प्राचीन भारतीय इतिहास के स्रोत
प्राचीन भारतीय इतिहास को (लगभग 600 ई. पू. से पूर्व का) आद्य इतिहास कहा जाता है, क्योंकि इस काल का कोई भी लिखित साक्ष्य उपलब्ध नहीं हुआ है और जो सिन्धु लिपि प्राप्त हुई है, वह अब तक पढ़ी न जाने के कारण इसे आद्य इतिहास की संज्ञा दी गई है। प्राचीन इतिहास को जानने के लिए निम्न साक्ष्यों का सहारा लिया जाता हैµ
वैदिक साहित्य – हिन्दू धार्मिक साहित्य, बौद्ध साहित्य, जैन धार्मिक साहित्य।
धर्म निरपेक्ष साहित्य ऐतिहासिक ग्रंथ, नाटक, राजनीतिक एवं व्याकरण सम्बन्धी ग्रंथ आदि।
पुरातत्व सम्बन्धी स्रोत – अभिलेख, सिक्के, स्मारक पुरातत्व सम्बन्धी सामग्री आदि।
प्रागैतिहासिक काल
इतिहास का विभाजन प्रागैतिहास, आद्य इतिहास तथा प्राचीन इतिहास तीन भागों में किया जाता है-
- प्रागैतिहास से तात्पर्य उस काल से है, जिसका कोई लिखित साक्ष्य या प्रमाण नहीं मिलता है।
- आद्य इतिहास वह है, जिसमें लिपि के साक्ष्य तो मिलते हैं, लेकिन उसे पढ़ा नहीं जा सकता है, जिससे उनसे कोई निष्कर्ष नहीं निकलता।
- जहाँ से लिखित प्रमाण या साक्ष्य मिलते हैं, वह काल ऐतिहासिक है। ईसा पूर्व छठी शताब्दी से ऐतिहासिक काल प्रारम्भ होता है, किन्तु कुछ इतिहासकार ऐतिहासिक काल के पूर्व के समस्त काल को प्रागैतिहास ही मानते हैं। इसका विवरण निम्न प्रकार से किया जाता है :
(क) पाषाणकालीन संस्कृति
- भारत में पाषाणकालीन सभ्यता का उत्खनन सर्वप्रथम 1863 ई. में प्रारम्भ किया गया था। इस सभ्यता का उदय और विकास प्रातिनूतन काल में हुआ था। इसे साधारण भाजा में हिमकाल कहा जाता है।
- इस काल की अवधि आज से लगभग पाँच लाख वर्ष पूर्व मानी जाती है।
- इस काल में मानव शिकार कर भोजन करता था, औजारों का उपयोग शिकार करने, काटने आदि के लिए किया जाता था।
- पूर्व पाषाण काल को उपकरणों में भिन्नता के आधार पर तीन कालों में विभाजित किया जाता है :
(i) निम्न पूर्व पाषाण काल, (ii) मध्य पूर्व पाषाण काल तथा (iii) उच्च पूर्व पाषाण काल
(ख) मध्य पाषाण काल
- यह काल पुरापाषाण और नवपाषाण काल के बीच का काल था।
- यह काल उत्तर अभिनूतन काल (8,000 ई. पू. से 4,000 ई. पू.) में पनपा, जब जलवायु उष्ण और शुष्क हो रही थी।
- मध्य पाषाण काल में मानव ने बहुत छोटे, नुकीले और पतले औजार बनाये, जिन्हें लघु पाषाण भी कहा जाता है।
- इस काल के अवशेष कृष्णा नदी के दक्षिण के भू-भाग में और छोटा नागपुर में प्राप्त हुआ है।
(ग) नव पाषाण काल
- इस काल में मानव पत्थर की बनी हाथ की कुल्हाडि़याँ आदि औजार पत्थर को छील, घिस और चमकाकर तैयार करता था।
- भारत में नव पाषाण काल के अवशेष सम्भवतः 6,000 ई.पू. से 1,000 ई. पू. के हैं।
- उत्तर भारत में नव पाषाण काल का स्थल बुर्जहोम (कश्मीर) में पाया गया है।
- यह काल ग्रामीण सभ्यता का प्रथम चरण था। इस काल में मानव जीवन में काफी बदलाव आया।
ताम्र पाषाण काल
- नव पाषाण काल के अन्तिम चरण में मानव पत्थर के औजारों के साथ ताँबे के औजार भी बनाने लगा था। इसलिए इस काल को ताम्र पाषाण काल कहा जाता है।
- इस काल में मानव छोटे औजार उपयोग में लाता था। इसके फलक आमतौर पर पत्थर के होते थे। कुछ स्थानों पर वह कुल्हाडि़यों का ही प्रयोग करता रहा, किन्तु ऐसे केन्द्र भी थे, जहाँ मानव औजार नहीं बनाता था। मानव इस तरह के केन्द्रों में ताँबे का अधिक उपयोग करता था।
सिन्धु घाटी सभ्यता
सिन्धु-घाटी सभ्यता उस आर्य-पूर्व सभ्यता को कहा जाता है, जो पश्चिमी पंजाब (आधुनिक पाकिस्तान) के हड़प्पा तथा सिन्ध के मोहनजोदड़ो के उत्खनन से प्रकाश में आयी। बाद में रोपड़ (पंजाब), कालीबंगा (राजस्थान) तथा लोथल (गुजरात) के उत्खननों से पता चला कि यह सभ्यता काफी व्यापक क्षेत्र में फैली हुई थी। यह कांस्ययुगीन थी, इसका आकार त्रिभुजाकार था।
सिन्धु सभ्यता के निर्माता : सिन्धु घाटी सभ्यता के निर्माता सम्भवतः द्रविड़ जाति के लोग थे। इतिहासकार डॉ. गुहा के अनुसार, इस सभ्यता के निर्माता अग्नेय, अल्पाइन व मंगोल जाति के लोग थे।
सभ्यता का काल : सैन्धवकालीन सभ्यता के काल निर्धारण के सम्बन्ध में भी इतिहासकारों के बीच गहरा मतभेद है। इस सम्बन्ध में विद्वानों ने अलग-अलग मत व्यक्त किया है :
(क) इतिहासकार व्हीलर के मतानुसार, 2800 ई.पू. से 1500 ई.पू. था।
(ख) डॉ. वी. ए. स्मिथ के अनुसार 2500 ई.पू. से 1500 ई.पू. था।
(ग) जॉन मार्शल के अनुसार यह काल 4000 ई.पू. से 2500 ई.पू. था।
(घ) डॉ. आर. के. मुखर्जी के अनुसार 3250 ई.पू. से 2750 ई.पू. था।
सिन्धु घाटी सभ्यता की विशेषताएँ : विकसित अवस्था में सिन्धु सभ्यता के केन्द्रों की सामान्य विशेषताएँ थीं :
- नियोजित नगर : निर्माण, दुर्गीकृत नगर एवं निचली बस्तियों में आबादी का विभाजन, एक समान ईंट, लेखन-कला का ज्ञान, मानक बाँट-माप, काँसे के औजारों का इस्तेमाल आदि।
- नगर योजना : सिन्धु-घाटी सभ्यता अपनी नगर निर्माण योजना के लिए विश्व प्रसिद्ध है, अतः इसे नगरीय सभ्यता कहा जाता है। यहाँ के नगरों का निर्माण सुनियोजित ढंग से किया गया था तथा सड़कें एक-दूसरे को समकोण पर काटती थीं।
- भवन निर्माण : भवनों का निर्माण एक पंक्ति में कच्ची तथा पक्की ईंटों के द्वारा किया जाता था। प्रत्येक भवन में रसोईघर, स्नानघर, आँगन तथा शौचालय की व्यवस्था थी। भवनों के द्वार राजमार्गों की ओर न खुलकर गली में पीछे की ओर खुलते थे। भवन छोटे-बड़े एक मंजिले तथा दो मंजिले होते थे।
- अन्नागार : उत्खनन में मोहनजोदड़ो, हड़प्पा, कालीबंगा में विशाल अन्नागार का प्रमाण मिला है। ये इस तथ्य को दर्शाते हैं कि सैन्धववासी काफी मात्र में अन्न सुरक्षित कर लेते थे। इन अनाजों से शहरी आबादी का भरण-पोषण होता था।
सामाजिक दशा : सैन्धव कालीन समाज चार वर्गों में विभाजित था यथा :
- विद्वान- इसके अन्तर्गत पुरोहित, वैद्य तथा ज्योतिषी आते थे।
- योद्धा- इसके अन्तर्गत सैनिक तथा राजकीय अधिकारी आते थे।
- व्यवसायी- इसके अन्तर्गत व्यापारी वर्ग के लोग आते थे।
- श्रमजीवी- इसके अन्तर्गत मेहनत-मजदूरी करने वाले लोग आते थे।
- भोजन : सैन्धवकालीन लोग भोजन शाकाहारी तथा माँसाहारी दोनों प्रकार के करते थे।
- आभूषण : विभिन्न धातुओं द्वारा निर्मित आभूषणों का प्रयोग स्त्री तथा पुरुषों द्वारा किया जाता था। आभूषण स्वर्ण, चाँदी, कीमती पत्थर, हाथी दाँत, ताँबे व सीप आदि के द्वारा निर्मित होते थे।
- मनोरंजन के साधन : सैन्धवकालीन लोग शतरंज, जुआ, नृत्य, संगीत, सीटी गाड़ी आदि से मनोरंजन करते थे।
- मृतक संस्कार : सैन्धवकालीन लोग शव को जमीन में दफनाते थे। कुछ लोग शव को जलाने के पश्चात् उसकी राख को किसी पात्र में रखकर जमीन में गाड़ देते थे।
- नारियों की स्थिति : सैन्धवकालीन समाज में नारियों की स्थिति सम्मानजनक थी। समाज मातृ प्रधान था।
आर्थिक दशा
- कृषि : सैन्धवकालीन लोग खेती में लकड़ी के हलों तथा कटाई के लिए पत्थर की बनी हँसियों का प्रयोग करते थे। गेहूँ, जौ, मटर, अनार आदि की खेती की जाती थी। खेतों की सिंचाई तालाब, नदी, कुओं तथा वर्षा के पानी से की जाती थी।
- व्यवसाय : सैन्धववासियों के व्यापारिक सम्बन्ध विदेशों से थे। उनका व्यापार थल व जल मार्ग से होता था। वस्त्र, आभूषण, पात्र, अस्त्र-शस्त्र आदि का व्यापार काफी मात्र में होता था।
- मापतौल : मापतौल की इकाई आजकल की तरह 16 (सोलह) थी। माप के लिए सीपी के टुकड़ों तथा तौल के लिए बाँटों का प्रयोग किया जाता था। अधिकांश बाँट घनाकार होते थे।
- पशुपालन : सैन्धववासियों का प्रमुख पेशा पशुपालन था। वे भेड़, बैल, गधे, बकरी, सुअर, हाथी आदि पालते थे।
धार्मिक दशा
- सैन्धवकालीन लोग केवल भौतिकवादी ही नहीं थे, बल्कि उनकी रुचि धार्मिक क्षेत्र में भी थी। वे लोग मातृदेवी के उपासक थे। इसके पीछे उनकी कल्पना सृष्टि-निर्मात्री नारी तत्व की थी। पुरुष देवों में भगवान शिव की पूजा करते थे। योनि पूजा का भी प्रमाण मिला है। वृक्षों में पीपल, महुआ, तुलसी तथा पशुओं में कूबड़ वाला बैल तथा साँप की पूजा की जाती थी।
लिपि
- सिन्धुवासी लिपि से परिचित थे। उनकी अपनी मौलिक लिपि थी। इसके अब तक 400 चिह्नों की पहचान की जा चुकी है। यह चित्रात्मक आधार पर निर्मित की गई थी।
हड़प्पा सभ्यता के प्रमुख स्थल
(1) प्रमुख नगर :
सिन्धु सभ्यता के तीन केन्द्रीय नगर यथा : मोहनजोदड़ो, हड़प्पा तथा धौलावीरा थे, जो समकालीन बड़ी बस्तियाँ थीं।
- हड़प्पा : हड़प्पा पहली बस्ती थी, जहाँ खुदाई की गई। यह आधुनिक पाकिस्तान के पश्चिमी पंजाब प्रान्त के मांटगोमरी जिले में रावी नदी के बायें तट पर स्थित है। इसके बारे में जानकारी 1921 ई. में हुई थी। इस नगर के अवशेष लगभग 3 मील के घेरे में फैले हुए हैं।
- मोहनजोदड़ो : वर्तमान समय में मोहनजोदड़ो पाकिस्तान के सिन्ध प्रान्त के लरकाना जिले में सिन्धु नदी के किनारे स्थित प्रमुख नगर था। यह सैन्धव सभ्यता का सबसे बड़ा और प्रमुख नगर था। इस स्थल की जानकारी सर्वप्रथम 1922 ई. में हुई थी। मोहनजोदड़ो का अर्थ है, मृतकों का टीला।
- धौलावीरा : हड़प्पाकालीन नगरों की शृंखला में धौलावीरा एक नवीनतम खोज है। यह नगर गुजरात के रण के मध्य कच्छ जिला में खडीर द्वीप में स्थित है। यह नगर तीन भागों में विभाजित था, जबकि अन्य सैन्धवकालीन नगर दो भागों में विभाजित थे। इसकी जानकारी सर्वप्रथम 1990-91 में हुई थी।
(2) तटीय नगर तथा पत्तन
सिन्धु सभ्यता के अनेक नगर जो बंदरगाह के रूप में कार्य करते थे, अरब सागर के तट पर विकसित हुए थे। यथा-
- लोथल (स्वजींस) : गुजरात प्रान्त के अहमदाबाद जिले के धोलका तालुक में भोगवा नदी के निकट स्थित लोथल, हड़प्पाकालीन सभ्यता का एक महत्वपूर्ण व्यापारिक केन्द्र था। यह पूरा नगर दीवारों से घिरा हुआ था। यहाँ के निवासी चावल भी उगाते थे।
- सुत्कागेंडोर : मकरान तट पर स्थित यह नगर शुष्क व बंजर क्षेत्र होकर भी प्राकृतिक बंदरगाह के कारण सिन्धु सभ्यता का प्रमुख नगर था। इसकी खोज 1931 में की गई थी।
- अल्लाहदीनों : यह स्थान सिन्धु और अरब सागर के संगम से लगभग 16 किमी- पूर्वोत्तर पाकिस्तान में कराची से लगभग 40 किमी पूर्व में स्थित है। इस नगर के भवनों के भीतर और बाहर दोनों ओर बड़ी समरूपता है।
