पहला बिंदु : एकीकृत राष्ट्र का प्रश्न
यह आधुनिक काल की सबसे बड़ी राजनैतिक समस्याओं में से एक है कि किसी सम्प्रभु राष्ट्र की सीमारेखाओं का निर्धारण किस मानदण्ड पर हो!।यूरोप में जो प्रचलित मानदण्ड हैं, उनमें से एक भाषा है. एक जैसी भाषा बोलने वाले एक राष्ट्र के माने जाते हैं.
1938 में जब नात्सी जर्मनी ने ऑस्ट्रिया पर चढ़ाई की और आज जब रूस ने उक्रइन पर धावा बोला है तो उसके मूल में यही है कि ऑस्ट्रिया में जर्मनभाषी और उक्रइन में रूसीभाषी, इतनी बड़ी संख्या में हैं कि कल्पना करना कठिन है कि ये देश जर्मनी और रूस से पृथक हो सकते हैं!
हिटलर और पुतिन- दोनों के ही मन में यह स्पष्ट रहा था कि ऑस्ट्रिया और उक्रइन उनके देश के अभिन्न अंग थे, हैं और रहेंगे और केवल छलपूर्वक ही उन्हें उनसे अलग किया जा सकता है, जिसका प्रतिकार ज़रूरी है (इसी आधार पर अगर चीन ताईवान अपना हिस्सा मानकर उस पर चढ़ाई कर बैठे तो उसे बेतुका नहीं समझा जाना चाहिए)
दूसरा बिंदु : साम्राज्यों का विघटन और उनसे आधुनिक राष्ट्र-राज्यों का निर्माण सुचारु रूप से कैसे हो?
हिटलर को लगता था कि उसके देश की भुजाएँ काट दी गई हैं और जितनी भूमि (वेइमार रिपब्लिक) जर्मनों को रहने के लिए दी गई है, उसमें उनका दम घुट रहा है.
होली रोमन एम्पायर को हिटलर ने पहला रायख़ कहा था, बिस्मार्क के एकीकृत-जर्मनी को दूसरा रायख़. फिर उसने शपथ ली कि वह तीसरा रायख़ बनाएगा और जर्मनी से छिने हुए इलाक़ों को अपने में सम्मिलित करेगा.
ऑस्ट्रो-हंगारियन एम्पायर को वह ठीक उसी तरह से होली रोमन और प्रशियन एम्पायर के विस्तार की तरह देखता था, जैसे सोवियत संघ ईस्टर्न ब्लॉक पर स्वाभाविक रूप से अधिकार-बोध रखता था. लेकिन ईस्टर्न ब्लॉक तो दूर (जिसके अनेक सदस्य नाटो के प्रभाव-क्षेत्र में आ गए), स्वयं सोवियत-संघ का विघटन उस तरह से हुआ कि रूसियों का राष्ट्रगौरव तिलमिलाकर रह गया.
अगर किसी को लगता था कि कालान्तर में इस पर उनसे प्रतिक्रिया नहीं आएगी तो वह इतिहास को समझने में भूल कर रहा था.
रूस में ठीक उसी तरह से अपने खोए हुए इलाक़ों को वापस पाने की भूख जगी है, जैसे जर्मनी में 1930 के दशक में जगी थी, और- जैसा कि थॉमस फ्रीडमन ने उचित ही रेखांकित किया है- युद्धोत्तर जर्मनी ने जिस तरह से स्वयं को यूरोपियन-मुख्यधारा में मिलाया है, सोवियत संघ के विघटन के बाद रूस कभी भी उतने सहज तरीक़े से यूरोप का हिस्सा नहीं बन सका था और अब तो उसका विद्रोहपूर्ण अलगाव दर्शनीय बन चुका है!
“तीसरा बिंदु : पराजित के अहं को कुचलने की पश्चिम की पुरानी आदत.*
पहले विश्व युद्ध में जर्मनी केवल हारा ही नहीं था, वरसाय की संधि के माध्यम से उसका पद-दलन और मान-मर्दन किया गया था. जर्मन राष्ट्रगौरव अपमान का घूँट पीकर रह गया था, जिसका बाद में हिटलर ने ख़ूब दोहन किया.
ठीक उसी प्रकार शीतयुद्ध का समापन सौहार्द के साथ नहीं हुआ था. सोवियत-संघ टूटा, कम्युनिस्ट विचारधारा का पराभव स्वयं ग्लास्नोस्त और पेरेस्त्रोइका के मंत्रोच्चार से मॉस्को में हुआ और ईस्टर्न-ब्लॉक पश्चिम की ओर खिसकने लगा.
