चर्चा

दैनिक समाचार

Hitendra Patel लिखते हैं-

दो तीन दिनों से हिंदू मुसलमान के प्रश्न से उलझा रहा हूं. दो प्रबुद्ध मित्रों में गहन संवाद के दौरान एक मतभेद उभरा. एक मित्र इस बात को लेकर अड़ा हुआ था कि हिंदुओं के साथ मुसलमानों के झगड़े का कारण मुसलमानों का अड़ियल रवैया है. खिलाफत राष्ट्रीय आंदोलन था ही नहीं…।

दूसरे प्रबुद्ध ने भारतीयता की व्याख्या करते हुए कहा कि यह दुराव पतनशील आधुनिक सोच के कारण है, जिसके कारण विभेद और टकराव की सोच पैदा होती है. अब एक नई सोच पैदा हो रही है जो एक नए समाज और सोच के लिए अवसर प्रदान कर रही है…

पहले मित्र ने कहा इतिहास के सच को झुठलाया नहीं जा सकता, उसको संज्ञान में लेकर ही आगे बढ़ा जा सकता है…
इस बीच कश्मीर फाइल फिल्म पर चर्चा ने घेर लिया.

यू ट्यूब पर ‘कश्मीर फाइल ‘देखी. पूरी फिल्म बहुत ही साधारण लगी. राज बब्बर इसमें पंडित अमरनाथ हैं. फिल्म में कुछ अच्छे दृश्य और डायलॉग थे. जगह जगह राज बब्बर ने दिलीप कुमार (मशाल वाले) की तरह एक्टिंग की है.
फिल्म खत्म होने के बाद लगा कि गलत फिल्म देख ली!

कश्मीर फाइल पर एक लंबी चर्चा सुनी. फिल्म के टुकड़े देखे.

एक बात तो स्पष्ट है: अब चीजें खुल कर सामने आने के लिए बाध्य हैं.

हर तरफ से लोग मुसलमानों को प्रश्नों के घेरे में रखने की कोशिश कर रहे हैं. मुसलमानों की एक कट्टर छवि ही पेश की जा रही है.

इसके साथ बुद्धिजीवियों को भी इस कट्टरता को बढ़ाने, आग लगाने और इस आग में अपना उल्लू सीधा करने वाला सिद्ध किया जा रहा है.

भारतीय आधुनिक इतिहास में यह पहली बार हो रहा है! सच क्या है यह सबके दावों में खो जा रहा है. अपने अपने दावों और सच को लेकर जिस कनविक्शन से लोग बातें कर रहे हैं, उससे लगता है संवाद नहीं युद्ध की तैयारी चल रही है…

ऐसे में संवाद कैसे हो ?

पहली बात : तथ्यों को आने दिया जाए और उसे बैठने दिया जाए तह में. धैर्यपूर्वक उसे सुना जाए. बुरी से बुरी बात को भी कहने सुनने से न रोका जाए.

एक बुजुर्ग बुद्धिजीवी ने कहा : हिंदुओं को रोने के अधिकार से भी वंचित किया जा रहा है! जो हुआ उसको छुपाने के लिए पूरा तंत्र खड़ा रहा है. अब उसकी चर्चा हो रही है…

दूसरी बात : “मुसलमान समाज कोई एक समाज नहीं है, इसके भीतर बहुत सारी चीजें चलती रही हैं. अंततः मुसलमान मुसलमान ही रहेगा, हिंदू विरोधी ही रहेगा.”–यह बात परीक्षित (tested) नहीं है.

मुसलमान समाज का सच ठीक से लाया नहीं गया है. इस दिशा में प्रयास की जरूरत है. मुसलमान इस देश के उतने ही नागरिक हैं जितने कोई अन्य समुदाय के लोग.

अंतर कहां पैदा होता है? इस प्रश्न के उत्तर में मुसलमानों के वैश्विक सोच (जिसमें दुनिया मुसलमानों और गैर मुसलमानों में बंटी है) की चर्चा खूब फैली है.

मुसलमानों के भारतीय स्वरूप को प्रतिष्ठित करने की जरूरत है. “इस देश की मिट्टी के प्रति ही सबकी लॉयल्टी है”, यह बात जोड़ने में सहायक है.

शक करके बात बिगाड़ने से बचना होगा.

मुस्लिम समाज को भी अपने राष्ट्रीय हित को, कौमी हित से पहले रखने वाली छवि को प्रतिष्ठित करना होगा, और यह किया जा सकता है.

तीसरी बात : यह देश विविधता के बीच एक है. एकता और विविधता के बीच एकता के सूत्रों को सामने रखने की जरूरत है.

दुनिया के हर देश में आपसी द्वंद्व रहे हैं और हर देश में कोशिश की गई है कि पुराने द्वंद्वों को एकता से अधिक महत्त्व नहीं दिया जाए.

भारतीय बुद्धिजीवियों को भी देश में एकता के सूत्रों पर ध्यान देने की ओर अधिक ध्यान देना होगा.

“अपने देश के अतीत में, विभेद के प्रश्नों को अधिक महत्त्व दिया जाता रहा है”, इस आरोप को निराधार नहीं माना जा सकता.

चौथी बात : देश और समाज में अविवेकी तत्त्वों को अधिक महत्त्व मिला है.

पूंजी के राज के इस समय में यह स्वाभाविक है. अर्थ और राजनीति के वर्चस्व के इस युग में स्वाभाविक, संवेदनात्मक धरातल पर जीता विवेकवान व्यक्ति तैयार नहीं हो सकते.

देश में असमानता बढ़ती रहे, लोलुपता बढ़ती रहे और हम तरक्की करते रहें यह नहीं हो सकता.

पांचवीं बात : समय बदला है. आदर्शों को समय के साथ बदलना ही होता है. नए लोग ही समाज के केंद्र में रहेंगे. जो लोग पुरानी दुनिया के हैं (मतलब १९८० के पूर्व जिनका मानस बना है) वे समझें कि उनका दायित्व है अपने समय के बचाने वाले मूल्यों को बाद की पीढ़ी को सौंपने की कोशिश करना. करना बाद की पीढ़ी को है. एक गहन संवाद की जरूरत है.

समय बदल गया है. बाद की पीढ़ी के भी दायित्व हैं, पर उसपर चर्चा बाद में… ।

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