- बालाकोट : यह स्थल पाकिस्तान के लासबेला घाटी तथा सोमानी खाड़ी के दक्षिण-पूर्व में खुटकेड़ा के मैदानों के मध्य स्थित है। उत्खनन में पूर्व से पश्चिम की ओर दो अन्य छोटी गलियों के साथ इस क्षेत्र को समकोण पर काटती हुई एक चौड़ी सड़क मिली है। इसका उत्खनन 1963-76 के दौरान किया गया था।
सैन्धवकालीन अन्य प्रमुख नगर
- कालीबंगा : राजस्थान के हनुमानगढ़ जिले में घग्घर नदी के दक्षिणी किनारे पर स्थित है। यहाँ पर हड़प्पा पूर्व-संस्कृति के अवशेष मिले हैं। इस स्थल का पता 1960 के दशक में चला था।
- चन्हूदड़ो : यह वीरान कस्बा पाकिस्तान के सिन्ध प्रांत में स्थित था। इस स्थल से प्राप्त अवशेषों में यह स्पष्ट होता है कि सीलों या मुद्राओं के उत्पादन का मुख्य केन्द्र था।
- बनवाली : यह हरियाणा के हिसार जिले में अवस्थित था। इसका पता 1973-74 में किया गया। इस स्थल की सभ्यता का द्वितीय युग हड़प्पाकालीन था। इसकी नगर-योजना हड़प्पाकालीन नगरों से भिन्न थी।
- रोजदी : यह हड़प्पाकालीन नगर रोजदी के आधुनिक गाँव से 2 किमी पश्चिम में भादर नदी के किनारे और राजकोट से 50 किमी दक्षिण में है। इस स्थल पर उत्खनन से हड़प्पाकालीन बस्ती के अवशेष मिले हैं।
- देसल्पर : यह नगर गुजरात राज्य के कच्छ जिले में भादर नदी के किनारे स्थित था। यहाँ पर हड़प्पाकालीन किलेबन्दी का प्रमाण मिला है।
स्थल एवं नदी तट
स्थल नदी तट स्थल नदी तट
रोजदी भादर मलवण ताप्ती
लोथल भोगवा कालीबंगा घग्गर
सुतकागेंडोर दाश्क चन्हूदड़ो सिन्ध
सोत्काकोह शादोकौरा बनवाली सरस्वती
हड़प्पा रावी मोहनजोदड़ो सिन्धु
वैदिक सभ्यता एवं संस्कृति
चारों वेदों यथा ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद तथा अथर्ववेद में वर्णित संस्कृति को वैदिक संस्कृति कहा जाता है। वैदिक संस्कृति के प्रणेता ‘आर्य’ थे। वैदिक संस्कृति को निम्नलिखित भागों में विभाजित किया जाता है :
(क) ऋग्वैदिक काल (1500 ई. पू. से 1000 ई. पू. तक)
(ख) उत्तर वैदिक काल (1000 ई. पू. से 600 ई. पू. तक)
ऋग्वेद काल
जिस काल में ऋग्वेद की रचना हुई, उसे ऋग्वेद काल कहा जाता है। ऋग्वेद की रचना की प्रक्रिया 1500 ई. पू. से 1000 ई. पू. तक चली। इसलिए इस समय को ऋग्वैदिक सभ्यता का काल माना जाता है। इस सभ्यता का केन्द्र स्थल सप्त सैन्धव प्रदेश था।
राजनैतिक संगठन
- वैदिक आर्यों की सबसे छोटी राजनैतिक इकाई ‘परिवार’ कहलाता था, जिसका मुखिया परिवार का सबसे वृद्ध पुरुष होता था।
- राजपद आमतौर पर वंशानुगत, किन्तु कभी-कभी निर्वाचित भी होता था।
- राजा जन या कबीले का मुखिया ‘राजन’ होता था। वह सभा, समिति व ‘विदथ’ जैसी जनप्रतिनिधि संस्थाओं के नियन्त्रण में रहता था।
- किसी भी प्रकार के विस्तृत अिधकारी तंत्र व कर व्यवस्था का विकास नहीं हुआ था। पुरोहित, ग्रामणी मुख्य अधिकारी थे।
धर्म
- प्राचीन आर्यों का धर्म एकदम सादा था। वे प्राकृतिक शक्तियों से प्रभावित थे।
- उनके भक्ति के विषय विविध सृष्टि चमत्कारों के व्यक्ति भावापन्न रूप होते थे, जिन्हें वे देवता कहते थे।
- इनके निम्न वर्ग थे :
(1) पार्थिव देवता, जैसेकृ पृथ्वी तथा अग्नि।
(2) अंतरिक्ष स्थानीय देवता, जैसेकृइन्द्र, वायु, अश्विनी।
(3) आकाशीय देवता, जैसेकृ वरुण, ऊषा, सूर्य आदि।
(4) इन देवताओं में वरुण को सर्वाधिक आदरणीय स्थान प्राप्त था।
(5) देवताओं को प्रसन्न करने के लिए प्रार्थना और यज्ञ किये जाते थे।
सामाजिक जीवन
- ऋग्वैदिककालीन समाज कबायली समाज था। गण, ब्रात, सार्थ, जन, विश आदि सामाजिक इकाइयों का उल्लेख मिलता है।
- समाज में ग्रह की तुलना में विश् का काफी महत्व था।
- समाज में दास का भी उल्लेख मिलता है।
- ऋग्वैदिककालीन समाज पितृतात्मक समाज था तथा इसमें नारियों का स्थान सम्मानजनक था।
पशुपालन :
- आर्यों का प्रमुख निर्वाह साधन पशुपालन था। गायों की विपुल संख्या से उनकी सम्पदा एवं समृद्धि आँकी जाती थी, जिन्हें वे सभी शुभ पदार्थों का योग मानते थे।
कृषि :
- कृषि उनका दूसरा व्यवसाय था। ऋग्वेद में मात्र 24 श्लोक में कृषि का उल्लेख मिलता है। एकमात्र उपज, जिसका उल्लेख मिलता है ‘यव’ है।
व्यापार :
- ऋग्वेद काल में व्यापार वस्तु-विनिमय प्रणाली द्वारा होता था।
- गाय लेन-देन का मानक मूल्य मानी जाती थी।
भोजन :
- इस काल में लोग भोजन शाकाहार तथा मांसाहार दोनों प्रकार के करते थे। भेड़ व बकरे का मांस खुलकर खाया तथा देवों को चढ़ाया जाता था।
- वे सुरा जैसे मादक द्रव्यों से भी परिचित थे।
पहनावा :
- ऋग्वेद काल के लोग अधोवस्त्र तथा उत्तरीय पहनते थे। बाद में वैदिक संहिता के काल में वे कच्छा और अंतर्वस्त्र पहनने लगे।
- भेड़ की ऊन से वस्त्र तैयार किये जाते थे।
उत्तर वैदिककाल
जिस काल में ऋग्वेद के अतिरिक्त अन्य तीन वेद, यथाकृ यजुर्वेद, सामवेद, अथर्ववेद एवं ब्राह्मण, उपनिषद्, आरण्य आदि ग्रंथों की रचना हुई, उसे उत्तर वैदिक काल कहा जाता है।
राजनीतिक दशा
राजा : उत्तरवैदिक काल में राजा का पद वंशानुगत हो गया था तथा वे विभिन्न उपाधियाँ धारण करने लगे।
- राजसूय, अश्वमेध तथा वाजपेय यज्ञों का आयोजन किया जाता था।
- इस काल में राजा के अधिकारों में वृद्धि होने के कारण सभा व समिति का महत्व कम हो गया था।
राज्य के प्रमुख अधिकारी : उत्तरवैदिक काल में राज्य की स्थापना के फलस्वरूप अधिकारी तंत्र का विकास हुआ।
- राज्य के मुख्य पदाधिकारी को ‘रत्निन्’ कहा जाता था। शतपथ ब्राह्मण के अनुसार रत्नियों की संख्या ग्यारह थी।
- ‘रत्निन्’ शासन में राजा का सहयोग करता था।
- सेना का प्रबन्ध सेनानी, गाँव का प्रबन्ध ग्रामीण द्वारा किया जाता था।
- न्याय सम्बन्धी प्रबन्ध ‘अध्यक्ष’ नामक अधिकारी को सौंपा गया था।
- आय के साधन : उत्तरवैदिक काल में राज्य की प्रमुख आयों में भूमि कर तथा व्यापार कर था। प्रजा से वसूल किये जाने वाले कर को ‘बलि’ कहा जाता था।
सामाजिक दशा
- परिवार : उत्तरवैदिक काल में समाज की प्रमुख इकाई परिवार थी। परिवार का सबसे बड़ा पुरुष परिवार का अध्यक्ष या मुखिया होता था।
- वर्ण-व्यवस्था : उत्तरवैदिक काल में समाज चार वर्णों में विभक्त था :
- ब्राह्मण : इनका मुख्य कर्तव्य पठन-पाठन, धार्मिक अनुष्ठान कराना था। समाज में इन्हें सर्वोच्च माना जाता था।
- क्षत्रिय : इनका मुख्य कर्तव्य समाज की बाह्य आक्रमण आदि से रक्षा करना था।
- वैश्य : इनका मुख्य कर्तव्य कृषि एवं व्यापार करना था।
- शूद्र : शूद्र का कर्तव्य ब्राह्मण, क्षत्रिय व वैश्य की सेवा करना था।
- वर्ण व्यवस्था का मुख्य आधार जन्म था।
- इस काल में आश्रम व्यवस्था की भी नींव पड़ गई थी।
- विवाह : इस काल में विवाह को एक पवित्र बन्धन माना जाता था। अन्तर्जातीय तथा विधवा विवाह का प्रचलन था। दहेज प्रथा का प्रचलन था, लेकिन बाल-विवाह, पर्दा प्रथा तथा सती प्रथा का प्रचलन नहीं था।
- आभूषण : उत्तरवैदिक काल में आभूजण मोती, स्वर्ण व मणि आदि द्वारा निर्मित किये जाते थे। निष्क, मणि शंख, ललाटिका, कर्णिका आदि आभूषण व्यक्तियों द्वारा धारण किये जाते थे।
- वेशभूषा : इस काल में वास तथा नीवी वस्त्रें के प्रमुख प्रकार थे।
- यज्ञ के अवसर पर रेशमी वस्त्र पहना जाता था।
- मृग चर्म को वानप्रस्थियों द्वारा प्रयोग किया जाता था।
- भोजन : उत्तरवैदिककालीन लोग मांसाहारी भोजन को बुरा समझते थे।
- अधिकांश लोग शाकाहारी भोजन करते थे। गेहूँ, चना, जौ, घी, दही, शहद आदि का प्रयोग करते थे।
- मनोरंजन के साधन : उत्तरवैदिककालीन लोगों के मुख्य मनोरंजन के साधनों में रथ दौड़, घुड़दौड़, आखेट, संगीत, जुआ आदि प्रमुख थे।
- नारी की स्थिति : इस काल में नारियों की स्थिति में गिरावट आ गई थी। उन्हें उपनयन संस्कार से वंचित कर दिया गया था। कन्या के जन्म को अभिशाप माना जाने लगा।
आर्थिक दशा
- कृषि : उत्तरवैदिक काल में खेतों को जोतने के लिए हलों का प्रयोग किया जाता था। कृषि औजार लकड़ी तथा लोहे के होते थे। वर्ष में दो फसलें उगाई जाती थीं।
- सिंचाई हेतु कुएँ, नहरों तथा वर्षा के जल का प्रयोग किया जाता था।
- प्रमुख फसलों में गेहूँ, जौ, चावल, चना, तिल, फल, सब्जी आदि थे।
- पशुपालन : इस काल में गाय को महत्वपूर्ण माना जाता था। उसे पूजनीय माना जाता था।
- गाय, भैंस, भेड़, बकरी, हाथी, घोड़े आदि मुख्य पालतू पशु थे।
- व्यापार : उत्तरवैदिक काल में व्यापार स्थल तथा समुद्री दोनों मार्गों द्वारा होता था। इस समय व्यापार उन्नत था।
- व्यापारियों के अध्यक्ष को ‘श्रेष्ठि’ कहा जाता था।
- उद्योग-धन्धे : इस काल में उद्योग-धन्धे भी उन्नत थे। मुख्य उद्योग कपड़ा बुनना था। बुनाई का काम केवल स्त्रियाँ करती थीं।
धार्मिक दशा
- उत्तरवैदिक काल में भी धर्मोपासना का भौतिक लक्ष्य ही बना रहा।
- मोक्ष आदि की संकल्पना वैदिक काल के अंत में आई।
- यज्ञ अत्यधिक खर्चीला हो गया। यज्ञों में पशु -बलि भी बड़े पैमाने पर होने लगी।
- इस काल के सर्वप्रमुख देवता ‘प्रजापति’ हो गये। रुद्र की भी महिमा बढ़ी।
- जादू-टोना तथा भूत-प्रेतों में भी लोगों का विश्वास काफी बढ़ गया था।
वैदिक साहित्य
वेद शब्द ‘विद’ से बना है, जिसका अर्थ ज्ञान अथवा बुद्धिमत्ता होता है। प्राचीन आर्यों का ज्ञान चार विख्यात वेदों में संगृहीत किया गया है। ये हैं :
(i) ऋग्वेद (ii) सामवेद, (iii) यजुर्वेद (iv) अथर्ववेद
ब्राह्मण, उपनिषद्, आरण्य, उपवेद, वेदांग तथा धर्मशास्त्र भी इसमें आते हैं। इसमें ऋग्वेद सबसे प्राचीन है। वैदिक साहित्य को कभी-कभी दो भागों में विभाजित किया जाता है :
(1) श्रुतिकृ हिन्दू विश्वास के अनुसार श्रुति वैदिक साहित्य का वह भाग है, जो मनुष्य द्वारा लिखा नहीं गया है, बल्कि ऋषि या ईश्वर द्वारा प्रकट किया गया है। इसमें वेद, ब्राह्मण उपनिषद् तथा आरण्य आते हैं।
(2) स्मृतिकृ स्मृति साहित्य की रचना साधारण मनुष्यों ने की है।
ये हैं : उपवेद तथा धर्मशास्त्र, किन्तु वैदिक साहित्य का सर्वाधिक स्वीकार्य विभाजन संहिता, ब्राह्मण, आरण्य तथा उपनिषद् इस प्रकार किया गया है :
