द्वारा : कंवल भारती
भाजपा की जीत का जो स्पष्ट मतलब दिखाई दे रहा है, वह है हिंदुत्व की जीत!
लोकतंत्र अभी नहीं हारा है, पर जनता ने लोकतंत्र के हिन्दूकरण पर मुहर लगा दी है.
हिंदुत्व की इस जीत को अगर गहराई से देखें, तो यह खुला खेल जातिवाद का है.
इस जातिवाद के भी दो रूप हैं, और दोनों के मूल में अलग-अलग तत्व हैं. समझाने के लिहाज से मैं इसे उच्च और निम्न वर्गीय जातिवाद का नाम दूंगा. उच्च वर्ग में चार जातियां हैं, ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और कायस्थ. यह वर्ग हिंदुत्व का सबसे बड़ा समर्थक है.
भाजपा से पहले, यह वर्ग कांग्रेस के साथ था क्योंकि कांग्रेस के शासन में सारी नीतियाँ और योजनाएं इसी वर्ग के हाथों में थीं. कांग्रेस कमजोर हुई, तो यह वर्ग भाजपा के साथ खड़ा हो गया.
कांग्रेस में फिर भी कुछ धर्मनिरपेक्षता थी, और वहाँ इस वर्ग को हमेशा यह डर बना रहता था कि कहीं गैर-द्विज शासक न बन जाए. हालाँकि कांग्रेस ने हमेशा इस बात का ध्यान रखा कि शासन की बागडोर ब्राह्मणों के हाथों में ही रहे.
लेकिन भाजपा पूरी तरह हिंदुत्ववादी है, और घोर मुस्लिम-विरोधी भी है, इसलिए उच्च वर्ग को वह डर अब बिल्कुल नहीं है, जो कांग्रेस में रहता था, कि गैर-हिंदू यानी मुसलमान सत्ता में आकर उन पर हावी हो जायेंगे!
अब यह वर्ग भाजपा का अंधा वोट-बैंक है. यह किसी भी स्थिति में भाजपा के खिलाफ नहीं जा सकता.
यह वर्ग सामाजिक रूप से सम्मानित और आर्थिक रूप से मजबूत है.
इसलिए इस वर्ग की न कोई सामजिक समस्या है और न आर्थिक समस्या.
सर्वाधिक नौकरियां और संसाधन इसी वर्ग के पास हैं, और जब मोदी सरकार ने सवर्णों के लिए 10 परसेंट आरक्षण अलग से दिया, तो यह वर्ग भाजपा से और भी ज्यादा खुश हो गया.
दलित-पिछड़ी जातियों की आरक्षित सीटों पर भर्ती न करने की नीतियों से भी यह वर्ग भाजपा से खुश रहता है. यह वर्ग भाजपा के खिलाफ सपने में भी नहीं जा सकता.
इस वर्ग से भाजपा का रिश्ता वैसा ही है, जैसे साड़ी का नारी के साथ—साड़ी बिच नारी है कि नारी बिच साड़ी है.
निम्न वर्गीय जातिवाद में दलित-पिछड़ी जातियां आती हैं. किसी समय ये जातियां कांशीराम के सामाजिक-परिवर्तन आंदोलन से बहुत प्रभावित थीं, और बसपा की ताकत बनी हुईं थीं. एक बड़ी ताकत मुसलमानों की भी इनके साथ जुड़ी हुई थी. यह एक विशाल बहुजन शक्ति थी, जिसने भाजपा को उत्तरप्रदेश में सत्ता से बाहर रखा था.
लेकिन बाद में कांशीराम ने ही भाजपा से हाथ मिलाकर इस शक्ति को छिन्नभिन्न कर दिया.
परिणाम यह हुआ कि भाजपा को सत्ता से बाहर रखने वाली बसपा अब खुद ही सत्ता से बाहर हो गई.
यह अकस्मात नहीं हुआ, बल्कि इसे “बसपा और भाजपा-गठजोड़” ने धीरे-धीरे अंजाम दिया.
बसपा से गैर-जाटव (और चमार) नेतृत्व को हटाने की शुरुआत कांशीराम के समय में हो गई थी. और मुसलमानों को भी बसपा से अलग करने की कार्यवाही खुद कांशीराम करके गए थे.
काफी संख्या में यादव भी बसपा से जुड़े थे. वे भी मुलायम सिंह यादव और मायावती के बीच हुए संघर्ष में टूट गए.
