यूक्रेन : अंतर-साम्राज्यवादी कलह का अखाड़ा

दैनिक समाचार

रूस और अमरीका के नेतृत्व वाले पश्चिमी देशों के बीच अपने-अपने साम्राज्यवादी हितों को पूरा करने के लिए चल रही खींचतान में यूक्रेन में पिछले लंबे समय से माहौल तनावपूर्ण बना हुआ था। तक़रीबन डेढ़ लाख से ज़्यादा रूसी फ़ौज यूक्रेन की सरहद पर तीन दिशाओं से – रूसी सरहद, बेलारूस और क्रीमिया की दिशा से, लगातार युद्ध अभ्यास कर रही थी। इस दौरान यूक्रेन में रूस द्वारा सैन्य घुसपैठ करने के अनुमान लगाए जा रहे थे, जो पिछली 24 फ़रवरी को सच साबित हुए और रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन के एक संक्षिप्त टेलीविज़न भाषण के बाद इसी तारीक़ को 5 बजे रूसी फ़ौज यूक्रेन के क्षेत्र में दाख़िल हो गई। अमरीका और अन्य पश्चिमी देशों द्वारा रूस पर लगातार थोपी जा रही पाबंदियों के बावजूद रूसी फ़ौज का आगे बढ़ना जारी है। जंग के दूसरे दिन तक की ताज़ा जानकारी के मुताबिक़ रूसी फ़ौज यूक्रेन की राजधानी कीव के नज़दीक पहुँचने की ख़बर आ रही है। इससे पहले रूस यूक्रेन के भौगोलिक क्षेत्र में आने वाले डनबस क्षेत्र के लुहानस्क और डेनोटस्क के रूसी तरफ़दारी वाले राज्यों को आज़ाद लोक गणराज्य की मान्यता देकर अपने हक़ में कर चुका है।

इस ताज़ा घटनाक्रम की शुरुआत यूक्रेन के अमरीका के नेतृत्व वाले नाटो (उत्तर अटलांटिक समझौता संगठन) का हिस्सा बनने की बात से हुई। ‘नाटो’ 1949 में पूरी दुनिया में समाजवादी सोवियत यूनियन के असर को टक्कर देने के लिए अमरीकी साम्राज्यवाद की पहलक़दमी पर बना था, जिसमें कई देश शामिल हैं। रूस और अमरीकी साम्राज्यवाद में जारी टकराव के कारण यूक्रेन को नाटो का हिस्सा बनाकर अमरीका रूस की घेराबंदी करना चाहता है। इन दोनों साम्राज्यवादी ताक़तों की कलह का नतीजा यह जंग है।

रूस और अमरीका के टकराव की पृष्ठभूमि

इस घटनाक्रम को अच्छी तरह से समझने के लिए रूस-अमरीका मुक़ाबलेबाज़ी के इतिहास पर थोड़ी नज़र डाल लें। दरअसल दूसरी संसार जंग के बाद साम्राज्यवादी गिरोह का ताज अमरीका के सिर पर सजा। उस वक़्त दुनिया में सोवियत यूनियन के रूप में एक मज़बूत समाजवादी धड़ा भी स्थापित हो चुका था। दूसरी संसार जंग में ब्रिटेन, जापान, जर्मनी और अन्य साम्राज्यवादी ताक़तों की भयानक तबाही के बाद, साम्राज्यवादियों के बीच आपसी टकराव एक बार मद्धम पड़ गए और समाजवादी गुट और साम्राज्यवादी गुट के टकराव ने मुख्य स्थान ले लिया। लेकिन 1956 में सोवियत यूनियन में पूँजीवादी पुनर्स्थापना के बाद में सोवियत यूनियन एक सामाजिक साम्राज्यवादी ताक़त बन गया और एक बार फिर दो साम्राज्यवादी खेमों – अमरीकी और सोवियत साम्राज्यवादी गुटों के बीच प्रभाव क्षेत्रों और मंडियों को लेकर मुक़ाबलेबाज़ी एक बार फिर तीखी हो गई। 1991 में सोवियत यूनियन के बिखराव के साथ ही यह कलह एक बार ख़त्म हो गई और अमरीकी साम्राज्यवाद के सामने अब किसी तरह की कोई चुनौती नहीं बची थी। जर्मनी, जापान, इंग्लैंड जैसे साम्राज्यवादी देश भी अमरीका के पिछलग्गुओं की भूमिका ही निभाने लगे थे।

1991 में सोवियत यूनियन के टूटने के वक़्त रूस और अमरीका में समझौता हुआ था कि नाटो पूर्व की ओर विस्तार नहीं करेगा। लेकिन इसके उलट अमरीका द्वारा जुलाई 1997 में हंगरी, चेक गणराज्य और पॉलैंड को नाटो में शामिल होने का निमत्रंण भेजा गया और 1999 में ये देश बाक़ायदा नाटो के सदस्य बन गए। मार्च 2004 में सात अन्य पूर्वी और उत्तरी यूरोपिय देश नाटो में शामिल हो गए। ये देश थे : इस्तोनिया, लातविया, लिथुआनिया, स्लोवेनिया, स्लोवाकिया, बुलगारिया और रोमानिया। अप्रैल 2009 में करोशिया और अल्बानिया नाटो सदस्य बने। जॉर्जिया और यूक्रेन को भी नाटो सदस्य बनने का निमत्रंण दिया गया। अप्रैल 2008 में अमरीकी राष्ट्रपति जॉर्ज बुश ने जॉर्जिया और यूक्रेन को नाटो में शामिल करने की कोशिशें शुरू कर दीं, जिसे बराक ओबामा ने आगे बढ़ाया।