- संहिता या मंत्र संग्रह- ये मंत्रें के रूप में हैं। उन्हें ऋग्वेद संहिता, सामवेद संहिता, यजुर्वेद संहिता तथा अथर्ववेद संहिता चार संग्रहों में विभाजित किया गया है :
- ऋग्वेद संहिता में 10 मंडल, 1028 सूक्त, 1080 मन्त्र हैं, जो विभिन्न देवताओं के लिए हैं। विख्यात गायत्री मंत्र इसी में है।
- सामवेद संहिता में 1549 ऋचायें हैं, जो ब्राह्मणों के एक विशिष्ट वर्ग के ‘उद्गात्री’ द्वारा यज्ञों के अवसर पर गाया जाता है।
- यजुर्वेद संहिता में यज्ञीय प्रार्थनाओं का संग्रह है। उसमें यज्ञों के प्रबन्ध तथा संचालन में ब्राह्मणों की भूमिका का वर्णन किया गया है।
- अथर्ववेद संहिता में 20 कांड, 731 सूक्त तथा 5987 मन्त्र आते हैं, जो काले जादू, तंत्र-मंत्र आदि से सम्बन्धित हैं।
- ब्राह्मणक : ये गद्य में रची गई टिप्पणियाँ हैं, जो संहिता के मंत्रें की उत्पत्ति और अर्थ स्पष्ट करती हैं।
- आरण्यकक : हर ब्राह्मण का दार्शनिक भाग, जंगलों में रहने वाले तपस्वियों के मार्गदर्शन हेतु संगृहीत है।
- उपनिषद् या वेदांतक : हर ब्राह्मण के अन्त में यह प्रस्तुत है। यह आर्यों के प्राचीन ग्रंथों में निहित आध्यात्मिक सिद्धान्तों का निचोड़ है। लगभग 108 उपनिषद् उपलब्ध हैं, जिसमें मुख्य है- ऐतरेय, तैत्तिरीय, छांदोग्य, कोशीतकी, वृहदारण्य आदि।
- अन्य साहित्य :
- वेदांगकृ वेदांग छः हैं : शिक्षा, कल्प, निरुक्त, छंद, भाषा नियम तथा ज्योतिष। इसमें सर्वाधिक महत्वपूर्ण कल्पसूत्र है, जो आर्यों के गृहस्थ जीवन से सम्बन्धित है।
- उपवेद या सहायक वेदों में आयुर्वेद, धनुर्वेद, गंधर्ववेद, शिल्पवेद हैं।
- हिन्दुओं के छः विख्यात दार्शनिक सम्प्रदाय भी वैदिक साहित्य में आते हैं। ये छः प्रणालियाँ निम्नलिखित हैं :
- गौतम की ‘न्याय प्रणाली’ विश्लेषणात्मक एवं तार्किक है। न्याय का अर्थ ही तर्कशास्त्र का विज्ञान है। इसकी धारणा है कि ईश्वर साक्षात्कार सम्यक् ज्ञान से सम्भव है।
- उलूककणाद की ‘वैशेषिक प्रणाली’ में सृष्टि का आण्विक सिद्धान्त विकसित किया गया है। इसके अनुसार धर्म का सिद्धान्त इस विश्व को नियन्त्रित करना है। ईश्वर की अवधारणा को स्पष्टतः स्वीकार नहीं किया गया है।
- कपिल के ‘सांख्य दर्शन’ सांख्य द्वैत दर्शन कहलाता है, क्योंकि वह प्रकृति सक्रिय एवं परिवर्तनशील शक्ति तथा पुरुष-शांत अपरिवर्तनीय आत्मा के दो मुख्य कारकों पर अपना ढाँचा खड़ा करता है।
- पतंजलि का ‘योग दर्शन’ शरीर एवं मन को अनुशासित करने की प्रणाली है, जो आंतरात्मिक और आध्यात्मिक प्रशिक्षण की ओर ले जाती है।
- जैमिनी का पूर्व मीमांसा दर्शन कर्मकाण्ड परक और बहुदेववादी है। यह धर्म या सम्यक् जीवन की योजना को प्रस्तुत करता है।
- व्यास का उत्तर मीमांसा अथवा वेदांत दर्शन उपनिषद् से उद्भव हुआ। उसका आधार विश्व का अद्वैतवादी दर्शन रहा। शुद्ध अद्वैत दर्शन के अनुसार दार्शनिक अर्थों में एकमात्र अन्तिम सत्य परमात्मा है। चराचर प्रकृति की विविधता के पीछे वही विद्यमान है।
महाकाव्य काल
हिन्दुओं के दो श्रेष्ठ महाकाव्य रामायण तथा महाभारत हैं। हालांकि इनका निश्चित काल निर्णय सम्भव नहीं है, किन्तु यह आमतौर पर माना जाता है कि इनकी घटनाओं का काल उत्तर वैदिक काल तथा बौद्धकाल के बीच का है। इसमें रामायण प्राचीनतम है। इसमें 24,000 श्लोक हैं। इसके रचयिता वाल्मीकि हैं। इससे प्रेरित समान्तर महाकाव्य हिन्दी में तुलसीदास कृत रामचरितमानस, बंगला में कृत्तिवास की रामायण तथा तमिल में कम्बन की रामायण आदि हैं।
महाभारत में एक लाख श्लोक हैं। यह विश्व का सबसे प्रदीर्घ काव्य है। कौरव तथा पांडवों के बीच युद्ध की मुख्य कथा के साथ आख्यान, नैतिक व आध्यात्मिक दर्शन भी पिरोये गये हैं।
ये महाकाव्य उत्तरवैदिककालीन समाज पर राजनैतिक, सामाजिक तथा धार्मिक प्रकाश डालते हैं।
पुराण युग
पुराणों का ऐतिहासिक महत्व है। विष्णुपुराण में मौर्यवंश का इतिहास व मत्स्य पुराण में आन्ध्र के राजाओं का इतिहास वर्णित किया गया है।
सामान्यतः यह माना जाता है कि पुराणों की रचना बहुत पहले प्रारम्भ हो गई थी, पर उनकी पूर्णतः गुप्त काल में हुई। पुराण 18 हैं, जिसके रचयिता महर्षि वेदव्यास माने जाते हैं :
(1) ब्रह्म पुराण (2) पद्म पुराण (3) विष्णु पुराण
(4) शिव पुराण (5) नारद पुराण (6) अग्नि पुराण
(7) ब्रह्म वैवर्त पुराण (8) वाराह पुराण (9) स्कन्द पुराण
(10) मार्कन्डेय पुराण (11) वामन पुराण (12) कूर्म पुराण
(13) मत्स्य पुराण (14) गरुड़ पुराण (15) लिंग पुराण
(16) ब्रह्मांड पुराण (17) भविष्य पुराण (18) श्रीमद्भगवद् पुराण
धार्मिक आन्दोलन
छठी शताब्दी ई. पू. का युग मानवीय इतिहास में पूर्णतः आध्यात्मिक जागृति का युग था, जिसके फलस्वरूप ब्राह्मणों के कर्मकाण्ड तथा उद्दण्डता से कई दार्शनिक धर्म-सम्प्रदायों का उदय हुआ। इनमें सबसे महत्वपूर्ण बौद्ध धर्म तथा जैन धर्म थे।
जैन धर्म
- वर्धमान महावीर को जैन धर्म का संस्थापक माना जाता है। यद्यपि वे 24वें तीर्थंकर और ऋषभदेव पहले तीर्थंकर थे।
- पार्श्वनाथ 23वें तथा वर्धमान महावीर अन्तिम तीर्थंकर थे।
- वर्धमान महावीर की सत्य, अहिंसा, अस्तेय, अपरिग्रह और ब्रह्मचर्य शिक्षायें जैन धर्म के रूप में मानी जाती हैं।
- जैन धर्म ईश्वर में विश्वास नहीं रखते। मानवता में जो कुछ भी महान, शक्तिशाली व नैतिक है, वही ईश्वर है।
- इसके अनुयायी शरीर की साधना, उपवास, अनुशासन, दयालुता, सेवा और तपस्या करते हैं। यह अहिंसा पर अधिक बल देता है।
- इसके अनुयायी बाद में दो सम्प्रदायों में बँट गये- दिगम्बर तथा श्वेताम्बर।
- दिगम्बर निर्वसन करते हैं तथा श्वेताम्बर ‘श्वेत वस्त्र’ धारण करते हैं।
- यह विभाजन ईसा पूर्व तीसरी शताब्दी में हुआ।
जैन सभाएँ
- प्रथम जैन सभाकृ प्रथम जैन सभा का आयोजन पाटलिपुत्र में 300 ई. पू. के आस-पास जैन मुनि स्थूलबाहुभद्र तथा अन्य जैन मुनियों के नेतृत्व में किया गया था। इस सभा में महावीर की पवित्र शिक्षाओं को 12 (बारह) अंगों में विभाजित किया गया था।
- द्वितीय जैन सभाकृ इस सभा का आयोजन 512 ई.पू. में गुजरात में वल्लभी नामक स्थान पर देवधर्मिणीक्षमा श्रावण की अध्यक्षता में किया गया था। इसका प्रमुख उद्देश्य धार्मिक शास्त्रें को एकत्र करना एवं उसको नये क्रम से संकलित करना था।
बौद्ध धर्म
- गौतम बुद्ध को बौद्ध धर्म का प्रवर्तक माना जाता है। ये महावीर के समकालीन थे। ज्ञान प्राप्त करने के बाद इन्हें बुद्ध कहा जाने लगा था।
- उन्होंने सांसारिक दुःखों से मुक्ति पाने के लिए 29वें वर्ष में गृह त्याग किया। कई वर्षों की तपस्या के बाद एक दिन गया के निकट एक पीपल के वृक्ष के नीचे उन्हें ज्ञान का बोध हुआ और तब से बुद्ध हो गये।
- उन्होंने अपना पहला उपदेश सारनाथ में दिया था।
- बौद्ध धर्म की शिक्षाएँ चार सत्यों पर आधारित हैं :
- दुःखों का अस्तित्व है।
- दुःख इच्छाओं से उत्पन्न होता है तथा अधूरी इच्छाएँ पुनर्जन्म को प्रवृत्त करती हैं।
- जब इच्छाएँ दूर हो जाती हैं, तो पुनर्जन्म नहीं लेना पड़ता है, यही निर्वाण है ।
- इच्छाओं को विचार, व्यवहार और वाणी में शुद्धता लाकर, अष्टमार्ग पर चलकर जीता जा सकता है। पंचशील नामक पाँच सिद्धान्त, जिसका सभी मनुष्यों द्वारा पालन किया जाना चाहिए, वे हैं :
(i) किसी जीवित प्राणी को न मारना (ii) अपरिग्रह
(iii) झूठ न बोलना (iv) मद्यपान न करना
(v) दुश्चरित्र न होना।
- अष्टमार्गी सिद्धान्त : यह दुःख निरोध मार्ग है। इसका निरूपण निम्न प्रकार किया जा सकता है-
(i) सम्यक् ज्ञान (ii) सम्यक् इच्छा (iii) सम्यक् वाणी
(iv) सम्यक् जीवन (v) सम्यक् प्रयत्न (vi) सम्यक् बुद्धि
(vii) सम्यक् समाधि (viii) सम्यक् कार्य।
- दस शील : बुद्ध ने आचरण की शुद्धता के लिए दस शील पर अत्यधिक बल दिया, जो निम्नलिखित हैं :
(i) अहिंसा (ii) सत्य
(iii) चोरी न करना अर्थात् अस्तेय (iv) अपरिग्रहण अर्थात् संग्रह न करना
(v) ब्रह्मचर्य, (vi) नृत्य व संगीत का त्याग
(vii) सुगन्धित पदार्थों का त्याग (viii) असमय भोजन का त्याग
(ix) कोमल शैय्या का त्याग (x) कामिनी कंचन का त्याग
- साहित्य : बौद्ध साहित्य मुख्यतः त्रिपिटकों में समाहित हैं :
- सुत्रपिटक : इसमें बौद्ध धर्म के सिद्धान्तों का वर्णन किया गया है।
- अभिधम्म पिटक : इसके सात भाग हैं। इसमें बौद्ध धर्म का धार्मिक विवेचन किया गया है।
- विनय पिटक : इसमें भिक्षु-भिक्षुणियों के संघ, उनके दैनिक जीवन सम्बन्धी नियमों का वर्णन किया गया है। इस पिटक के निम्नलिखित तीन भाग हैं :
(क) सुप्त विभाग, (ख) खन्दका तथा (ग) परिवार पाठ।
इसके अतिरिक्त निम्नलिखित बौद्ध साहित्य उल्लेखनीय हैं :
- मिलिन्दपन्ह : इसमें यूनानी शासक मिलिन्द तथा बौद्ध भिक्षु नागसेन के दार्शनिक विषय से सम्बन्धी वाद-विवाद का वर्णन किया गया है।
- दीपवंश तथा महावंश : इस साहित्य में तत्कालीन भारतीय राजनीतिक, सामाजिक तथा धार्मिक दशा के साथ-साथ श्रीलंका के राजवंशों का वर्णन मिलता है। इसकी रचना श्रीलंका में पाली भाषा में की गई है।
- महावस्तु : इसमें बुद्ध की अद्भुत शक्ति तथा बोधिसत्व की प्रतिष्ठा का वर्णन किया गया है। यह संस्कृत भाषा में है।
बौद्ध संगीतियाँ :
- प्रथम बौद्ध संगीति : प्रथम बौद्ध संगीति का आयोजन मगध के शासक अजातशत्रु काल में सप्तकर्णी गुहा (राजगृह) में 483 ई. पू. में महाकस्यप की अध्यक्षता में सम्पन्न हुई।
- दूसरी बौद्ध संगीति : यह वैशाली में 383 ई. पू. में कालाशोक के शासनकाल में साबकमीर की अध्यक्षता में हुई। इसमें नियमों में कुछ शिथिलता लाई गई।
- तृतीय बौद्ध संगीति : महान शासक अशोक के शासनकाल में पाटलिपुत्र में मुगलिपुत्ततिस्स की अध्यक्षता में 247 ई. पू. में हुई।
- चतुर्थ बौद्ध संगीति : इस संगीति का आयोजन कनिष्क के समय में कुण्डलवन (कश्मीर) में वसुमित्र एवं अश्वघोष की अध्यक्षता में हुआ। इसमें बौद्ध धर्म के दो सम्प्रदायकृहीनयान तथा महायान बने।
शैव धर्म
सम्प्रदाय संस्थापक सम्प्रदाय संस्थापक
आजीवक मक्खलिपुत्र गोशाल घोर अक्रियावादी पूरण कश्यप
यदृच्छावाद आचार्य अजीत भौतिकवादी पकुध कच्चायन
