तेजी से दरक रहा है, भाजपा की सोशल इंजीनिरिंग का तानाबाना

दैनिक समाचार

2017 के विधान सभा चुनावों में भाजाप के प्रचंड बहुमत के विजय रथ के मुख्य दो पहिए थे- एक हिंदुत्व और दूसरा सोशल इंजीनीयरिंग। सोशल इंजीनीयरिंग के तहत भाजपा ने खुलकर गैर-यादव और गैर-जाटव का कार्ड खेला था और बड़े पैमाने पर गैर-यादव पिछड़ों और एक हद तक गैर-जाटव दलितों का वोट प्राप्त किया था। कुछ सच और बड़े पैमाने पर झूठ का इस्तेमाल करके आरएसएस-भाजपा की प्रोपेगंडा मशीनरी ने गैर-यादव और गैर-जाटव वोटरों को यह संदेश देने में सफल रही थी कि पिछड़े-दलितों के नाम पर मिलने वाले फायदों के अधिकांश हिस्सों को यादवों और जाटवों ने हड़प लिया है और गैर-यादव और गैर-जाटवों को इससे वंचित कर दिया। भाजपा ने ऐसा नैरेटिव बनाया कि जैसे 2007 से 2012 तक की मायावती के नेतृत्व वाली बसपा की सरकार जाटवों की सरकार और 2012 से 2017 तक अखिलेश यादव के नेतृत्व वाली सपा की सरकार यादवों-मुस्लिमों की सरकार थी। उसने यह भी संदेश दिया कि मोदी जी के नेतृत्व में भाजपा उत्तर प्रदेश में गैर-यादव पिछड़ों और गैर-जाटव दलितों की सरकार कायम करेगी और उनके हितों की रक्षा करेगी।

इस प्रक्रिया में भाजपा ने खुद को गैर-यादव पिछड़ों और गैर-जाटव दलितों के चैम्पियन के रूप में प्रस्तुत किया और उन्हें यह संदेश दिया कि यदि उत्तर प्रदेश में भाजपा सत्ता में आती है, तो इन वंचित पिछड़े और दलित तबकों को उनका पूरा हक मिलेगा। इसके लिए आरएसएस-भाजपा ने टिकट वितरण में सोशल इंजीनियरिंग के फार्मूले का इस्तेमाल किया और सचेत तौर पर गैर-यादव पिछड़ों और गैर-जाटव दलितों को बड़े पैमाने पर टिकट दिया। इतना ही नहीं भाजपा ने गैर-यादव पिछड़े और गैर-जाटव दलित नेताओं को अपने संगठन में शीर्ष स्थान दिया।

इसी रणनीति के तहत 2016 में उत्तर प्रदेश की एक सशक्त पिछड़ी जाति (मौर्या) के केशव प्रसाद मौर्य को प्रदेश अध्यक्ष नियुक्त किया गया और प्रदेश अध्यक्ष पद से लक्ष्मीकांत वाजपेयी (ब्राह्मण) को हटाया गया। इसके साथ ही भाजपा ने पिछड़ों की अलग-अलग क्षेत्रों में प्रभाव रखने वाली पार्टियों से भी गठजोड़ कायम किया। इसमें ओमप्रकाश राजभर और अनुप्रिया पटेल के नेतृत्व वाली ताकतवर पार्टियां (सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी और अपना दल) भी शामिल थीं। इस तरह राजभर और पटेल वोट बैंक को अपने साथ किया। डॉ. संजय निषाद के नेतृत्व वाली निषाद पार्टी को साथ लेकर भाजपा ने पूर्वांचल में निषादों को साधा। इसी तरह के गठजोड़ बुंदेलखंड में पिछड़ी जाति की कुछ पार्टियों के साथ किए गए थे।

