परिसीमन आयोग : जम्मू-कश्मीर के लिये क्यों आवश्यक है?

रजनीतिक

      परिसीमन से तात्पर्य किसी भी राज्य की लोकसभा और विधानसभा क्षेत्रों की राजनीतिक  सीमाओं  का रेखांकन है, अर्थात इसके माध्यम से लोकसभा और विधानसभा क्षेत्रों की सीमायें तय की जाती हैं।

      परिसीमन आयोग को भारतीय सीमा आयोग भी कहते हैं। इसके अंतर्गत सीटों की संख्या के आवंटन और क्षेत्रों में उनके सीमांकन का काम किया जाता है। संविधान के अनुच्छेद 82 के मुताबिक, सरकार हर 10 साल बाद परिसीमन आयोग का गठन कर सकती है। इसके तहत जनसंख्या के आधार पर विभिन्न विधानसभा व लोकसभा क्षेत्रों का निर्धारण होता है। वहीं, परिसीमन की वजह से किसी भी राज्य से प्रतिनिधियों की संख्या नहीं बदलती; लेकिन जनसंख्या के हिसाब से अनुसूचित जाति व जनजाति सीटों की संख्या बदल जाती है।

                अब तक चार बार परिसीमन आयोग का गठन हो चुका है। सबसे पहले 1952 में इस आयोग का गठन किया गया था। इसके बाद 1962, 1972 और 2002 में इस आयोग का गठन किया गया था। वहीं, 2002 में भारत के उच्चतम न्यायालय के अवकाश प्राप्त न्यायाधीश न्यायमूर्ति कुलदीप सिंह की अध्यक्षता में  परिसीमन आयोग का गठन किया गया था। आयोग ने सिफारिसों को 2007 में केंद्र को सौंपा था; परन्तु इसकी सिफारिसों को केंद्र सरकार ने अनसुना कर दिया था; लेकिन सुप्रीम कोर्ट के दखल देने के बाद इसे 2008 से लागू किया गया था। आयोग ने वर्ष 2001 की जनगणना के आधार पर निर्वाचन क्षेत्रों का परिसीमन किया था

परिसीमन आयोग के कार्य

      हाल में हुई जनगणना के आधार पर देश के सभी लोकसभा और विधानसभा के निर्वाचन क्षेत्रों की फिर से सीमाएं निर्धारित करना है। सीमाओं के पुनर्निर्धारण में राज्य में प्रतिनिधित्व को स्थिर रखना, यानी चुने गए प्रतिनधियों की संख्या में कोई बदलाव नहीं होना है; जबकि अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति की गणना विधानसभा सीटों के निर्धारण क्षेत्र की जनगणना के अनुसार करना है।

परिसीमन का निर्धारण

परिसीमन के निर्धारण में इन 5 चीजो को ध्यान में रखा जाता है- क्षेत्रफल, जनसंख्या, क्षेत्र की प्रकृति, संचार सुविधा व अन्य कारण।

जम्मू और कश्मीर में परिसीमन क्यों जरूरी है?

      दरअसल कश्मीर का क्षेत्र अलगाववादियों के प्रभाव वाला क्षेत्र है और इस कारण यहाँ से केवल नेशनल कांफ्रेंस और पीडीपी के नेता ही चुनाव जीत पाते हैं और कश्मीर में सरकार बनाने में इसी क्षेत्र के नेताओं का हाथ होता और प्रदेश का मुख्यमंत्री भी कश्मीर क्षेत्र से ही बनता है। अब केंद्र सरकार कश्मीर से विधान सभा और लोक सभा सीटें घटाकर जम्मू क्षेत्र में सीटें बढ़ाना चाहती है। वहीं, पूर्व जम्मू-कश्मीर में अनुसूचित जाति के लिए मात्र सात सीटें आरक्षित थीं। यह सभी जम्मू क्षेत्र में थी। कश्मीर में एक भी सीट आरक्षित नहीं थी। अनुसूचित जनजातियों के लिए भी प्रदेश में एक भी सीट आरक्षित नहीं थी।

जम्मू और कश्मीर में परिसीमन आयोग का दायित्व

      जम्मू कश्मीर पुनर्गठन अधिनियम 2019 के भाग पांच के प्रविधानों और परिसीमन अधिनियम 2002 के मुताबिक आयोग को विधानसभा निर्वाचन क्षेत्रों के परीसीमन का अधिकार दिया गया है। नए जम्मू कश्मीर की विधानसभा में सीटों की संख्या को बढ़ाकर 111 से 114 किया जाना है। इनमें से 24 सीटें पहले की तरह गुलाम कश्मीर के लिए आरक्षित हैं।

                लद्दाख अब जम्मू कश्मीर का हिस्सा नहीं रहा। ऐसे में उसकी चार सीटें भी खत्म हो गईं। जम्मू क्षेत्र का आरोप रहता था कि पुराने परिसीमन में उसकी उपेक्षा हुई है। कम क्षेत्र के बावजूद कश्मीर को ज्यादा सीटें दी गईं। इस तरह अब जम्मू और कश्मीर जोन में सीटों की संख्या को बढ़ाकर 83 से 90 करना है तथा परीसीमन की प्रक्रिया पूरी होने के साथ ही जम्मू-कश्मीर में अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों के लिए सीटें आरक्षित की जाएंगी।

      केंद्र सरकार ने जम्मू-कश्मीर के पुनर्गठन के बाद प्रदेश के विधानसभा क्षेत्रों के परिसीमन के लिए पिछले वर्ष, यानी मार्च 2020 को परिसीमन आयोग का गठन किया था। जस्टिस देसाई के अलावा चुनाव आयोग के प्रतिनिधि के तौर पर चुनाव आयुक्त सुशील चंद्रा और राज्य चुनाव आयुक्त केके शर्मा इसके सदस्य हैं। इसके अलावा प्रदेश के सभी लोकसभा सदस्यों को आयोग का सहायक सदस्य बनाया है।

जम्मू और कश्मीर में अंतिम परिसीमन

      जम्मू-कश्मीर में अंतिम बार परिसीमन 1994-95 में हुआ था। उस समय प्रदेश में विधानसभा सीटों की संख्या को 76 से बढ़ाकर 87 किया गया था। जम्मू में सीटों की संख्या 32 से 37, कश्मीर में 42 से 46 और लद्दाख में दो से चार की गईं थी; जबकि वर्ष 2002 में  डॉ. फारूक अब्दुल्ला के नेतृत्व वाली तत्कालीन राज्य सरकार ने विधानसभा में प्रस्ताव पासकर जम्मू-कश्मीर में परिसीमन पर 2026 तक रोक लगा दी थी।

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