अनिश्चयवादी वेट्ठलिपुत्र संजय
- शिव की पूजा करने वालों को शैव एवं सम्बन्धित धर्म को शैव धर्म कहा जाता है।
- शिवलिंग उपासना का प्रारम्भिक पुरातात्विक साक्ष्य हड़प्पा संस्कृति के अवशेषों से मिले हैं।
- लिंग पूजा का पहला स्पष्ट उल्लेख मत्स्य पुराण में मिलता है।
- ऋग्वेद में शिव के लिए ‘रुद्र’ नामक देवता का उल्लेख है।
- अथर्ववेद में शिव को ‘भव, शर्व, पशुपति एवं भूपति’ कहा गया है।
- ‘वामन’ पुराण में शैव सम्प्रदाय की संख्या चार बताई गई है :
(1) पाशुपत, (2) कापालिक, (3) कालामुख, (4) लिंगावत।
- पाशुपत सम्प्रदाय शैवों का सर्वाधिक प्राचीन सम्प्रदाय है। इसके संस्थापक ‘लकुलीश’ थे, जिन्हें शिव के 18 अवतारों में से एक माना जाता है।
- पाशुपत सम्प्रदाय के अनुयायियों को ‘पंचार्थिक’ कहा गया है। इस सम्प्रदाय का सैद्धान्तिक ग्रन्थ ‘पाशुपत सूत्र’ है।
- कापालिक सम्प्रदाय के ईष्टदेव ‘भैरव’ थे। इस सम्प्रदाय का प्रमुख केन्द्र ‘श्रीशैल’ नामक स्थान था।
- लिंगायत सम्प्रदाय दक्षिण भारत में प्रचलित था। इसका प्रमुख धार्मिक ग्रन्थ ‘शून्य सम्पादने’ है।
- 10वीं शताब्दी में मत्स्येन्द्र नाथ ने ‘नाथ सम्प्रदाय’ की स्थापना की। इसका व्यापक प्रचार-प्रसार बाबा गोरखनाथ के समय में हुआ।
वैष्णव धर्म
सम्प्रदाय आचार्य मत
वैष्णव रामानुज विशिष्टाद्वैत
ब्रह्म आनन्दतीर्थ द्वैत
रुद्र वल्लभाचार्य शुद्धाद्वैत
सनक निम्बार्क द्वैताद्वैत
- वैष्णव धर्म का विकास ‘भगवत धर्म’ से हुआ। नारायण के पूजक मूलतः पंचरात्र कहे जाते थे।
- वैष्णव धर्म के प्रवर्तक ‘कृष्ण’ थे, जो मथुरा स्थित ‘वृषण’ कबीले के निवासी थे।
- विष्णु के दस अवतारों का उल्लेख ‘मत्स्यपुराण’ में मिलता है- (1) मत्स्य, (2) कूर्म, (3) वराह, (4) नृसिंह, (5) वामन, (6) परशुराम, (7) राम, (8) बलराम, (9) बुद्ध एवं (10) कल्कि।
- गुप्तकाल में विष्णु का ‘वराह’ अवतार सर्वाधिक प्रसिद्ध था।
- भगवान विष्णु के सुदर्शन चक्र में छः तिल्लियाँ हैं।
इस्लाम धर्म
- इस्लाम धर्म के संस्थापक हजरत मुहम्मद साहब थे।
- हजरत मुहम्मद साहब का जन्म ‘मक्का’ में हुआ था। उनके पिता का नाम ‘अब्दुल्ला’ एवं माँ का नाम ‘अमीना’ है।
- 24 सितम्बर, 622 ई. को पैगम्बर के मक्का से मदीना की यात्र को इस्लाम में ‘हिजरी संवत्’ के नाम से जाना जाता है।
- मुहम्मद साहब की शादी ‘खदीजा’ नामक विधवा से हुआ था। उनकी पुत्री का नाम ‘फातिमा’ एवं दामाद का नाम ‘अली’ है।
- देवदूत ‘जिब्रियल’ ने पैगम्बर मुहम्मद साहब को अरबी भाषा में कुरान सम्प्रेषित की। यह इस्लाम धर्म का पवित्र ग्रन्थ है।
- हजरत मुहम्मद साहब की मृत्यु 8 जून, 632 ई. को हुई थी। इसके पश्चात इस्लाम ‘सुन्नी’ एवं ‘शिया’ नामक दो पंथों में विभाजित हो गया।
- सुन्नी ‘सुन्ना’ (पैगम्बर साहब के कथनों तथा कार्यों का विवरण) में विश्वास करते हैं। शिया ‘अली’ की शिक्षाओं में विश्वास करते हैं और उन्हें मुहम्मद साहब का न्यायसंगत उत्तराधिकारी मानते हैं।
- अली की 661 ई. में हत्या कर दी गई। अली के पुत्र हुसैन की हत्या 680 ई. को कर्बला (ईराक) में कर दी गई।
- पैगम्बर मुहम्मद साहब के उत्तराधिकारी ‘खलीफा’ कहलाये।
- इस्लाम में खलीफा उपाधि 1924 तक रहा। तुर्की के शासक मुस्तफा कमालपाशा ने 1924 में इसे समाप्त कर दिया।
- ‘इब्न ईशाक’ ने सर्वप्रथम पैगम्बर साहब की जीवन-चरित्र लिखा।
- मुहम्मद साहब के जन्म दिवस पर ‘ईद-ए-मिलाद-उन-नबी’ पर्व मनाया जाता है।
- भारत में सर्वप्रथम इस्लाम का आगमन अरबों के जरिये 712 ई. में हुआ।
- नमाज के समय मुसलमान मक्का की तरफ मुँह करके खड़े होते हैं। मक्का की ओर की दिशा को ‘किबला’ कहा जाता है।
ईसाई धर्म
- ईसाई धर्म के संस्थापक ईसा मसीह हैं।
- इस धर्म का पवित्र ग्रन्थ ‘बाइबिल’ एवं पवित्र चिह्न ‘क्रॉस’ है।
- ईसा मसीह के माता का नाम ‘मैरी’ तथा पिता का नाम ‘जोसेफ’ था।
- ईसा का जन्म जेरुशेलम के निकट बैथलेहम में हुआ था। उनके जन्म दिवस को ‘क्रिसमस’ के रूप में मनाया जाता है।
- ईसा ने अपने जीवन के प्रथम 30 वर्ज बढ़ई के रूप में बैथलेहम के निकट नाजरेथ में बिताया।
- ईसा मसीह के प्रथम दो शिष्य ‘एंड्रूस’ एवं ‘पीटर’ थे।
- ईसा मसीह को रोमन गवर्नर ‘पोंटियस’ ने 33 ई. में सूली पर चढ़ाया था।
- ईसाई त्रित्व में विश्वास करते हैं. ईश्वर-पिता, ईश्वर-पुत्र (ईसा), ईश्वर-पवित्र आत्मा।
- 12वीं शताब्दी से फ्रांस में आरम्भिक भवनों की तुलना में अधिक ऊँचे व हल्के चर्चों का निर्माण प्रारम्भ हुए। वास्तुकला की यह शैली ‘गोथिक’ नाम से जानी जाती है।
- वास्तुकलात्मक शैली के सर्वोत्कृष्ट उदाहरणों में से एक पेरिस का ‘नाट्रेडम चर्च’ है।
पारसी धर्म
- पारसी धर्म के पैगम्बर ‘जरथुस्ट्र’ (ईरानी) थे।
- पैगम्बर के शिक्षाओं का संकलन ‘जेन्दा अवेस्ता’ नामक ग्रन्थ में है, जो पारसियों का धार्मिक ग्रन्थ है।
- पैगम्बर की मूल शिक्षा का सूत्र- सद्-विचार, सद्-वचन एवं सद्-कार्य है।
- पारसी ‘अहुरा मज्दा’ (असुर मेधा) को ईश्वर मानते हैं। उनका वर्णन वैदिक देवता ‘वरुण’ से काफी मेल खाता है।
- पारसी मन्दिरों को ‘आतिश बेहराम’ कहा जाता है।
- अग्नि को पारसी ईश्वर-पुत्र समान एवं अत्यन्त पवित्र मानते हैं। इसलिए पारसियों को ‘अग्नि-पूजक’ भी कहा जाता है।
- पारसियों के अनुसार ‘अहुरा मज्दा’ का दुश्मन ‘दुष्ट अंगिरा मैन्यु’ (आहरीमान) है।
- एक समय पारसी धर्म ईरान का ‘राजधर्म’ हुआ करता था।
संगम युग
सुदूर दक्षिण के संगम युग की जानकारी का प्रमुख स्रोत संगम साहित्य है। संगम साहित्य में हमें तीन प्रमुख राज्यों- पाण्ड्य, चोल तथा चेरों के विजय में जानकारी मिलती है। 100 ई. की प्रथम शताब्दी से तीसरी शताब्दी ई.पू. के मध्य तक ‘संगम युग’ का समय माना जाता है।
- संगम साहित्य : तमिल भाषा में उपलब्ध प्राचीनतम साहित्य ‘संगम- साहित्य’ है, जो तीन संगमों के उपरान्त तैयार किया गया था। ये संगम पाण्ड्य शासकों के संरक्षण में हुआ था।
- प्रथम संगम : यह संगम पाण्ड्य शासकों के संरक्षण में उनकी प्राचीन राजधानी ‘मदुरा’ में अगस्त्य ऋषि की अध्यक्षता में सम्पन्न हुआ था। इस संगम में कुल 549 सदस्य थे तथा इसे 89 पाण्ड्य शासकों का संरक्षण मिला था। यह संगम 4400 साल चला था।
- द्वितीय संगम : द्वितीय संगम को भी पाण्ड्य शासकों का सहयोग प्राप्त हुआ था। यह कपाटपुरम् अथवा अलवै में शुरू में अगस्त्य ऋषि की अध्यक्षता, लेकिन बाद में तोल्काप्पियर की अध्यक्षता में सम्पन्न हुआ था। इस संगम को 59 पाण्ड्य शासकों ने संरक्षण दिया था तथा इसमें कुल 49 सदस्य उपस्थित थे। 3700 कवियों की रचना का प्रकाशन हुआ था तथा यह 3700 वर्षों तक चला था।
- तृतीय संगम : यह संगम उत्तरी मदुरा में नक्कीयर की अध्यक्षता में सम्पन्न हुआ था। इसे 49 पाण्ड्य शासकों का संरक्षण प्राप्त था तथा इसमें कुल 49 सदस्य थे। यह संगम 1850 वर्षों तक चला था। 449 कवियों की रचनाओं का प्रकाशन हुआ।
- प्रमुख तमिल ग्रंथ : तोल्काप्पियम् (तमिल व्याकरण का प्राचीनतम् ग्रंथ), एन्तुत्तेगै (आठ पद्यावली), पत्तुपात्तु (दस गीत), पदिनेंकिकणक्कु (अठारह लघु उपदेश गीत) आदि उल्लेखनीय हैं।
संगमयुगीन राज्य
संगम साहित्य से सुदूर दक्षिण के तीन प्रमुख राज्योंकृ पाण्ड्य, चोल तथा चेर के विषय में वर्णन है। इसके उद्भव के विषय में स्पष्ट जानकारी नहीं है, फिर भी कुछ अन्य साक्ष्य ऐसे हैं, जिससे इन राज्यों के विषय में जानकारी मिलती है। ये हैं- मेगस्थनीज का उल्लेख, कात्यायन का उल्लेख, अशोक के अभिलेख, खारवेल का गुम्फा अभिलेख तथा महावंश आदि उल्लेखनीय हैं।
चोल राज्य :
संगमयुगीन राज्यों में सर्वप्रथम चोलों का उदय हुआ था। यह राज्य पेन्नार नदियों के मध्य स्थित था। इस राज्य की प्राचीनतम राजधानी उत्तरी मनलूर थी तथा इसके बाद उरैयूर में बनी। बाद में चोल राज्य दो भागों में बँट गया था। यथा :
- उत्तरी चोल जिसकी राजधानी अर्काट थी ।
- दक्षिणी चोल जिसकी राजधानी उरैयूर थी।
प्रमुख शासक
- उरूवप्पहर्रेइलंजेत चेन्नि : चोलों का यह प्रथम ऐतिहासिक शासक था।
- इसकी राजधानी उरैयूर थी।
- यह अपने युद्ध के सुन्दर रथों के लिए प्रसिद्ध था।
- कारिकाल : कारिकाल को ‘मुक्तलसी टाँगों वाला’ के नाम से भी जाना जाता है। यह इलंजेत चेन्नि का पुत्र था।
- इसने दूसरी शती के उत्तरार्द्ध में शासन किया था।
- यह विस्तारवादी नीति का समर्थक था तथा अनेक राजाओं को पराजित किया था। इसने श्रीलंका पर भी विजय प्राप्त की थी।
- पाण्ड्य राज्य : प्राचीन पाण्ड्य राज्य चोल राज्य के दक्षिण में कन्याकुमारी से लेकर कारकै तक विस्तृत था।
- पाण्ड्यों की प्रारम्भिक राजधानी ‘कोरकाई’ थी। बाद में इसका केन्द्र मदुरई बना।
- बलिमबलनबन्नि : यह प्रथम उल्लेखित शासक है।
- मदुकुडुमिपेरू वलुदि : इसका उल्लेख संगम कवियों के आश्रयदाता के रूप में है।
- नेडियोन : इसका शाब्दिक अर्थ होता है ‘लम्बे कद वाला’।
- संगम साहित्य में इसे पहरुलि नदी का जनक तथा सागर पूजा की परम्परा का प्रारम्भकर्ता माना जाता है।
- पालशालैमुडुकुडुमी : इसी शासक का उल्लेख वेल्विकुडिड़ ताम्रपत्रें में प्रथम पाण्ड्य शासक के रूप में किया गया है। इसने अनेक यज्ञशालाओं का निर्माण करवाया था।
- नल्लिवकोडन : पतप्पातु के अनुसार यह संगम युग का अंतिम ज्ञात पाण्ड्य शासक था।
चेर राज्य
- प्राचीन चेर राज्य में मूल रूप से उत्तरी त्रवनकोर, कोचीन तथा दक्षिणी मालावार शामिल थे।
- प्राचीन चेर राज्य की दो राजधानियाँ थींकृ वंजि और तोण्डी।
- इस राज्य के प्रमुख शासक निम्नलिखित थेकृ उदियंजेरल, नेडुजेरल आदन कुट्टुवन, शेनगुट्टवन आदि।
संगमकालीन सामाजिक दशा
- संगमकालीन समाज चार वर्णों में स्पष्ट रूप से विभाजित नहीं था, फिर भी समाज में ब्राह्मणों को सम्मानजनक स्थान प्राप्त था। तत्कालीन समाज में विभिन्न प्रकार की जातियों का वर्णन मिलता है।
- विवाह को एक संस्कार माना जाता था। आठ प्रकार के विवाह प्रचलन में थे।
- उच्च वर्ग के लोग पक्की ईंटों व चूने से निर्मित भवनों में रहते थे।
- संगम काल में दास प्रथा का प्रचलन नहीं था।