इस सब के साथ ही भाजपा ने बसपा और सपा के जनाधार वाले पिछड़े और दलित समाज के नेताओं को, भी अपनी पार्टी में शामिल किया। जिसमें स्वामी प्रसाद मौर्या जैसे कद्दावर नेता भी शामिल थे। सोशल इंजीनियरिंग की इस पूरी प्रक्रिया में भाजपा गैर-यादव पिछड़ों के बहुलांश हिस्से को अपने साथ कर लिया और सपा-बसपा को काफी हद तक इन वोटरों से अलग-थलग कर दिया, यही समूह भाजपा जीत का सबसे बड़ा आधार बना। गैर-जाटव दलितों के वोट ने भी इसमें एक अहम भूमिका निभाई। नरेंद्र मोदी द्वारा खुद को हिंदू हृदय सम्राट के साथ पिछड़े के प्रतिनिधि के रूप में जोरदार तरीके से पहले ही प्रस्तुत किया जा चुका था। यहां यह याद कर लेना जरूरी है कि 2017 का विधान सभा चुनाव मुख्यत: नरेंद्र मोदी के नेतृत्व और चेहरे पर ही लड़ा गया था और योगी आदित्यनाथ के मुख्यमंत्री बनने की कहीं कोई दूर-दूर तक संभावना नहीं थी। कुल मिला जुलाकर 2017 के विधान सभा चुनाव से पहले भाजपा ने यह संदेश दिया कि भले ही भाजपा की भावी सरकार हिंदुत्ववादी होगी, लेकिन उसमें सबसे अधिक बोलबाला और प्रतिनिधित्व गैर-यादव पिछड़ों और गैर-जाटव दलितों का होगा, विशेषकर गैर-यादव पिछड़ों का, असल में यह पिछड़े हिंदुओं की सरकार होगी।

लेकिन 2017 के विधानसभा चुनावों में प्रचंड बहुमत से भाजपा की जीत के साथ ही धीरे-धीरे गैर-यादव पिछड़ों और गैर-जाटव दलितों को उनके हक-हकूक देने की असलियत सामने आने लगी। रोज-बरोज यह उजागर होने लगा कि पिछड़ों और दलितों के बीच भाजपा ने यह दरार इसलिए चौड़ी की थी, ताकि उसका फायदा उठाकर पिछड़ों का वोट हासिल किया जा सके। इसका पिछड़े-दलितों के वास्तविक हितों से कुछ लेने-देना नहीं था। इसकी शुरुआत योगी आदित्यनाथ उर्फ अजय सिंह बिष्ट के मुख्यमंत्री बनने से शुरू हुई। पहली बात तो यह कि मुख्यत: पिछड़ों के वोट पर बनी सरकार के मुख्यमंत्री की बागडोर एक ठाकुर को सौंपी गई और इसकी क्षतिपूर्ति के तौर पर केशव प्रसाद मौर्य को उपमुख्यमंत्री बनाया गया, लेकिन केशव प्रसाद मौर्य योगी की सरकार में कितनी गई-गुजरी हैसियत पूरे पांच साल रही, यह जग-जाहिर तथ्य है। उनकी जगह स्टूल तक सीमित थी।

योगी की सरकार में पिछड़ों-दलितों के नेताओं को मंत्री तो बनाया गया, लेकिन किसी मंत्री की कोई हैसियत नहीं थी। पूरे पांच वर्ष योगी आदित्यनाथ मंत्रियों को दरकिनार करके सीधे-सीधे नौकरशाहों के माध्यम से सरकार चलाते रहे। कहने के लिए पिछड़ों-दलितों के मंत्री थे,लेकिन वे अपने सामाजिक समूहों और वोटरों के लिए कुछ भी करने में असमर्थ थे। इसी तरह की असमर्थता के चलते एक मुखर और जनाधार वाले नेता ओमप्रकाश राजभर ने योगी मंत्रिमंडल से 2019 में ही इस्तीफा दे दिया था और तथ्यों के साथ यह आरोप लगाया कि यह पिछड़े-दलितों की नहीं, उच्च जातीय हिंदुओं की सरकार है।
जहां एक ओर पिछड़ों के नेता वाजिब और वास्तविक राजनीतिक प्रतिनिधित्व के संबंध में ठगे गए, वहीं योगी आदित्यनाथ ने खुलकर अपरकॉस्ट, विशेषकर ठाकुरवाद का कार्ड खेला। शासन-प्रशासन में बड़े पैमाने पर अपरकॉस्ट का वर्चस्व कायम हुआ। आज की तारीख में भी 21 जिलाधिकारी सिर्फ एक ही ठाकुर जाति के हैं। मुख्यमंत्री बनते ही पूर्व मुंख्यमंत्री अखिलेश यादव के आवास का पवित्रीकरण कराकर योगी आदित्यनाथ ने अपनी वर्ण-जातिवादी सोच का परिचय शुरूआत में ही दे दिया था। अपराधियों के सफाए के नाम पर चुन-चुनकर पिछड़े और मुस्लिम युवकों को निशाना बनाया गया। सरकारी नौकरियों में भर्तियों में बड़े पैमाने पर पिछड़े-दलितों के हकों की हकमारी की गई और आरक्षण में नियमों की धज्जियां उड़ायी गईं।

