व्यंग्य : राजेंद्र शर्मा
विपक्ष वालों की ये तो हद्द ही है। मोदी जी ने किसी ऐरी-गैरी जगह में नहीं, अमेरिका के व्हाइट हाउस में घुसकर बता दिया; अकेले-दुकेले में नहीं, बाकायदा प्रेस के सामने एलान कर के बता दिया कि डेमोक्रेसी उनकी सरकार के डीएनए में है। फिर भी ये वही पुरानी रट लगाए जा रहे हैं कि डेमोक्रेसी को बचाना है! कहते हैं कि कुछ भी कर के सब साथ हो जाएंगे, पर डेमोक्रेसी को बचाएंगे। और तो और, हौसले तो इसके हैं कि मोदी को हटाएंगे, डेमोक्रेसी को बचाएंगे! खैर मोदी जी को हटाने की बात तो छोड़ ही दो, पर डेमोक्रेसी को ये क्यों बचाएंगे? वह भी मोदी जी के गद्दी पर रहते हुए! जब मोदी जी ने बाकायदा इसका एलान कर दिया कि डेमोक्रेसी उनके, उनकी पार्टी के, उनकी सरकार के डीएनए में है, तो ये विपक्ष वाले होते कौन हैं, डेमोक्रेसी को बचाने वाले! मोदी जी की डेमोक्रेसी, मोदी जी के डीएनए में है, फिर ये विपक्ष वाले कहां से आ गए, डेमोक्रेसी के हिमायती बनकर! मोदी जी के घर का मामला है, मोदी जी खुद देख लेंगे कि डेमोक्रेसी को कैसे रखना है; कितना बचाना है, कितना कतरना है; कितना बढ़ाना है, कितना घटाना है; कितना गिराना है, कितना उठाना है; कितना छुपाना है, कितना दिखाना है; विपक्ष वाले उनके घरेलू मामले में टांग नहीं घुसाएं। बेहतर होगा कि ये तो दूर ही रहें, मोदी जी से भी और उनकी डेमोक्रेसी से भी।
वैसे भी जब मोदी जी व्हाइट हाउस के लॉन पर खड़े होकर, बाकायदा इसका एलान कर रहे थे कि डेमोक्रेसी हमारी रगों में है, डेमोक्रेसी हमारी स्पिरिट है, हम डेमोक्रेसी जीते हैं, तो विपक्ष वाले डेमोक्रेसी के होने, न होने की बात कैसे कर सकते हैं? वहां तो जो भी बोल रहे थे, नरेंद्र भाई दामोदर दास मोदी नहीं, भारत के प्रधानमंत्री जी बोल रहे थे। इस देश के प्रधानमंत्री की बात, कोई भारतीय कैसे काट सकता है, फिर चाहे वह मोदी जी का विरोधी ही क्यों न हो? राहुल गांधी ने जब इंग्लेंड में जाकर, भारत में बैठे प्रधानमंत्री की बात काटने की गलती की थी, तो क्या हुआ था, याद है ना? उनसे माफी मंगवाने के लिए भारतीय संसद ठप्प हो गयी थी। न राहुल ने माफी मांगी और न संसद माफी के बिना चलने को राजी हुई। इस बार पीएम अमेरिका में थे, तो क्या हुआ, भारत में बैठकर भारत के पीएम की बात काटने वाले एंटीनेशनल क्या सोचते हैं, यूं ही बच जाएंगे?
उस समय विदेश में भारत के पीएम की बदनामी करने को एंटीनेशनल कहा गया था, तो इसका मतलब यह थोड़े ही था कि देश में बैठकर पीएम की बदनामी करना, पीएम की बात काटना, एंटीनेशनल नहीं है। जरूर है! सौ फीसदी है। वैसे भी तरह-तरह की मीडिया क्रांति के इस जमाने में, देश में काटी जाए तो क्या, और विदेश में काटी जाए तो क्या, पीएम की बात काटना तो हर हाल में देश की बदनामी है और देश को बदनाम करने की तो कोई माफी नहीं है। फिर भले ही इसकी वजह से नये संसद भवन में संसद का पहला सत्र ठप्प ही करना पड़े। जब बिना राजदंड के संसद ने देश को बदनाम करने वालों को माफी नहीं दी, तो अब तो संसद में राजदंड भी लग गया है। वैसे हमें तो लगता है कि यह भी भारत विरोधी टूलकिट की ही साजिश का हिस्सा है। देश को बदनाम करने वालों को दंड दिए बिना संसद चलेगी नहीं और संसद ठप्प रहेगी, तो भारत की बाहर और बदनामी होगी कि इमारत तो बढिय़ा है, पर संसद तो चलती ही नहीं है!