- सभी वर्गों में शिक्षा का समुचित प्रसार था। छात्र साहित्य, विज्ञान, गणित, व्याकरण एवं ज्योतिष की शिक्षा ग्रहण करते थे।
- कविता, नाटक, नृत्य, संगीत, वाद्य यंत्र आदि मनोरंजन के साधन थे।
- कन्या जन्म को अशुभ माना जाता था।
- मृतक शव को जलाया जाता था तथा कलश के साथ अथवा बिना कलश के दफनाया जाता था।
राजनीतिक दशा
- संगम काल में राजा सर्वेसर्वा होता था अर्थात् वह निरंकुश होता था। राजा का पद वंशानुगत तथा ज्येष्ठता पर आधारित होता था।
- राजा का राज्याभिषेक का रिवाज नहीं था, लेकिन राजा के सिंहासन पर आसीन होने के समय उत्सव का आयोजन अवश्य होता था। उसे विभिन्न प्रकार की उपाधियों से विभूषित किया जाता था।
- राजकीय सहयोग हेतु पंचवारम् अथवा पंच महासभा होती थी, जिसमें जनप्रतिनिधि, मंत्री तथा विद्वान शामिल होते थे।
प्रशासनिक व्यवस्था
- इस काल में प्रशासनिक सहयोग हेतु दो प्रकार की सभायें थीं : नगर सभा तथा ग्राम सभा। सभाओं का मुख्य काम झगड़ों का निपटारा करना तथा राजा को परामर्श देना भी था।
- राजस्व : संगम काल में कृषि, आन्तरिक व्यापार तथा विदेशी व्यापार राजस्व के मुख्य स्रोत थे। उपज का 1/6 भाग लिया जाता था। व्यापारिक आय सीमा शुल्क तथा चुंगी के रूप में वसूल किया जाता था।
- न्याय व्यवस्था : राजा का न्यायालय सर्वोच्च न्यायालय होता था, जिसे ‘मनोरम’ कहा जाता था। दण्ड-विधान अत्यन्त कठोर था। हाथ तथा जीभ काटने तथा मृत्यु दण्ड की भी व्यवस्था थी।
- सैन्य प्रशासन : संगम काल में सेना को ‘पदै’ कहा जाता था, जिसका अर्थ ‘विनाशक’ होता है।
- सेना के चार वर्ग थे यथा- पैदल, हस्ति, अश्व तथा रथ सेना। इसके अलावा नौसेना भी थी।
- सेनापति को एनाडि़ कहा जाता था।
आर्थिक दशा
- संगम काल में कृषि देश की आर्थिक समृद्धि का मुख्य आधार थी। चावल, रागी, गन्ना तथा कपास आदि की खेती की जाती थी।
- कपड़ा बुनना मुख्य उद्योग था। व्यापार तथा वाणिज्य उन्नत दशा में था।
धार्मिक दशा
- संगम काल में वैदिक अथवा ब्राह्मण धर्म का अत्यधिक प्रसार एवं प्रचार था। ब्राह्मणों को आदर की दृष्टि से देखा जाता था।
- विष्णु, शिव, कृष्ण, बलराम आदि की पूजा की जाती थी। इसके अतिरिक्त गुरु पूजा, सती पूजा तथा वीर पूजा का भी प्रचलन था।
- मन्दिर अपने अस्तित्व में थे, जिन्हें नागर, कोट्टम, पुराई एवं कोली कहा जाता था।
- लोगों का आत्मा की अनित्यता में अटूट विश्वास था।
प्राचीन भारत में सामाजिक परिवर्तन
समाज व्यक्तियों का समुदाय है। बौद्धिक और शारीरिक रूप से सक्षम लोगों ने अपनी सुविधानुसार सामाजिक नियमों को बनाया, जिसमें निरन्तर परिवर्तन होता रहा। मनुष्य का जीवन चार आश्रमों के आधार पर व्यतीत किया जाता था- ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ एवं संन्यास। सभी का अपना अलग-अलग महत्व था।
- वर्ण : ‘वर्ण’ शब्द का सर्वप्रथम उल्लेख ऋग्वेद में हुआ है, जिसका तात्पर्य ‘रंग’ के अर्थ में हुआ है। वर्णों की संख्या चार थी : (1) ब्राह्मण, (2) क्षत्रिय, (3) वैश्य (4) शूद्र
- ऋण : ऋण की संख्या तीन थी। यथा- (1) पितृ ऋण, (2) ऋषि ऋण, (3) देव ऋण।
- महायज्ञ : प्राचीनकालीन समाज में यज्ञों को एक पवित्र अनुष्ठान माना जाता था। तत्कालीन समाज में गृहस्थ को इन महायज्ञों को सम्पादित करना अनिवार्य होता था। इन यज्ञों की संख्या पाँच थी-
- ब्रह्म यज्ञ : इस यज्ञ में वेदों के अध्ययन, अध्यापन से ज्ञान की वृद्धि होती थी। इस यज्ञ का उद्देश्य गृहस्थ आश्रम में रहते हुए स्वयं तथा परिवार के प्रत्येक व्यक्ति के ज्ञान का विकास करना होता था।
- पितृ यज्ञ : इस यज्ञ का उद्देश्य परिवार के वृद्ध लोग, जो वानप्रस्थ आश्रम में रहते थे, के प्रति सम्मान प्रकट करना होता था।
- देव यज्ञ : इस यज्ञ के द्वारा सामाजिक मर्यादाओं का पालन करना होता था।
- भूत यज्ञ : इस यज्ञ के अन्तर्गत घर में पके हुए भोज्य पदार्थ का कुछ भाग अदृश्य तथा कुछ भाग दृश्य आत्माओं के लिए निकालना होता था तथा पके हुए भोजन को पहले अग्नि को खिलाया जाता था।
- नृपज्ञ : अतिथि के प्रति सम्मान प्रकट करना इस यज्ञ का मुख्य उद्देश्य होता था।
- आश्रम : मनुष्य के जीवन को सुसंस्कृत तथा नियमित करने के लिए ही प्राचीन काल में आश्रमों की व्यवस्था की गई थी। मनुष्य के जीवन की आयु 100 वर्ष मानकर प्रत्येक आश्रम का काल 25 वर्ष निर्धारित किया गया था। आश्रमों की संख्या चार थी :
(1) ब्रह्मचर्य आश्रम (2) गृहस्थ आश्रम
(3) वानप्रस्थ आश्रम (4) संन्यास आश्रम
- पुरुषार्थ : पुरुषार्थ शब्द पुरुष एवं अर्थ शब्दों से मिलकर बना है, जिसका अर्थ जीवात्मा का उद्देश्य है। इस उद्देश्य की प्राप्ति हेतु प्रत्येक मनुश्य को पुरुषार्थ का पालन करना होता था। ये पुरुषार्थ निम्नलिखित हैं :
- धर्म : धर्म का शाब्दिक अर्थ होता है, किसी वस्तु को धारण करना। अतः प्रत्येक वस्तु, मनुष्य और समाज जिन नियमों पर आधारित रहते हैं, उसे धर्म कहते हैं।
- अर्थ : यह भौतिक सुखों की सभी आवश्यकताओं और साधनों का द्योतक है। इसका सम्बन्ध कर्ता तथा दण्डनीति दोनों से है। अतः अर्थ का व्यक्ति, ऐश्वर्य और सम्पत्ति की इच्छा के लिए प्रयुक्त होता है।
- काम : इन्द्रियों के बाह्य विषयों के सम्पर्क से जनित सुख को काम कहा जाता है।
- मोक्ष : आत्मा के सर्वोच्च विकास द्वारा अपने सच्चे स्वरूप की प्राप्ति को मोक्ष कहा जाता है।
- संस्कार : प्राचीन काल में यह माना गया है कि मनुष्य जन्मना असंस्कृत होता है। संस्कारों के बाद वह शुद्ध, परिष्कृत तथा संस्कृत हो जाता है।
- संस्कारों का प्रारम्भ वैदिक से ही प्रारम्भ हो गया था।
- प्राचीन काल में प्रत्येक व्यक्ति इन संस्कारों को करना अपना सामाजिक कर्तव्य समझता था।
- ऋग्वेद में संस्कारों का विस्तृत उल्लेख नहीं किया गया है, किन्तु संस्कारों की संख्या 40 तक मिलती है।
- गौतम सूत्र में 40 संस्कारों का वर्णन मिलता है। वैखानश ने 18 तथा मनु ने 13 संस्कारों का उल्लेख किया है।
- सामान्य तौर पर निम्नलिखित 16 संस्कार माने गये हैं :
1. गर्भाधान संस्कार 2. पुंसवन संस्कार
3. सीमान्तोन्नयन संस्कार 4. जाति कर्म संस्कार
5. नामकरण संस्कार 6. निष्क्रमण संस्कार
7. अन्नप्राशन संस्कार 8. चूड़ाकर्म या चौलकर्म
9. कर्णवेध/छेदन संस्कार 10. विद्यारम्भ संस्कार
11. उपनयन संस्कार 12. वेदारम्भ संस्कार
13. केशांत (गोदान) संस्कार 14. समावर्तन संस्कार
15. विवाह संस्कार 16. अंत्येष्टि संस्कार
विवाह
- विवाह वह धार्मिक संस्कार है, जिसको तोड़ना सामाजिक मूल्यों के विरुद्ध होता है। यह एक धार्मिक बन्धन है।
- प्रक्रिया : जब विवाह का प्रस्ताव वर एवं वधू पक्ष द्वारा स्वीकार किया जाता था, तो उसे वग्दान कहा जाता था।
- जब वर, वधू के घर बारात लेकर जाता था, तब वहाँ उसका विधिवत सम्मान किया जाता था, उसे मधुर्पक कहा जाता था।
- वर-वधू जब एक-दूसरे के समक्ष लाये जाते थे, उसे परस्पर समीक्षण कहते थे। इसके बाद कन्यादान होता था।
- विवाह में अग्नि के समक्ष सात फेरे लगाने के साथ ही 30 संस्कार सम्पन्न होते थे।
- प्राचीनकालीन सामाज में आठ प्रकार के विवाह प्रचलित थे :
- ब्रह्म विवाह : यह सर्वश्रेष्ठ विवाह था। इसमें पिता उत्तम वर को अपने यहाँ आमन्त्रित करके कन्या का दान करता था।
- दैव विवाह : इस विवाह में यज्ञ सम्पन्न करने वाले पुरोहित को कन्या दान में दी जाती थी।
- आर्ष विवाह : जब कन्या का पिता वर से एक जोड़ी बैल या गाय लेकर कन्यादान करता था, तब वह विवाह आर्ष विवाह कहलाता था।
- प्रजापत्य विवाह : इसमें वर की विधिपूर्वक पूजा करके कन्यादान किया जाता था।
- असुर विवाह : वर, कन्या के माता-पिता को यथाशक्ति धन देकर कन्या से विवाह करता था।
- गन्धर्व विवाह : यह प्रेम विवाह था। जब कन्या तथा वर प्रेम अथवा कामुकता के वशीभूत होकर विवाह करते थे।
- राक्षस विवाह : जब किसी कन्या का जबरदस्ती अपहरण करके उससे विवाह किया जाता था, तो वह राक्षस विवाह कहलाता था।
- पैशाच विवाह : यह सबसे निम्न कोटि का विवाह था। जब किसी सोई हुई, मदहोश, नशे में या पागल कन्या से व्यक्ति संसर्ग करता था, तब वह पैशाच विवाह माना जाता था।
- विवाह के दो वर्ग होते हैं :
- अनुलोम : इस विवाह में ऊँचे वर्ण का पुरुष होता था तथा सबसे नीचे वर्ण की नारी होती थी।
- प्रतिलोम विवाह : इस विवाह में ऊँचे वर्ण की कन्या होती थी तथा नीचे वर्ण का पुरुष होता था।
- सूत्र साहित्य : सूत्र संक्षेप में निश्चित भाषा में व्यक्त शिक्षा अथवा उपदेश की पुस्तिका है।
- इस साहित्य में यक्ष का निरुक्त, पाणिनी की अष्टाध्यायी, स्रोत सूत्र, ग्रह सूत्र तथा धर्म सूत्र शामिल है।
- इस साहित्य का निर्माण काल सातवीं शताब्दी ई- पू- से द्वितीय शताब्दी ई. पू. माना गया है।
वेदांग : वेदांग छः हैं, यथा-
(1) कल्प (2) शिक्षा (3) व्याकरण (4) निरुक्त
(5) छन्द (6) ज्योतिष।
सिकन्दर का भारत पर आक्रमण
सिकन्दर ईसा पूर्व 336 में मकदूनिया (यूनान) का शासक बना। तब वह 20 वर्ष का था। दो वर्ष में उसने पूरा यूनान जीत लिया। अगले कुछ ही वर्षों में फारस का साम्राज्य, एशिया माइनर, सीरिया और मिस्र पर विजय प्राप्त की। ई. पू. 326 में उसने हिन्दूकुश पर्वत पर आक्रमण किया और अफगानिस्तान का बड़ा हिस्सा जीत लिया। काबुल में एक भारतीय राजा अभि से भारत पर आक्रमण का आमंत्रण मिला था।
आक्रमणकालीन राजनैतिक स्थिति
- उस समय उत्तरी-पश्चिम एशिया में कई छोटे-छोटे राज्य एवं गणतंत्र हो गये थे। वे एक-दूसरे के विरुद्ध संघर्षरत थे। अतः इन राज्यों में आपसी एकता और सामंजस्य नहीं था। इस परिस्थिति का लाभ उठाकर सिकन्दर को एक के बाद एक राज्य को विजित करने में किसी प्रकार की कठिनाई नहीं हुई।
- सिन्धु नदी को पार कर सिकन्दर तक्षशिला की ओर बढ़ा। राजा अभि ने सिकन्दर का स्वागत किया, किन्तु पोरस उर्फ पुरु ने झुकने से इंकार कर दिया। पोरस की युद्ध में पराजय हुई तथा उसे बंदी बनाया गया, लेकिन उसके स्वाभिमानपूर्ण आचरण से प्रभावित होकर सिकन्दर ने उसका राज्य वापस कर दिया तथा उसे अपना मित्र बना लिया।
- सिकन्दर ने इस अवसर पर दो नये शहर ‘निकाया’ व ‘बुसे पैला’ बसाये।
