“हम दांते का एहतराम करने में कोई ख़तरा नही महसूस करते, जबके उसने नबी (स०आ०व०) और हज़रत अली (रज़ी०) की शान में शदीद गुस्ताख़ी की थी.
हम डार्विन और लैमार्क के नज़रिये ए इरतक़ा (एवोल्यूशन) पर बहस करने में कोई ख़ौफ़ महसूस नहीं करते, हालांकि ये नज़रिया मज़हब के ख़िलाफ़ है.
हम फ्रायड के जिंसी नज़रियात पर इज़हार ए ख़्याल करते ख़ुद को बिल्कुल महफूज़ पाते हैं, जबके उसके मताबिक़ एक बच्चे का मुंह में चुसनी लेना और उसे चूसते रहना या किसी बूढ़े शख़्स का किसी मुक़द्दस (पवित्र) शय का बोसा देना, इन दोनों का कारण जिंस (sexuality) है और मीनारे और गुम्बद जिन्हें हम मुक़द्दस समझते हैं, जिंस की अलामत हैं.
ये नज़रियात सही हों या ग़लत, ये उन लोगों के नज़रियात हैं जिन्हें अमेरिका और दूसरे साम्राज्यवादी मुल्कों ने कभी अपना निशाना नही बनाया,
लेकिन जर्मनी के एक ग़रीब और फ़ाक़ाकश मुफक्कीर (विचारक) ने, जो अपने मरते हुए बच्चे तक का इलाज न करा सका, जो उसके मरने पर कफन ख़रीदने की हैसियत भी न रखता था, उसने जब इंसानों की बुनियादी मसअले की साइंसी निशानदेही की, तो वह साम्राज्यवादियों के तमाम गिरोह में मज़हब, रिवायत और संस्कार का बाग़ी और ग़द्दार ठहरा!
ये शख़्स कार्ल मार्क्स था!
ये वो शख़्स था जो नीम फ़ाक़ाकशी की हालत में सारी दुनिया के इंसानों के दुःख दर्द का हल सोचा करता था और एक दिन इसी हालत में बैठे बैठे मर गया!
हम जब तारीख़ ए फिक्र के इस महबूब और बुरगुज़ीदा बूढ़े और इसके ज़िन्दगी परवर हकीमाना नज़रिया ए कम्युनिज़्म का ज़िक्र करते हैं और इसके ज़रिए अपनी अवाम की दम तोड़ती ज़िन्दगी का हल चाहते हैं तो हम नए पश्चिमी साम्राज्यवादियों और उनके मुक़ामी दलालों के नज़दीक अपने मुल्कों के बाग़ी और ग़द्दार ठहरते हैं!”