वैसे सच पूछिए तो मोदी जी की प्रेस कॉन्फ्रेंस का पूरा लफड़ा ही, टूल किट वालों का खड़ा किया था। न प्रेस कान्फ्रेंस का चक्कर पड़ता और न मोदी जी को किसी पत्रकार के सवाल का जवाब देना पड़ता। पत्रकार का सवाल ही नहीं होता, तो जवाब देने का सवाल ही क्यों उठता? न डेमोक्रेसी, न भेदभाव, न माइनॉरिटी अधिकार, न और कुछ; न कोई सवाल, न कोई जवाब। और जवाब ही नहीं होता, तो विपक्ष वाले काटते क्या? न मोदी जी को डेमोक्रेसी, डेमोक्रेसी का जाप करना पड़ता और न विपक्ष वालों को झूठ-झूठ का शोर मचाने का मौका मिलता। आज से नहीं, आठ साल से ज्यादा से सब कुछ कितने आराम से चल रहा था। मोदी जी सारी दुनिया के कई चक्कर लगा आए, पर कहीं कोई प्राब्लम नहीं हुई। छ: बार तो अमेरिका के ही चक्कर लगा आए, पर कभी कोई प्राब्लम नहीं हुई। न सवाल न जवाब, सिर्फ भाषण। और फिर भाषण। और फिर और, और भाषण। और तो और, विदेश में तो कभी टेलीप्राम्प्टर तक ने धोखा नहीं दिया।
पर इस बार बाइडेन ने धोखा दे दिया। काश, अब की बार भी माई डियर ट्रम्प सरकार बनी होती, तो इंडिया को यह दिन नहीं देखना पड़ता। भोले-भाले मोदी जी को बाइडन ने अपनी चिकनी-चुपड़ी बातों के जाल में फंसा लिया। खास भोज, संसद में भाषण वगैरह के सब्जबाग दिखाकर प्रोग्राम बनवा दिया और ऐन आखिरी वक्त पर शर्त लगा दी कि व्हाइट हाउस में प्रेस का सामना करना पड़ेगा। मोदी जी को पहले तो बड़ा गुस्सा आया। अमेरिका से खास मोहब्बत का मतलब यह थोड़े ही है कि शर्तें मनवायी जाएं। प्यार शर्तों पर कौन करता है जी! पर बाद में देश की खातिर दिल को समझा लिया। मना कर दें तो दुनिया क्या कहेगी — विश्व गुरु प्रेस का सामना करने से डर गया। सोचा व्हाइट हाउस के लॉन में प्रेस से सामना – इसका चुनाव के लिए बेनिफिट भी ले सकते हैं। एक सवाल, और नौ साल में एक प्रेस कान्फ्रेंस भी नहीं करने के सारे दाग भी धुल जाएंगे। फिर भी साफ कह दिया, सिर्फ दो सवाल: एक अमरीकी और हिंदुस्तानी, आम कैसे खाते हैं टाइप का। अमरीकी सवाल पहले से दिखाना होगा। और जवाब हम दोनों मिलकर देंगे – मैं और मेरा टेलीप्राम्प्टर।
फिर भी लोचा हो गया। टेलीप्राम्प्टर भी सही चला। सवाल के जवाब में, भाषण भी हो गया। पर विपक्ष वाले ले उड़े। कह रहे हैं, डेमोक्रेसी डीएनए में है तो, देश में तानाशाही क्यों है? डेमोक्रेसी डिलीवर कर रही है, तो भेदभाव और सांप्रदायिकता ही क्यों पैदा हो रहे हैं? डेमोक्रेसी रग-रग में है, तो जम्मू-कश्मीर से मणिपुर तक, जो हो रहा है, वह क्यों हो रहा है? फिर कर दी ना हद्द। डेमोक्रेसी डीएनए, रग-रग वगैरह में है, यही तो कहा है। मोदी जी ने देश में डेमोक्रेसी होने की बात तो कहीं कही ही नहीं है, उसे काटने की ऐसी उछल-कूद क्यों? रही बात तानाशाही की तो मोदी जी इमर्जेंसी से तो इतनी नफरत करते हैं कि इस बार मन की बात का हफ्ता बदल दिया, फिर भी अमेरिका जाने से पहले ‘‘मन की बात’’ में इमर्जेंसी को लात लगाकर गए। मोदी जी के पक्के से पक्के विरोधी भी उन पर देश में अघोषित इमर्जेंसी लगाने का आरोप भले लगाएं, पर सिंपल इमर्जेंसी का आरोप कोई नहीं लगा सकता है। मोदी जी को इमर्जेंसी भी प्लेन नहीं, खास ‘‘अघोषित’’ फ्लेवर वाली ही चलती है। फिर भी विरोधी हैं कि डेमोक्रेसी बचाओ-बचाओ कर रहे हैं!
(इस व्यंग्य के लेखक वरिष्ठ पत्रकार और साप्ताहिक ‘लोकलहर’ के संपादक हैं।)