- व्यास नदी के किनारे उसे रुकना पड़ा, क्योंकि उसके सैनिक अपने घरों की याद में बीमार महसूस करने लगे थे। अतः वापसी सफर शुरू हुआ।
- सिकन्दर ने पंजाब में सेल्युकस को अपना वायसराय नियुक्त किया।
- दक्षिण सिन्ध पहुँचने के बाद उसकी सेना फिर तीन भागों में बंट हो गई। एक भूमार्ग से बढ़ी, दूसरी फारस की खाड़ी में जल मार्ग से, तीसरी एशिया की ओर मकरान के रास्ते बढ़ी।
- सिकन्दर ई. पू. 323 में बेबीलोन पहुँचा। 33 वर्ष की आयु में ही मलेरिया से उसकी मौत हो गई।
सिकन्दर के आक्रमण के परिणाम
सिकन्दर महान के आक्रमण को यूनानी इतिहासकारों ने बड़ी बारीकी से लिपिबद्ध किया है, लेकिन उसकी नजरों में जो दिग्विजय थी, वह नरसंहार एवं लूटमार के अलावा और कुछ नहीं था, किन्तु इस आक्रमण के भारत में दूरगामी परिणाम हुए :
- उत्तरी तथा पश्चिमी भारत में छोटे-छोटे राज्यों की शक्ति क्षीण हो जाने से भारत की एकता का मार्ग प्रशस्त हुआ।
- सिकन्दर के मरते ही चन्द्रगुप्त ने महान मौर्य साम्राज्य खड़ा कर दिया। यही वास्तव में पहला शक्तिशाली व्यापक और केन्द्रीयकृत राज्य था।
- आक्रमण से भारत तथा पश्चिमी देशों के बीच आदान-प्रदान तथा आवागमन के कई रास्ते खुले।
- सिकन्दर के समसामयिक शासकों का दृष्टि क्षेत्र विकसित और विस्तृत हुआ। संचार, व्यापार एवं समुद्री यात्र के नये रास्ते प्रचलित हुए।
- भारत के इतिहास पर आक्रमण ने खास प्रभाव नहीं छोड़ा। उसे महान सैनिक सफलता भी नहीं कहा जा सकता, क्योंकि सिकन्दर का पाला छोटी-छोटी रियासतों से पड़ा था।
- यूनानी इतिहासकारों ने उसकी वापसी का कारण सैनिकों की अनिच्छा बताया है, लेकिन एक प्राचीन यूनानी इतिहासकार ने यह भी लिखा है कि वह नंद साम्राज्य की शक्ति से डर गया था।
- इसका सीधा परिणाम अधिक नहीं रहा। उसकी मृत्यु के एक साल बाद ही विजित राज्य फिर स्वतंत्र हो गये।
- चन्द्रगुप्त ने बचे-खुचे आक्रमण के अवशेषों को खदेड़कर सीमा पार कर दिया।
- सांस्कृतिक परिणाम भी कोई नहीं हुए, किन्तु यह भारतीय इतिहास की एक निश्चित तिथि को रेखांकित करने के स्रोत उपलब्ध कराता है।
छठी शताब्दी ई. पू. का भारत तथा मगध का उत्थान
छठी शताब्दी ई. पू. का काल भारतीय इतिहास में महत्वपूर्ण काल माना जाता है। इस काल में व्यापार की प्रगति, मुद्रा का प्रचलन और नगरों के उत्थान ने धार्मिक, बौद्धिक आन्दोलन के रूप में जहाँ एक ओर सामाजिक एवं धार्मिक क्षेत्र में परिवर्तन किये, वहीं उन्हीं परिस्थितियों ने राजनीतिक व्यवस्था में भी युगान्तकारी परिवर्तन किये, जिसके फलस्वरूप भारत के उत्थान के साथ ही साथ मगध का भी उत्थान हुआ।
राजनीतिक स्थिति
इस काल में शासन व्यवस्था का स्वरूप दो प्रकार का था :
- राजतन्त्रत्मक शासन व्यवस्था : इस व्यवस्था में राजा का पद वंशानुगत हो गया था, फिर भी राजा निरंकुश नहीं होते थे। किन्तु सर्वोच्च होता था।
- गणतन्त्रत्मक शासन व्यवस्था : इस व्यवस्था में जनता द्वारा चुने गये प्रतिनिधि शासन करते थे, जिसे राजा कहा जाता था। गणतन्त्रत्मक राज्यों को ‘गण’ कहा जाता था। गणराज्यों का प्रधान गणमुख्य कहलाता था।
- उपराजा, सेनापति, व्यावहारिक, सूत्रधार एवं भण्डागारिक गण के अन्य प्रमुख अधिकारी होते थे।
- कर : इस काल में साधारणतः उपज का 1/10 भाग वार्षिक कर के रूप में लिया जाता था।
- ग्राम शासन : ग्राम शासन व्यवस्था अत्यन्त ही सुसंगठित थी। ग्राम शासन का संचालन ‘ग्राम भोजक’ द्वारा किया जाता था।
- न्याय व्यवस्था : इस काल में न्यायालय पूर्णरूपेण स्वतन्त्र तथा न्याय निष्पक्ष होता था। राजा सर्वोच्च न्यायाधीश होता था।
- महाजनपद : छठी शताब्दी ई.पू. में उत्तरी भारत विभिन्न जनपदों में विभक्त था। बौद्ध ग्रन्थों में सोलह महाजनपदों का उल्लेख है, जिसे षोड्श महाजनपद कहा जाता था। ये जनपद इस प्रकार थे :
क्र. जनपद स्थिति राजधानी
1. काशी वरुणा तथा आसी नदी के संगम पर वाराणसी
2. कौशल उत्तर प्रदेश के मध्य में उत्तर की ओर श्रावस्ती
3. अंग मगध राज्य के पूर्व में चम्पानगरी
4. मगध आधुनिक बिहार राज्य के गया तथा पटना जिले के मध्य में राजगृह
5. मल्ल वज्जि संघ राज्य के उत्तर में स्थित था दो भागों में विभाजित था 1. कुशीनगर 2. पावापुरी
6. वज्जि आधुनिक बिहार राज्य के उत्तरी भाग में स्थित, आठ राज्यों का एक संघ वैशाली
7. चेद्दि केन नदी के तट पर आधुनिक बुन्देलखण्ड में स्थित था शुक्तिमती
8. वत्स आधुनिक इलाहाबाद के पास कौशाम्बी
9. कुरु दिल्ली और मेरठ के समीप स्थित था इन्द्रप्रस्थ
10. पांचाल गंगा-यमुना के दोआब में आधुनिक रुहेलखण्ड में स्थित था और दो भागों में विभक्त था- (1) उत्तरी पांचाल आहिक्षत्र (2) दक्षिणी पांचाल काम्पिल्य
11. अस्मक गोदावरी नदी के तट पर स्थित था पाटन
12. मत्स्य यह वर्तमान जयपुर, अलवर व भरतपुर के कुछ भागों में स्थित था विराटनगर
13. शूरसेन मत्स्य राज्य के दक्षिण में स्थित था मथुरा
14. गान्धार यह वर्तमान कश्मीर के आसपास स्थि्ात तक्षशिला
15. कम्बोज यह कश्मीर, अफगानिस्तान एवं पामीर के भू-भाग तक था राजपुर
16. अवन्ति मालवा प्रदेश में स्थित था उज्जयिनी
मगध का उत्थान
छठी शताब्दी ई.पू. में मगध एक अत्यन्त ही छोटा राज्य था। यहाँ के तत्कालीन राजा अत्यन्त ही महत्वाकांक्षी थे। उन्होंने साम्राज्यवादी नीति का अवलम्बन किया तथा अपने पड़ोसी राज्यों पर आक्रमण कर अपने साम्राज्य में मिला लिया। तात्कालिक शासकों ने अपने सतत् प्रयासों से इसे उन्नत तथा समृद्ध राज्य बना दिया, जिसके फलस्वरूप मगध राजनीति का मुख्य केन्द्र हो गया। इस राज्य के उत्थान में निम्नलिखित वंशों का प्रमुख योगदान रहा है :
1. बृहदर्थ वंश 2. हर्यक वंश (544 ई.पू. से 412 ई.पू.)
3. शिशुनाग वंश (412-344 ई.पू.) 4. नंद वंश (344-324-23 ई.पू.)
5. मौर्य वंश (322-185 ई.पू.)
- निपुज्जय : यह वार्दद्रथ वंश का अन्तिम शासक था।
- उसके मन्त्री पुलिक ने उसकी हत्या करवाकर अपने पुत्र को मगध सिंहासन पर बैठाया था।
- बिम्बिसार : उपलब्ध साक्ष्यों के अनुसार, मगध पर शासन करने वाला प्रथम शासक बिम्बिसार था, जिसे हर्यक वंश का संस्थापक माना जाता है।
- इसने पड़ोसी राज्यों के साथ वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित कर मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध बनाये रखे।
- यह सम्भवतः नियमित और स्थायी सेना रखने वाला भारतीय इतिहास का पहला शासक था।
- उपलब्ध साक्ष्यों के अनुसार इसका शासनकाल 545-493 ई.पू. तक था।
- अजातशत्रु : इसके बचपन का नाम कुणिक था।
- अपने पिता बिम्बिसार का वध कर यह 493 ई.पू. में मगध की गद्दी पर बैठा था।
- इसने मगध की सीमाओं, गौरव तथा शक्ति में अपार वृद्धि की।
- उदयभद्र : अजातशत्रु के पश्चात् उसका पुत्र उदयभद्र (उदायिन) मगध के सिंहासन पर बैठा।
- यह अपने पिता की भाँति वीर तथा विस्तारवादी नीति का पालक था।
- बौद्ध ग्रन्थ दीपवंश तथा महावंश के अनुसार अनुरुद्ध, मुण्ड एवं नागदासक तीनों क्रमशः अपने पिता की हत्या कर मगध का सिंहासन हस्तगत किया था।
- नागदासक हर्यक वंश का अन्तिम शासक था।
- शिशुनाग : शिशुनाग वंश का संस्थापक शिशुनाग था। वह मगध के सिंहासन पर लगभग 412 ई.पू. में सहयोगियों के समर्थन से बैठा था।
- सिंहली महाकाव्य के अनुसार उसने 18 वर्षों तक शासन किया था।
- कालाशोक : शिशुनाग के बाद उसका पुत्र कालाशोक लगभग 394 ई.पू. में मगध के सिंहासन पर बैठा।
- कालाशोक को ‘काकवर्ण’ के नाम से भी जाना जाता है।
- इसने मगध की राजधानी राजगृह के स्थान पर पाटलिपुत्र को बनाया।
- द्वितीय बौद्ध संगीति का आयोजन इसी के शासनकाल में हुआ था।
मौर्य साम्राज्य
मौर्य साम्राज्य (322-184 ई.पू.) की स्थापना का जो कार्य छठी शताब्दी ई. पू. में मगध में शुरू हुआ था, उसकी चरमोक्ति मौर्य साम्राज्य की स्थापना के साथ होती है। 25 वर्ष की अवस्था में चन्द्रगुप्त मौर्य तथा विणुगुप्त ने अपनी योग्यता तथा कूटनीति से अन्तिम नन्द शासक घनानंद के विशाल साम्राज्य को ध्वस्त करके मौर्य वंश की आधारशिला रखी, जो अगले 137 वर्षों तक अक्षुण्ण रही।
मौर्य साम्राज्य के विषय में जानकारी के प्रमुख स्रोत निम्नलिखित हैं :
कौटिल्य का अर्थशास्त्र, मेगस्थनीज की इंडिका, विशाखदत्त का मुद्राराक्षस,
जैन तथा बौद्ध साहित्य, बाहग्ण साहित्य, यूनानी लेखकों का वृत्तान्त आदि।
- मौर्यों की उत्पत्ति : मौर्यों की उत्पत्ति के विजय में कोई भी एकमत नहीं है। निष्कर्ष के रूप में कह सकते हैं कि मौर्य मोरिया जनजाति के तथा निश्चित तौर पर निम्न जाति के थे, हालांकि उनकी जाति स्पष्ट नहीं है।
- चन्द्रगुप्त मौर्य (321-297 ई.पू.) : चन्द्रगुप्त मौर्य 25 वर्ष की आयु में अपने गुरु विष्णुगुप्त की सहायता से नंद शासक घनानंद को गद्दी से हटाकर मगध के सिंहासन पर बैठा।
- 305 ई.पू. में सीरिया के यूनानी शासक सेल्यूकस को पराजित किया तथा उसने सेल्यूकस की पुत्री हेलेन से विवाह किया।
- सेल्यूकस ने उपहार स्वरूप 500 हाथी प्रदान किये तथा चन्द्रगुप्त के दरबार में मेगस्थनीज को राजदूत के रूप में भेजा।
- सेल्यूकस ने शासन के अन्तिम दिनों में राजकाज छोड़कर जैन धर्म स्वीकार कर मैसूर चला गया। वह एक कुशल योद्धा व राजनीतिज्ञ था।
- बिन्दुसार (297-272 ई.पू.) : यह चन्द्रगुप्त मौर्य का उत्तराधिकारी पुत्र था। उसे ‘अमित्रघात’ भी कहा जाता है।
- उसने सम्भवतः 297-272 ई.पू. तक राज्य किया। अपने पिता के साम्राज्य को उसने बनाये रखा। नयी विजयें प्राप्त कीं या नहीं, अनिश्चित है।
- विदेशों से सम्बन्ध में उसने पश्चिमी यूनानी शासकों से पिता द्वारा स्थापित मैत्री बनाये रखी।
- अशोक (273-232 ई.पू.) : 20वीं सदी के प्रारम्भ तक अशोक पुराणों में वर्णित मौर्य राजाओं में एक था।
- उपलब्ध प्रमाणों से ज्ञात होता है कि बिन्दुसार की मृत्यु के बाद या कुछ पहले राजकुमारों के मध्य संघर्ष हुआ। इसमें अशोक भी शामिल था। इस संघर्ष में उसने अपने 99 भाइयों की हत्या कर राजगद्दी प्राप्त की।
- अपने शासनकाल के चार वर्षों बाद 269 ई.पू. में राज्याभिषेक कराया।