बसपा से टूटे मुसलमान मुलायम सिंह से जुड़ गए. और वे यादव और मुस्लिम समाज के एकच्छत्र नेता बन गए. पर गैर-यादव पिछड़ी जातियों को वे भी अपनी पार्टी से नहीं जोड़ पाए.
उत्तरप्रदेश की यह एक विशाल जनशक्ति थी, जिसे सपा और बसपा दोनों ने उपेक्षित छोड़ दिया था.
इसी उपेक्षित वर्ग में RSS और भाजपा ने महादलित और महापिछड़ा वर्ग बनाकर अपना राजनीतिक खेल शुरू किया. उनमें नेतृत्व उभारा और उनके लिए जाटव-चमारों तथा यादवों से पृथक आरक्षण की नीति बनाकर उन्हें पूरी तरह से न केवल चमार और यादव वर्ग के विरुद्ध खड़ा किया, बल्कि मुस्लिम विरोधी भी बना दिया.
इस महादलित और महापिछड़े वर्ग में शिक्षा की दर सबसे कम और धर्म के आडम्बर सबसे ज्यादा हैं.
भाजपा ने इन्हीं दो चीजों का लाभ उठाया, और वे उसके हिंदू एजेंडे से आसानी से जुड़ गए.
भाजपा के हिंदू एजेंडे का मुख्य बिंदु या पहली शर्त है—मुस्लिम-विरोध.
यह विरोध उनमें सबसे ज्यादा भरा गया. उनसे कहा गया कि अगर सपा जीत गयी, तो पूरे प्रदेश में मुगलराज वापस आ जाएगा, जगह-जगह गायें कटेंगी और हिदू लड़कियां सुरक्षित नहीं रहेंगी.
अशिक्षित और उन्मादी दिमाग में यह सब जल्दी भर जाता है. इसलिए इस महावर्ग ने जमकर भाजपा को वोट दिया, क्योंकि उसे मुस्लिम नहीं, हिंदू राज चाहिए.
भाजपा नेताओं ने उनके बीच लगातार इसी सवाल के साथ प्रचार भी किया कि राम-भक्तों पर गोली चलवाने वाली सरकार चाहिए, या राम-मंदिर बनवाने वाली?
कांवड़ यात्रा रुकवाने वाली सरकार चाहिए या कांवड़ निकलवाने वाली?
उच्च वर्गीय जातिवादी वर्ग का तो कोई इलाज नहीं है, वह संपन्न वर्ग है, जो कभी नहीं चाहेगा कि किसी दलित-पिछड़ी जातियों की सरकार बने. (अगर चाहेगा भी तो बहुत मजबूरी में), परन्तु निम्नवर्गीय जातिवादी वर्ग का इलाज भी अब आसान नहीं है. उनका ब्रेनवाश हो चुका है. उन्हें उनकी अस्मिता से जोड़ना अब बहुत मुश्किल है.
यह दौर रामस्वरूप वर्मा या ललई सिंह का नहीं है, यह भाजपा का हिंदू दौर है, जिसमें लोकतान्त्रिक विचार-प्रचार की उतनी गुंजाइश नहीं है, जितनी उनके दौर में थी.
पिछड़ी जातियों को उनकी अस्मिता से जोड़ने का मतलब है, हिंदू अस्मिता का खंडन करना, जो हिंदुत्व का खुला विरोध होगा.
भाजपा सरकार उच्च वर्ग में हिंदुत्व का विरोध सहन कर भी सकती है, पर दलित-पिछड़े वर्गों में कभी बर्दाश्त नहीं करेगी. क्योंकि भाजपा की सारी राजनीतिक शक्ति और हिंदू राष्ट्र का सारा दारोमदार इसी अशिक्षित और उन्मादी वर्ग पर टिका है.
इस वर्ग को शिक्षित करने का मतलब है हमेशा अपनी जान हथेली पर रखकर चलना, और देश-द्रोह के जुर्म में जेल में सड़ना.
पर सबसे बड़ा सवाल यह है कि यह प्रचार करेगा कौन? क्या सपा-बसपा? बिल्कुल नहीं.
यह काम कोई सामजिक संगठन ही कर सकता है, जिसकी बस सुंदर कल्पना ही कर सकते हैं.
फिलहाल मैं सावित्री बाई फुले की स्मृति को नमन कर लेता हूँ, जिनकी आज पुण्यतिथि है।