पश्चिमी ताक़तों को इसके बाद नाटो का विस्तार करके रूस की नाक के नीचे घुसने की कोई ज़रूरत नहीं थी, क्योंकि यह प्रोवोकेशन की नीति कहलाती है.
किन्तु अमेरिका और ब्रिटेन का राष्ट्रीय चरित्र कुटिलता से भरा हुआ है. ये ना केवल युद्धों को जन्म देते हैं, युद्धों के लिए उकसाते भी हैं और संघर्षों के लिए इको-सिस्टम बनाते हैं. फिर बाद में दूसरी ताक़तों को एग्रेसर कहकर लताड़ते हैं.
परास्त की अस्मिता को कुचलने की अपनी आदत से वो बाज़ आएँ तो युद्धों का समूल नाश हो जावे!
चौथा बिंदु : तुष्टीकरण
चेम्बरलेन ने जैसे हिटलर का तुष्टीकरण किया था, वह जगज़ाहिर है. म्यूनिख़-वार्ता के बाद इस ब्रिटिश प्रधानमंत्री ने लगभग हिटलर को हरी झण्डी दे दी थी कि वह ऑस्ट्रिया के बाद चेकोस्लोवाकिया को भी अपने में मिला ले!
हिटलर की तुलना में चेम्बरलेन ठीक वैसे ही एक कमज़ोर राष्ट्रनायक सिद्ध हुआ था, जैसे आज पुतिन के सामने जो बाइडेन साबित हो रहे हैं और रूस पर कड़ी सैन्य कार्रवाई का मन नहीं बनाते हुए, एक तरह से पुतिन का मनोबल बढ़ा रहे हैं!
इस लेख की शुरुआत इतिहास के दोहराव के बिंदु से हुई थी, किंतु अब यहाँ आकर इतिहास एक दोराहे पर खड़ा हो गया है.
हिटलर ने ऑस्ट्रिया और चेकोस्लोवाकिया पर जीत के बाद अति-आत्मविश्वास से भरकर पोलैंड पर चढ़ाई कर दी थी.
प्रश्न है पुतिन क्या क्रीमिया और उक्रइन के बाद चुप बैठैंगे?
अगर पुतिन की महत्वाकांक्षा उक्रइन से पूरी हो जाती है तो दुनिया में शांति रहेगी, लेकिन अगर पुतिन के दिल में ईस्टर्न-ब्लॉक पर विजय पाकर सोवियत-संघ के पुराने वर्चस्व को जगाने का विचार जाग गया तो अमेरिका को ठीक वैसे ही अपने लिए एक उग्र राष्ट्रनायक का चयन करना होगा, जैसे ब्रिटेन ने चेम्बरलेन के बाद चर्चिल को चुना था और आमने-सामने का युद्ध अवश्यम्भावी हो गया था!
फ़िलहाल दुनिया के हित में यही है कि अमरीकी अधिपति एक उग्र व्यक्तित्व के स्वामी नहीं हैं!
पाँचवाँ और आख़िरी बिंदु : राष्ट्रों का अंदरूनी अलगाववाद
1938 में जब हिटलर की फ़ौजें वियना में घुसी थीं तो ऑस्ट्रिया वासियों ने उनका भावभीना स्वागत किया था क्योंकि वहाँ के बहुसंख्य जर्मनभाषी स्वयं को वृहत्तर-जर्मनी का हिस्सा समझते थे.
आज उक्रइन के दो अलगाववादी क्षेत्रों को तो रूस ने स्वतंत्र देश की मान्यता दे दी, किन्तु सवाल यह है कि स्वयं उक्रइनी मुख्यधारा में अलगाव के स्वर और प्रो-रशियन सेंटिमेंट्स कितने मुखर हैं?
अगर उक्रइन के रूसी भाषियों ने पुतिन को अपना नायक स्वीकार लिया तो- पहले ही नाटो के द्वारा छला जा चुका यह देश- अंदरूनी मोर्चे पर भी गृहयुद्धों से घिर जाएगा.
अलबत्ता पुतिन के लिए तो यह मनमाँगी मुराद होगी.
जिन विश्लेषकों को लगता था कि यूरोप में अब शांति क़ायम हो चुकी है और क्षेत्रीय विवादों का अंतिम समाधान हो चुका है, वे विजेता की दृष्टि से सोच रहे थे, पराजित के परिप्रेक्ष्य से नहीं!
पुतिन ने दुनिया के सामने पराजित का परिप्रेक्ष्य रखा है.
यह नया वर्ल्ड-ऑर्डर पूर्वी यूरोप के बाल्कनाइज़ेशन की ओर अगर मुड़ गया तो आने वाले दशक रक्तरंजित होंगे!