- उसने 261 ई.पू. में कलिंग पर विजय प्राप्त की, परन्तु भयानक रक्तपात व नरसंहार देखकर वह द्रवित हो उठा और उसने बौद्ध धर्म स्वीकार कर लिया।
- उसने युद्ध त्यागकर एक भिक्षुक के समान अपनी प्रजा की नैतिक तथा आध्यात्मिक भलाई के लिए अनेक कार्य किये, समस्त मानवता के प्रति प्रेम सिखाने वाला वह पहला व्यक्ति था।
- बौद्ध धर्म का प्रचार करने के लिए उसने भिक्षुओं को विदेश भेजा।
- अशोक स्वयं विचारों की महानता, चरित्र की उज्जवला और मानव प्रेम के लिए प्रसिद्ध था।
- उसका साम्राज्य उसकी मृत्यु के कुछ समय बाद नष्ट हो गया।
- इतिहास में अशोक को ‘अशोक महान’ के नाम से जाना जाता है।
- अशोक के प्रमुख शिलालेख, लघु शिलालेख, स्तम्भ लेख, लघु स्तम्भ लेखों का विवरण निम्नलिखित है-
शिलालेख
लेख स्थल लिपि
शाहबाजीगढ़ी पेशावर (पाकिस्तान) खरोष्ठी
मनसेहरा हजारा (पाकिस्तान) खरोष्ठी
गिरनार गुजरात ब्राह्मी
सोपारा थाणे (महाराष्ट्र) ब्राह्मी
कालसी देहरादून (उत्तराखण्ड) ब्राह्मी
जौनगढ़ गंजाम (ओडिशा) ब्राह्मी
धौली पुरी (ओडिशा) ब्राह्मी
एर्रगुडि़ कर्नूल (आंध्र प्रदेश) ब्राह्मी
लघु शिलालेख
क्र. लेख स्थल क्र. लेख स्थल
1. रूपनाथ जबलपुर (मध्य प्रदेश) 2. गुर्जरा दतिया (मध्य प्रदेश)
3. सहसराम बिहार 4. भाब्रू वैराट जयपुर (राजस्थान)
5. मास्की रायचूर (कर्नाटक) 6. ब्रह्मगिरी चित्रलदुर्ग (कर्नाटक)
7. सिद्दपुर ब्रह्मगिरी के पास 8. एर्रगुडि़ कर्नूल (कर्नाटक)
9. गोविमठ कोपबल (मैसूर) 10. पालकिगुण्डु मैसूर
11. राजुल मंडगिरी कर्नूल (आन्ध्र प्रदेश) 12. अहरौरा मिर्जापुर (उत्तर प्रदेश)
13. जतिगरामेश्वर ब्रह्मगिरी के पास
स्तम्भ लेख
क्र. स्थल लेख क्र. स्थल लेख
1. दिल्ली-टोपरा 7 लेख 2. प्रयाग स्तम्भ 7 लेख
3. दिल्ली-मेरठ 6 लेख 4. लौरिया अरराज 6 लेख उत्कीर्ण
5. लौरिया नन्द गढ़ 6 लेख उत्कीर्ण 6. रामपुरवा स्तम्भ 6 लेख उत्कीर्ण
- लघु स्तम्भ लेख : इस लेख में बौद्ध संघ में फूट डालने वालों या अन्य किसी प्रकार से उसे क्षति पहुँचाने वाले भिक्षुओं तथा भिक्षुणियों के लिए दण्ड का विधान है।
- अन्य उत्कीर्ण लेख : (1) रूम्मिनदेई स्तम्भ, (2) निगली सागर स्तम्भ।
- गुहालेख : (1) तक्षशिला अभिलेख, (2) कन्धार अभिलेख, (3) लमगान अभिलेख
- अशोक के कुछ अभिलेख गुफाओं की दीवारों पर भी उत्कीर्ण हैं। ये बराबर और नागार्जुनी की पहाडि़यों पर हैं।
- बराबर पहाड़ी दक्षिणी बिहार में स्थित है।
- परवर्ती मौर्य शासक : अशोक के उत्तराधिकारियों के विजय में प्रामाणिक जानकारी का अभाव है। लेखों में उसके केवल एक पुत्र तीवर का उल्लेख मिलता है।
- वृहद्रथ मौर्य साम्राज्य का अन्तिम शासक था।
- मौर्यकालीन सामाजिक दशा : मौर्यकालीन समाज परम्परागत चार वर्णों यथा- ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्र में ही बँटा था। चारों वर्ण आर्य जनता के अंग माने जाते थे।
- शूद्रों की स्थिति में सुधार हुआ था।
- इसके अलावा ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य के साथ शूद्र भी मौर्य सेना में सम्मिलित होते थे।
- स्त्रियों की स्थिति : इस काल में नारियों की स्थिति स्मृतिकाल की अपेक्षा अधिक सन्तोषजनक तो थी, पर बहुत उन्नत भी नहीं थी।
- पुनर्विवाह, नियोग प्रथा आदि प्रचलित होने के प्रमाण हैं।
- मनोरंजन : इस काल में नाटक, गोष्ठियाँ आदि मनोरंजन के साधन थे, पर गाँवों में इन मनोरंजन के साधनों के प्रवेश पर निषेध था।
- कलाकार स्त्री-पुरुष दोनों थे : (1) रंगोपजीवि तथा (2) रंजोपजीविनी।
- कृषि : मेगस्थनीज के अनुसार भारत में अकाल नहीं पड़ते थे। इसलिए कि मौर्य युग में सिंचाई की पर्याप्त व्यवस्था थी।
- धान, कोदों, दाल, उड़द, मूँग आदि फसलों का उल्लेख मिलता है।
- राजकीय भूमि के अलावा ऐसी भूमि भी होती थी, जिस पर करद (भाग देने वाले) कृषक खेती करते थे।
- व्यवसाय तथा उद्योग : मौर्य काल का प्रधान उद्योग वस्त्र उद्योग था।
- ऊन, कपास, सन तथा क्षेम आदि के प्रमुख वस्त्र बनाये जाते थे।
- धातु उद्योग इस काल में विकसित उद्योग था।
- दर्जी, धोबी आदि व्यवसाय करते थे।
- बाँट तथा माप : इस काल में वस्तुओं तथा भूमि माप में सबसे छोटा परिमाण होता था।
- मापों का मानकीकरण का निरीक्षण मानाध्यक्ष करता था, जो पौतवाध्यक्ष के अधीन होता था।
- सबसे छोटा माप सुवर्ण माषक था।
- मुद्रा : मुद्रा विभाग लक्षणाध्यक्ष के अधीन था।
- मौर्यों का प्रधान सिक्का पण था, जिसे ‘रूप्य रूप’ भी कहा जाता था।
- माजक (ताँबे), काकणी व अर्धमाजक छोटे मूल्य के ताम्र सिक्के होते थे।
- स्वर्ण के भी सिक्के प्रचलित थे।
- राजस्व व्यवस्था : मौर्य साम्राज्य में राजस्व व्यवस्था अत्यंत सुव्यवस्थित थी।
- आय के प्रमुख साधन दुर्ग, राष्ट्र, खान, सेतु, वन, ब्रज तथा वाणिज्य थे।
- भू-राजस्व 1/6वाँ भाग होता था। इसे ‘बलि’ कहा जाता था।
- प्रशासनिक व्यवस्था : मौर्य काल में सम्राट की स्थिति प्रधान थी। राजा की सहायता के लिए एक मन्त्री परिषद् होती थी।
- राजा के तीन प्रशासनिक कर्तव्य थे- शासन सम्बन्धी, सैनिक तथा न्याय सम्बन्धी।
- मन्त्रिपरिषद् के अलावा केन्द्रीय प्रशासनिक व्यवस्था में विभिन्न विभागों के प्रधान होते थे, जिसे महामात्य या तीर्थ कहा जाता था। इनकी संख्या 18 थी।
- नगर प्रशासन, गुप्तचरी व्यवस्था तथा न्याय एवं दण्ड की समुचित व्यवस्था थी।
- सेना : मौर्यों की सेना विशाल थी। मौर्य सेना में पैदल, हस्ती, घुड़सवार, रथ सेना आदि की सुदृढ़ व्यवस्था थी।
- कला : अशोक से पहले के भवन लकड़ी अथवा अन्य चीजों से बने हुए थे।
- भवनों में पत्थरों का प्रयोग अशोक के काल में प्रारम्भ हुआ।
- इतिहास में मौर्यकालीन कला की एक अलग पहचान है। इस काल के कलात्मक अवशेष निम्नलिखित रूपों में देखने को मिलते हैं- स्तम्भ एवं मूर्ति, स्तूप, गुफा महल तथा टेराकोटा वस्तुएँ आदि।
- मौर्यों के पतन के कारण : मौर्य साम्राज्य के पतन के अनेक कारण हैं। एक ओर परम्परावादी व्याख्या अशोक की नीतियों तथा उसके उत्तराधिकारी शासकों को जिम्मेदार ठहराती है, तो दूसरी ओर आधुनिक व्याख्या राजनैतिक तथा सामाजिक आर्थिक संख्याओं में अपर्याप्तता को जिम्मेदार मानती है।
मौर्योत्तर काल
अशोक की मृत्यु के बाद मौर्य साम्राज्य का पतन होने लगा। ई.पू. 185 में अन्तिम मौर्य शासक वृहद्रथ की हत्या उसके महासेनापति ने कर दी। परिणामस्वरूप मौर्य साम्राज्य पतनोन्मुख हो गया।
- शुंग वंश : पुष्यमित्र ने अन्तिम मौर्य सम्राट वृहद्रथ की हत्या कर शुंग वंश की नींव डाली।
- शुंग ईरानी मूल के सूर्यपूजक थे।
- पुष्यमित्र का राज्यकाल यूनानियों के विरुद्ध उसके युद्ध के लिए विख्यात है।
- उसने अपने शासनकाल में दो अश्वमेध यज्ञ किये तथा 36 वर्षों तक सफलतापूर्वक शासन किया।
- ब्राह्मण धर्म की उन्नति, कला को संरक्षण तथा साहित्य का विकास इसी काल में हुआ।
- पुष्यमित्र के पश्चात् शुंग शासकों ने लगभग 75 वर्ष तक शासन किया। इस राजवंश का अन्तिम राजा देवभूति था।
- कण्व वंश : अन्तिम शुंग शासक देवभूति की हत्या कर 73 ई.पू. में वासुदेव ने कण्व वंश की स्थापना की।
- इस वंश के चार राजाओं : वासुदेव भूमिमित्र, नारायण तथा सुदर्शन ने लगभग 45 वर्ष तक शासन किया।
- आन्ध्र सातवाहन वंश : सुशर्मा कण्व के सेनापति सिमुक ने 27 ई.पू. में सुशर्मा कण्व का वध कर सातवाहन वंश की नींव डाली।
- पुराणों के अनुसार सातवाहन और आन्ध्र एक ही थे। नासिक लेख से ज्ञात होता है कि ये लोग ब्राह्मण वंश के थे।
- सिमुक शतकर्णि, गौतमीपुत्र शतकर्णि, वसिष्ठीपुत्र, पुलुमावी तथा यज्ञश्री शतकर्णि इस वंश के प्रमुख शासक थे, जिन्होंने लगभग 250 ई. तक शासन किया।
- यज्ञश्री शतकर्णि इस वंश का अन्तिम महत्वपूर्ण शासक था।
- सातवाहनों के शासनकाल में समाज परम्परागत चार वर्णों में विभाजित था। वैष्णव तथा शैव धर्म का महत्व था।
- इस काल में प्राकृत भाषा का काफी विकास हुआ।
- कलिंग राज खारवेल : प्राचीन भारतीय इतिहास में कलिंग राज्य का अपना अलग ही महत्व है।
- अशोक के दुर्बल उत्तराधिकारियों के समय कलिंग पर चेद्दि वंश का अधिकार हो गया।
- चेद्दि वंश के तीन शासकों में महामेघवाहन, खारवेल तथा कुदेप थे। इसमें खारवेल का नाम प्रमुख है। उदयगिरि की हाथी गुम्फा अभिलेख से इसके विषय में जानकारी मिलती है।
- मगध तथा अंगराज्य को विजित करने के पश्चात् वह वहाँ से प्रथम जैन तीर्थंकर की मूर्ति को वापस लाया, जिसे नन्द राजा पहले कलिंग से ले गया था।
- खारवेल ने जैन भिक्षुओं के लिए अनेक गुफाओं का निर्माण कराया।
- भारतीय यूनानी शासक : मौर्य साम्राज्य के पतन के बाद उत्तर भारत में विदेशी शासक हुए, इन्हें सामूहिक रूप में भारतीय यूनानी, भारतीय वेकिश्यन या भारतीय पर्थियन शासक कहते हैं।
- बैक्ट्रिया तथा पार्थिया जो कि वर्तमान बल्खथा पर्शिया है, सेल्यूकस के अधीन दो प्रान्त थे।
- सिकन्दर का यह उत्तराधिकारी बाद में स्वतन्त्र हो गया।
- देमित्रियस के शासन में बैक्ट्रिया राज्य शक्तिशाली हो गया और उसने भारत पर आक्रमण किया।
- उसने समूचे पंजाब को जीता और उमित्रियस ने अपने आपको ‘भारताधिपति’ घोषित किया।
- उसी समय बैक्ट्रिया में विद्रोह हो गया। इसलिए उसे भारत में ही बस जाने पर विवश होना पड़ा।
- वह और उसके उत्तराधिकारी भारतीय यूनानी या भारतीय बैक्ट्रियन शासक कहलाए।
- मिनांडर इन राजाओं में सर्वाधिक महत्वपूर्ण था। वह पंजाब और सिन्धु घाटी का स्वामी था।
- ई.पू. 155 में उसने मथुरा और अयोध्या पर विजय प्राप्त की। उसने पाटलिपुत्र को भी ललकारा, किन्तु पुष्यमित्र ने उसकी प्रगति को रोक दिया।
- बाद में वह बौद्ध हो गया और मिलिंद राजा कहलाने लगा।
भारतीय संस्कृति पर यूनानी प्रभाव
- भारतीय फलित ज्योतिष तथा खगोल ज्योतिष पर यूनानी विद्वानों का प्रभाव पड़ा, जिन्हें ‘यवनाचार्य’ कहा जाता था।
- सिक्के ढालने की कला पर यूनानी प्रभाव पड़ा। दो तरफ मुखौटे वाले गोल सिक्के यूनानी मूल के समझे जाते हैं।
- स्थापत्य कला पर यूनानी प्रभाव काफी पड़ा। तक्षशिला और पेशावर के पास पाई गई मूर्तियों पर यूनानी छाप है। यह कला गांधार शैली कहलाई।
गुप्त वंश (240-480 ई.)
