शब्बो खातून की शादी में बारात मुस्लिम परिवार की तरफ से आई थी, लेकिन बारात की अगवानी हिंदू परिवार कर रहा था। इसलिए उन दिनों शब्बो की शादी के चर्चे सबकी जबान पर थे।
यह कहानी करीब 20 साल पहले शुरू हुई थी जब शब्बो सिर्फ 4 साल की थी। इस छोटी सी उम्र में ऊपर वाले ने शब्बो से उसकी मां छीन ली। यही नहीं, बदकिस्मती से कुछ ही समय बाद शब्बो के बाप जान का भी इंतकाल हो गया। शब्बो अनाथ हो गई। कोई भी शब्बो की जिम्मेदारी लेने को तैयार नहीं था।
अब सवाल था कि 4 साल की बच्ची जाए कहां। ऐसे में उपेंद्र गुप्ता ने बच्ची की जिम्मेदारी उठाने का फैसला किया। उपेंद्र ने शब्बो को गोद ले लिया और अपने घर ले आए। अब उपेंद्र अपने बेटे के साथ एक बेटी की की भी परवरिश करने लगे।
अब हिंदू आंगन में मुस्लिम बेटी आई तो होली-दीवाली को ईद-बकरीद का साथ मिल गया। उपेंद्र के घर मे अब होली दीवाली के साथ ईद भी मनाई जाने लगी। भाई को राखी बांधने के लिए बहन मिल गई। उपेंद्र ने बच्ची को सिर्फ मां की गोद और बाप का साया ही नहीं, वह भी देने की कोशिश की, जो उसे उसके असली मां-बाप से मिलना चाहिए था।
परिवार में रहने के दौरान कई बार धार्मिक मान्यताओं ने उपेंद्र का रास्ता जरूर रोका, लेकिन उन्होंने इसका असर उस बच्ची पर नहीं पड़ने दिया।
लालन-पालन की उम्र गुजरती गई और शब्बो बड़ी हो गई। अब बारी थी उपेंद्र गुप्ता के और बड़े बनने की। उन्होंने इस बारे में कभी कोई छल करना ठीक नहीं समझा कि शब्बो के मां-बाप मुस्लिम थे और जन्म से वह भी मुस्लिम है।
उपेंद्र ने शब्बो की शादी के लिए लड़का खोजना शुरू किया तो अजीब मुसीबत पेश आई। अक्सर ऐसा होता कि जिस मुस्लिम परिवार से वे संपर्क करते, वह परिवार इस बात पर बड़ा नाक-भौं सिकोड़ता कि एक हिंदू शख्स उनके बेटे की शादी के लिए आया है। उपेंद्र को तमाम अवांछित सवालों के जवाब देने पड़ते। लेकिन उपेंद्र ने हार नहीं मानी। उनका भरोसा कायम रहा और आखिर वे कामयाब हुए। एक मुस्लिम परिवार ने शादी कबूल कर ली।
बारात आई तो गजब नज़ारा पेश हुआ। बारात में ज्यादार लोग मुस्लिम समुदाय के थे, लेकिन बारात का स्वागत करने के लिए ज्यादातर हिंदू थे। इस्लामिक रीति-रिवाज से दोनों का निकाह कराया।
मीडिया को भनक लगी तो लोग पहुंच गए माजरा लेने। उपेंद्र से पूछा गया कि आप तो हिन्दू हैं! उपेंद्र ने कहा, ‘मैंने अपनी बेटी की तरह उसका पालन-पोषण किया। लेकिन विवाह के लिए बस यह ध्यान रखा कि वह जन्म से मुस्लिम है, बस इसीलिए मुस्लिम लड़के से उसका विवाह कराया है। मेरे लिए मानवता मेरे धर्म से बढ़कर है।’
उपेंद्र गुप्ता के आसपास रहने वालों ने कहा, ‘गुप्ता ने एक नजीर पेश की है कि लोगों के साथ सम्मान और गरिमा के साथ कैसे व्यवहार किया जाए।… अगर वे चाहते तो शब्बो की परवरिश हिंदू रीति-रिवाज से करते और आसानी से उसका विवाह हिंदू लड़के के साथ कर सकते थे, कौन रोकता? लेकिन उनके लिए मानवता सबसे ऊपर थी।’
जो भी लोग इस समाज के इस तानेबाने को समझ रहे थे, वे गर्व से भर उठे। समाज ने भी इस आयोजन में बढ़-चढ़ कर शिरकत की।
यह कहानी बिहार के पूर्णिया की है। जिन दिनों स्मार्ट फोन के जरिये युवाओं को सिर्फ यह बताया जा रहा था कि हिंदुओं के लिए मुसलमान खतरा हैं, उन्हीं दिनों एक पिता अपने पिता होने का फर्ज इस बात में समझ रहा था कि बेटी के धर्म, आस्था और जन्मना पहचान की रक्षा करना मानवता की गरिमा को बरकरार रखना है।
जब सियासत रोज़-ब-रोज़ जनता को नफरत की घुट्टी पिलाती हो, तब ऐसी कहानियां लोगों को काल्पनिक लगती हैं। ऐसा इसलिए है क्योंकि हम अपने साथ जीने-मरने वालों की तरफ नहीं देखते, हम सिर्फ उन चेहरों को देखते हैं जिनकी जबानें सिर्फ जहर उगलती हैं। हम उस जहर को ही जीवन की सच्चाई मान लेते हैं।