर्घटना स्थल की आकाश में ऊंचाई से ली गयी तस्वीरों में, दो सौ या उससे अधिक मीटर की दूरी पर दिखाई दे रही एक सफेद रंग की इमारत को इंगित कर, इसका दावा किया गया कि दुर्घटना मस्जिद के नजदीक हुई थी और शुक्रवार के दिन हुई थी — जाहिर है कि यह मुसलमानों की करतूत है! इस सांप्रदायिक दुष्प्रचार में, आम संघी ट्रोलों के अलावा इस्कॉन जैसे खुद को सांप्रदायिकता से ऊपर बताने वाले मठों तक के पदाधिकारी कूद पड़े। बाद में ऑल्ट न्यूज नाम के फैक्टचेक वैबसाइट ने यह इस सच को उजागर किया कि संबंधित इमारत कोई मस्जिद नहीं थी, उल्टे यह तो वाहनाग का, जहां ट्रेनों की टक्कर
हुई थी, खुद इस्कॉन का मंदिर था। इसी प्रकार, संभवत: इससे कुछ छोटे पैमाने पर, सोशल मीडिया में यह चलाया गया कि रेल दुर्घटना, शरीफ नाम के स्टेशन मास्टर के ड्यूटी पर रहते हुए हुई थी और वह घटना के बाद से लापता था! बाद में किसी और फैक्ट चेकर ने उजागर किया कि घटना के समय तो ड्यूटी पर एसबी मोहंती नाम का डिप्टी स्टेशन मास्टर था। वास्तव में, सत्ताधारियों को जिम्मेदारी से बचाने के लिए छेड़े गए इस भयावह सांप्रदायिक दुष्प्रचार के खतरों को भांपते हुए, ओडिशा पुलिस को बाकायदा इसकी चेतावनी जारी करनी पड़ी थी कि ऐसा सांप्रदायिक झूठ फैलाने वालों के साथ बहुत सख्ती से निपटा जाएगा।

वास्तव में मोदी राज के 9 साल की सबसे बड़ी कामयाबी यही है कि संघ-भाजपा द्वारा इस तरह के सांप्रदायिक प्रचार के विशद ताने-बाने को न सिर्फ संरक्षण दिया जाता है तथा उनके डबल इंजन राज में उसे हर तरह से न सिर्फ बचाया जाता है, बल्कि खुद ही अपने औपचारिक-अनौपचारिक बाजुओं से इस तरह के ताने-बाने को खड़ा भी किया जाता है। धीरे-धीरे इस तरह प्रचारित सांप्रदायिक धारणाओं को संघ-भाजपा द्वारा आधिकारिक रूप से तथा उनके द्वारा नियंत्रित सरकारों तथा राजकीय संस्थाओं द्वारा भी अपना लिया जाता है और उन्हें राजकीय स्तर पर आगे बढ़ाया जाने लगता है। इस मामले में भी कुछ ऐसा ही होने के आसार नजर आते हैं।

‘एक्स्ट्रा-क्वालीफाइड’ तथा अपनी जिम्मेदारी के प्रति अभूतपूर्व तरीके से समर्पित ”रेल मंत्री” ने, घटनास्थल पर पहुंचने के कुछ ही घंटों में इसका ऐलान कर दिया कि दुर्घटना के कारण का पता चलने ही वाला है। वह चौबीस घंटे में ही इसका भी ऐलान कर चुके थे कि दुर्घटना इलैक्ट्रोनिक सिग्नलिंग प्रणाली की गड़बड़ी से हुई थी, जिससे कोरोमंडल एक्सप्रैस मेन लाइन से सीधे निकल जाने के बजाय, लूप लाइन में खड़ी मालगाड़ी से जाकर भिड़ गयी और इसकी गड़बड़ी के लिए जिम्मेदार लोगों की
भी निशानदेही की जा चुकी थी। लेकिन, चंद घंटों में ही रेल मंत्रालय इसका ऐलान कर चुका था कि अब आगे, सीबीआइ इसकी जांच करेगी कि यह सब हुआ क्यों? इसके पीछे और क्या है?

मुद्दा यह नहीं है कि सीबीआइ जांच में क्या निकलेगा, क्या नहीं निकलेगा? मोदी राज में यह तरीका ही बन गया है कि जवाबदेही अपने सिर से हटाने के लिए, षड़यंत्र का शोर मचा दो। अब तक कई रेल दुर्घटनाओं की षड़यंत्र के एंगल से जांच कराई भी जा चुकी है। अंतत: कुछ नहीं निकलता है, क्योंकि कुछ होता ही नहीं है। लेकिन, सत्ताधारियों को जवाबदेही से छुट्टी जरूर मिल जाती है। और षड़यंत्र के सांप्रदायिक इशारे तो जितने वक्त तक चलेंगे, वर्तमान सत्ताधारियों का उतना ही काम कर देंगे।

अब यह दूसरी बात है कि इन सांप्रदायिक इशारों से सत्ताधारी संघ-भाजपा को होने वाला लाभ भी, दिनों-दिन घटता जा रहा है। लेकिन, हताशा में तो वे और ज्यादा वही-वही करेंगे।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और साप्ताहिक पत्रिका ‘लोक लहर’ के संपादक हैं।)

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