मौर्य साम्राज्य के विघटन के बाद करीब पाँच सौ वर्षों तक उत्तर भारत में किसी शक्तिशाली राज्य का उदय न हो सका। हालांकि इस काल में अनेक राजवंशों ने शासन किया, लेकिन इनके बीच कोई साम्राज्यिक प्रतिस्पर्धा देखने को नहीं मिलती है। इस प्रकार आन्तरिक शान्तिमय वातावरण के बीच गुप्तों ने अपने विशाल साम्राज्य की स्थापना की, जो दो सौ वर्षों से अधिक समय तक अपनी सत्ता बनाये रखने में समर्थ रहे। चूँकि इस काल में भारत ने प्रत्येक क्षेत्र में प्रगति की, इसलिए भारतीय इतिहास में यह काल ‘स्वर्ण युग’ के नाम से जाना जाता है।
प्रमुख स्रोत
गुप्त शासकों के इतिहास की जानकारी के प्रमुख स्रोत हैं :
- साहित्यिक स्रोत
- पुराण : विष्णु पुराण, वायु पुराण तथा ब्रह्माण्ड पुराण प्रमुख हैं।
- देवीचन्द्र गुप्तम् : विशाखदत्त कृत नाटक।
- कालिदास की रचनाएँ : मेघदूतम्, कुमारसम्भवम्।
- मृच्छकटिकमकृ शूद्र : कृत रचना।
- कामसूत्र : वात्स्यायन कृत रचना।
- चीनी यात्री फाह्यान व ह्नेनसांग का यात्रा विवरण आदि उल्लेखनीय हैं।
- पुरातात्विक स्रोत : प्रयाग प्रशस्ति, उदयगिरि के शैव गुहा लेख, जूनागढ़ अभिलेख, एरण अभिलेख, सोने, चाँदी तथा ताँबे की बनी मुद्राएँ तथा स्मारक उल्लेखनीय हैं।
प्रमुख शासक
गुप्त काल के प्रमुख शासक थेकृ चन्द्रगुप्त प्रथम, समुद्रगुप्त, चन्द्रगुप्त द्वितीय, विक्रमादित्य, कुमार गुप्त, स्कंदगुप्त, बुद्ध गुप्त।
- श्रीगुप्त (240-280 ई.) : श्रीगुप्त ‘गुप्त वंश’ का संस्थापक था। उसने 240-280 ई. तक शासन किया। उसने महाराज की उपाधि धारण की।
- ऐसा प्रतीत होता है कि वह भारशिवों के अधीन छोटे से राज्य प्रयाग का शासक था।
- घटोत्कच (280-320 ई-) : श्रीगुप्त के पुत्र घटोत्कच ने 280 ई- से 320 ई- तक शासन किया। महाराज की उपाधि धारण की।
- सम्भवतः घटोत्कच के साम्राज्य में पाटलिपुत्र तथा उसके निकटवर्ती प्रदेश आते थे।
- चन्द्रगुप्त प्रथम (319-334 ई.) : चन्द्रगुप्त प्रथम इस वंश का प्रथम प्रमुख शासक था। उसने मगध, कौशल व कौशाम्बी को जीतकर अपने साम्राज्य से मिलाया। उसने महाराजाधिराज की उपाधि धारण की तथा लिच्छवी वंश की राजकुमारी कुमारी देवी से विवाह किया।
- चन्द्रगुप्त प्रथम को गुप्त संवत् का वास्तविक संस्थापक माना जाता है।
- समुद्रगुप्त (335-375 ई.) : चन्द्रगुप्त का उत्तराधिकारी उसका पुत्र समुद्रगुप्त था, जो कच नामक अपने वंश के एक राजकुमार को पराजित कर शासक बना। उसमें महान सैनिक प्रतिभा थी।
- उसे भारत का नेपोलियन भी कहते हैं, नेपोलियन की तरह वह कभी पराजित नहीं हुआ था।
- वह विद्वान, काव्यकला और संगीत में प्रवीण था। इलाहाबाद का स्तम्भ और एक मुद्रा इसे प्रमाणित करते हैं।
- उसने कलाकारों व विद्वानों जैसे हरिषेण, बसुबंधु आदि को अपने दरबार में संरक्षण दिया।
- चक्रवर्ती बनने के लिए उसने अन्य राज्यों पर अपना नियन्त्रण रखा।
- चन्द्रगुप्त द्वितीय (380-412 ई.) : समुद्रगुप्त का उत्तराधिकारी उसका पुत्र चन्द्रगुप्त द्वितीय बना, जिसका उपनाम विक्रमादित्य था।
- यह गुप्त राजवंश का महानतम शासक था। वह महान विजेता और प्रशासक था।
- उसने अपने पिता के साम्राज्य में मालवा तथा गुजरात जैसे समृद्धतम प्रदेशों को शामिल किया।
- उसका प्रशासन अत्यन्त कल्याणकारी, कुशल एवं उदार था।
- वह महान हिन्दू था, किन्तु कट्टरपंथी व साम्प्रदायिक नहीं था।
- कला और साहित्य को उसने काफी प्रश्रय दिया।
- प्राचीन भारत की श्रेष्ठतम साहित्य प्रतिभा कालिदास, आर्यभट्ट, बराहमिहिर, ब्रह्मगुप्त (जो गणिताचार्य तथा नक्षत्र वैज्ञानिक थे) उसके नवरत्नों में थे।
- धनवन्तरि जो प्रसिद्ध चिकित्सक थे, इसी के शासनकाल में हुए थे।
- नागरिक समृद्ध और सुखी थे।
- चीनी यात्री फाह्यान इसी के शासनकाल में आया था।
- कुमार गुप्त (414-454 ई.) : यह चन्द्रगुप्त द्वितीय का पुत्र तथा उसका उत्तराधिकारी था। इसका शासन शान्ति तथा समृद्धि के लिए प्रसिद्ध था।
- स्कन्दगुप्त (455-467 ई.) : यह गुप्तवंश का अन्तिम शासक था।
- इसके शासनकाल में हूण जाति के लोगों ने अपने आक्रमण गुप्त राज्य पर आरम्भ कर दिये थे।
- स्कन्दगुप्त ने उनका मुकाबला किया और बुद्धिमानी से शासन किया।
- उसने अपने आपको चक्रवर्ती राजा घोषित किया।
- हूणों के आक्रमण से गुप्त साम्राज्य क्षत-विक्षत अवश्य हो गया था। तत्पश्चात् गुप्त साम्राज्य समाप्त हो गया।
भारत का स्वर्ण युग
गुप्त काल 240-480 ई. तक रहा। इस अवधि में शान्ति, समृद्धि एवं चतुर्मुखी विकास हुआ, जिसके फलस्वरूप इस काल को भारतीय इतिहास में स्वर्ण युग के नाम से जाना जाता है।
- इस युग में कला, विज्ञान, साहित्य, वास्तुकला आदि के क्षेत्र में आशातीत विकास हुआ।
- उच्चकोटि की शासन व्यवस्था स्थापित हुई।
- व्यवसाय, उद्योग, कृषि की उन्नति हुई।
हूण (छठवीं शताब्दी)
यह मध्य एशिया की बर्बर तथा लड़ाकू जाति के लोग थे, जिन्होंने गुप्त काल में भारत पर आक्रमण किये। उनके आक्रमणों के कारण गुप्त वंश की शक्ति क्षीण हो गई, परिणामस्वरूप भारत में अनेक छोटे राज्य स्थापित हो गये। छठवीं शताब्दी के अंत तक यह हूण आक्रमण समाप्त हो गये। बहुत से हूण लोगों ने हिन्दू धर्म स्वीकार कर लिया और उसके वंशज आज भारत में राजपूत, जाट तथा गूजर जातियों में पाये जाते हैं।
वर्धन राजवंश
गुप्त साम्राज्य के पतन के साथ ही अनेक स्वतन्त्र राज्यों का उदय हुआ। इन राज्यों में वर्धन वंश के थानेश्वर राज्य के शासकों का वर्णन मधुवन प्रशस्ति में प्राप्त होता है। हर्षवर्धन के अभिलेखों में उसके केवल चार पूर्वजों- नरवर्धन, राज्यवर्धन, आदित्यवर्धन तथा प्रभाकरवर्धन का उल्लेख मिलता है। प्रभाकर वर्धन तथा हर्षवर्धन वर्धन वंश के प्रमुख शक्तिशाली एवं प्रसिद्ध शासक थे।
हर्षवर्धन (606-647 ई.)
- हर्ष के विषय में हमें जानकारी ह्नेनसांग तथा वाणभट्ट द्वारा काफी मिलती है।
- हर्ष निःसन्देह प्राचीन भारत के महानतम शासकों में से एक था।
- उसने गुप्त युग की साम्राज्यवादी गरिमा को पुनः जगाया तथा उत्तर भारत में चक्रवर्ती सम्राट की पदवी अपने कट्टर शत्रुओं से भी प्राप्त की।
- हर्ष बौद्ध धर्म का अनुयायी था, अतः उसने शान्ति तथा उन्नति के लिए बहुत कुछ किया तथा लोगों के भौतिक तथा नैतिक पक्ष को प्रबल किया।
- हर्ष को हिन्दुओं का अन्तिम प्रभावशाली सम्राट कहा जाता है।
राजपूत राज्य
हर्ष की मृत्यु के पश्चात् उत्तरी-पश्चिमी भारत में छोटे-छोटे स्वतन्त्र राज्यों का उदय हुआ। इन विभिन्न छोटे-छोटे स्वतन्त्र राज्यों के शासक राजपूत थे, जिन्होंने 1200 ई. तक लगभग 500 वर्जों तक शासन किया।
भारतीय इतिहास में इस काल को ‘राजपूत युग’ के नाम से जाना जाता है। मुख्य राजपूत राजाओं में पृथ्वीराज चौहान, जयचन्द, राणा संग्राम सिंह, राणा प्रतापसिंह आदि नाम शामिल हैं। प्रमुख राजपूत राज्य निम्नलिखित थे :
शाही राजपूत : पंजाब के शासक भीमपाल, जयपाल, आनन्दपाल तथा त्रिलोचन पाल इस वंश के महत्वपूर्ण शासक थे। उन्हें 1021 ई. में महमूद गजनी ने हराया था।
चौहान : यह उत्तर भारत का सबसे शक्तिशाली वंश था।
- पृथ्वीराज चौहान इस वंश का वीर, प्रतापी एवं अन्तिम शासक था, जिसका मोहम्मद गौरी के साथ तराइन का प्रथम तथा द्वितीय युद्ध हुआ था।
- इसी राजवंश के शासनकाल में अजमेर की स्थापना हुई।
बुन्देल या चन्देल वंश : यशोवर्मन इस वंश का प्रथम प्रतापी एवं स्वतन्त्र शासक था। इन्होंने बुन्देलखण्ड पर शासन किया।
- परमाल अथवा परमर्दन चंदेल इस वंश का अन्तिम शासक था। इसी के शासनकाल में तुर्कों ने चंदेल राज्य पर आक्रमण किया था, जिसके फलस्वरूप चन्देल वंश का पतन प्रारम्भ हो गया।
- इसी वंश के शासनकाल में खजुराहो मन्दिर का निर्माण हुआ।
परमार वंश : इस वंश का संस्थापक उपेन्द्र था।
- श्रीहर्ष इस वंश का प्रथम स्वतन्त्र शक्तिशाली शासक था, जिसने राष्ट्रकूटों को पराजित किया।
- राजा भोज, जिसके नाम पर भोपाल शहर बसा, अपनी दानशीलता, कला एवं विद्यानुराग के कारण इस वंश के सर्वाधिक प्रसिद्ध राजा थे।
पाल वंश : बंगाल में गोपाल ने पाल वंश की स्थापना की।
- धर्मपाल, देवपाल, महिपाल, जयपाल आदि इस वंश के प्रमुख राजा थे।
- इन्होंने परमभट्टारक, महाराजाधिराज, परमेश्वर आदि की उपाधियाँ धारण कीं।
- देवपाल इस वंश का सर्वाधिक शक्तिशाली शासक था, जिसने कामरूप तथा कलिंग पर अपना अधिकार स्थापित किया था।
- बंगाल के सेन वंश ने इस वंश का अन्त कर दिया।
सेन वंश : सामंत सेन सेन वंश का संस्थापक था, जिसने बंगाल तथा बिहार पर अपना शासन किया।
- लक्ष्मण सेन इस वंश का अन्तिम प्रसिद्ध राजा था।
- गीतगोविन्द के रचयिता जयदेव इसके दरबारी कवि थे।
गुजरात के चालुक्य : गुजरात में इस वंश का संस्थापक ‘मूलराज प्रथम’ था।
- जयसिंह सिद्धराज इस वंश का सर्वाधिक शक्तिशाली एवं कुमारपाल इस वंश का अन्तिम शासक था।
- इसकी मृत्यु के बाद इस वंश का क्रमशः पतन हो गया।
कलचुरी वंश : इस वंश का संस्थापक ‘कोकल्ल’ था।
- इसने ‘त्रिपुरी’ को अपनी राजधानी बनाकर शासन किया।
- इस वंश की दो शाखाएँ थीं।
- गंगेयदेव इस वंश का शक्तिशाली शासक था। इसने विक्रमादित्य की उपाधि धारण की।