प्रथामिक शिक्षक भर्ती में अति पिछड़ों के आरक्षण की हकमरी को तो आखिर सरकार को स्वीकार करना पड़ा। उच्च शिक्षा संस्थानों में शिक्षकों की भर्ती में जमकर आरक्षण नियमों को तोड़ा-मरोड़ा गया और उनकी धज्जियां उड़ायी गईं। लेकिन बात योगी आदित्यनाथ की व्यक्तिगत व्यक्तिवादी-जातिवादी सोच तक सीमित नहीं थी और न है। योगी आदित्यनाथ तो जमकर ठाकुरवाद को बढ़ावा दे ही रहे थे, और पिछड़ों-दलितों के खिलाफ काम कर ही रहे थे, लेकिन बड़ा संकट आरएसएस-भाजपा बुनियादी विचारधारा में निहित था। मंडल आयोग की रिपोर्ट लागू करने को आरएसएस के मुख पत्र आर्गेनाइजर ने शूद्र क्रांति की संज्ञा दी थी और उसे रोकने के लिए आध्यात्मिक क्रांति (धार्मिक क्रांति शुरू) करने का आह्वान किया था। ऐसे संगठन से कैसे पिछड़ों के हितों की रक्षा की उम्मीद की जा सकती है।

आरएसएस-भाजपा का हिंदुत्ववाद भले ही बाहर से मुसलमानों के खिलाफ केंद्रित दिखता हो, लेकिन उसकी मूल अंतर्वस्तु दलित-पिछड़ा और महिला विरोधी है, क्योंकि हिदुत्वादी विचारधारा अपने मूल में वर्ण-जातिवादी है। न केवल उत्तर प्रदेश में बल्कि पूरे देश में नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में जो नीतियां चल रही हैं, वह सामाजिक समूह के तौर पर सबसे अधिक दलित-पिछड़ों की विरोधी हैं, चाहे आरक्षण के माध्यम से प्रतिनिधित्व का प्रश्न हो, चाहे रोजगार प्रश्न हो और चाहे भूख-गरीब का प्रश्न हो, महंगाई का प्रश्न या शिक्षा और स्वास्थ्य का। इतना ही नहीं, केंद्र की मोदी सरकार और उत्तर प्रदेश में योगी सरकार ने जिस तरह संविधान और संवैधानिक संस्थाओं की धज्जियां उड़ाई हैं, उससे पिछड़ो-दलितों में यह संदेश गया है कि भाजपा की सरकार के रहते संविधान और लोकतंत्र ही खतरे में है, जो पिछड़ों दलितों के हितों की हिफाजत की सबसे बड़ी गारंटी है। अंधाधुंध निजीकरण आरक्षण के खात्मे का एक बड़ा उपाय बन गया है।

मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की व्यक्तिवादी-जातिवादी राजनीति, पिछड़ों के प्रतिनिधियों की उपेक्षा, पिछड़ों-दलितों के हितों की हकमारी, शासन-प्रशासन में अपरकॉस्ट का दबदबा, केंद्र और उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा संविधान की धज्जियां उड़ाना और लोकतंत्र को संभावित खतरे ने गैर-यादव और गैर-दलित मतदाताओं और नेताओं के बड़े हिस्से को भी इस तथ्य का गहरा अहसास करा दिया है कि आरएसएस-भाजपा ने पिछड़ों-दलितों को बांटने का कार्ड उनकी सामूहिक शक्ति को कमजोर बनाने के लिए किया था और इसमें वह 2017 में सफल हुए। गैर-यादव पिछड़ों और गैर-जाटव दलितों के हाथ कुछ प्रतीकात्मक प्रतिनिधित्व के सिवाय कुछ नहीं लगा।

2017 में प्रचंड बहुमत दिलाने वाला पिछड़ा वोट बैंक भाजपा के हाथों से तेजी से फिसल रहा है, इसका अहसास ही पिछड़े नेताओं को भाजपा छोड़ने के लिए बाध्य कर रहा है, क्योंकि उनका जनाधार भाजपा का साथ छोड़ रहा है। निष्कर्ष रूप में कहें तो, 2017 के विजय रथ का एक पहिया सोशल इंजीनीयरिंग (गैर-यादव पिछड़ों और गैर-जाटव दलितों को साथ लेना) टूट रहा है, अब भाजपा का हिंदुत्व का पहिया ही एकमात्र मजबूत पहिया रह गया है, क्या वह एक पहिया वाले रथ से 2022 का विधान सभा चुनाव जीत पाएगी?

सम्पादक
सम्यक भारत पत्रिका

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