लेकिन 21वीं सदी में जैसे ही रूसी साम्राज्यवाद अपने अंदरूनी संकटों से थोड़ा उभरा, उसने एक बार फिर अंतरराष्ट्रीय मैदान में अमरीकी साम्राज्यवाद को ज़्यादा-से-ज़्यादा चुनौती देनी शुरू कर दी। फ़रवरी, 2007 में म्यूनिख़ में हुई सुरक्षा कॉन्फ्रे़स में रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन द्वारा दिए गए भाषण में अमरीकी प्रभुत्व का तीखे सुर में विरोध किया गया। पुतिन ने यहाँ यूरोप को नाटो के पूर्व की ओर प्रसार के ख़िलाफ़ चेतावनी दी और अमरीका द्वारा यूरोप में लगाए जा रहे मिसाइल यंत्रों के विरुद्ध वर्जित किया था। लेकिन अमरीका की अगुवाई वाले साम्राज्यवादी गुट द्वारा नाटो का पूर्व की ओर भौगोलिक प्रसार जारी रहा और इससे अमरीका ने रूस की घेराबंदी करनी जारी रखी। अगस्त 2008 में रूस ने अपनी ज़ुबानी चेतावनियों से आगे बढ़कर जॉर्जिया पर हमला करके रूसी तरफ़दारी वाले क्षेत्रों – दक्षिणी ओसेतिया और अबख़ाजिया को जॉर्जिया से अलग करके आज़ाद गणराज्य के रूप में मान्यता दे

दी। जिसका मक़सद जॉर्जिया को नाटो में शामिल होने से रोकना और रूस और नाटो देशों के दरमियान एक ‘बफ़र’ राज्य खड़ा करना था। उसके बाद ये दोनों साम्राज्यवादी देशों का आपसी मुक़ाबला फिर तीखा हो गया। कभी मध्य-पूर्व, कभी लातिनी अमरीका, कभी अफ़्रीका और कभी एशियाई देशों में क्षेत्रीय और छद्म जंगों के रूप में यह टकराव सामने आती रही है, या कभी एक-दूसरे पर आर्थिक पाबंदियों के रूप में। मिसाल के तौर पर सीरिया की जंग में भी असल में अमरीका और रूस भिड़ रहे थे, क्योंकि अमरीका बाग़ियों को मदद दे रहा था और रूस राष्ट्रपति असद की सरकार को।

रूसी-अमरीकी साम्राज्यवाद की कलह का अखाड़ा बना यूक्रेन

इन साम्राज्यवादी गुटों की इस बढ़ती मुक़ाबलेबाज़ी की नई युद्ध-भूमि अब यूक्रेन बन गया है, जिसकी नींव कई साल पहले तब रखी गई, जब अमरीका ने रूस की घेराबंदी करने के मक़सद से युद्धनीतिक भौगोलिक महत्व वाले यूक्रेन को नाटो में शामिल करने की कोशिशें शुरू कीं। साल 2009 में बराक ओबामा के अमरीकी राष्ट्रपति बनने के बाद तत्कालीन यूक्रेन के राष्ट्रपति विक्टोर यानूकोविच के साथ मुलाक़ात करके नाटो में शामिल होने की बात कही थी, जिसे यानूकोविच ने नकार दिया था। उस वक़्त अमरीका रूस की एकदम बग़ल में यूक्रेन के क्रीमिया में स्थित सोवियत दौर के सैन्य अड्डे सेवासतोपोल में अपना सैन्य अड्डा बनाकर रूस की घेराबंदी को मज़ूबत करना चाहता था। यूक्रेन, रूस और यूरोप के दरमियान एक पुल भी है, जो एक युद्धनीतिक महत्व रखता है। उसके बाद 2010 में फिर अमरीकी सचिव हिलेरी क्लिंटन यानूकोविच पर साझा सैन्य अभ्यास के लिए ज़ोर डालती है। लेकिन चूँकि यूक्रेन उस वक़्त अपने पड़ोसी रूस के साथ किसी तरह का कोई बैर नहीं मोल लेना चाहता था, और उस वक़्त की सरकार रूस की तरफ़दार थी, इस वजह से अमरीका को फिर कोरा इनक़ार मिलता है।

लेकिन अमरीका अपनी कोशिशें जारी रखता है। फ़रवरी 2014 में यूक्रेन की पश्चिम-परस्त ताक़तों ने अमरीकी शह और दख़लअंदाज़ी के बूते रूसी तरफ़दारी वाले राष्ट्रपति विक्टोर यानूकोविच को पद से हटा दिया। नई बनी सरकार का पश्चिम की ओर झुकाव था। पश्चिमी साम्राज्यवादी ताक़तों ने फ़रवरी 2014 के यूक्रेनी तख़्तापलट को यूक्रेनी “क्रांति” का नाम दिया, जबकि रूस ने इस नई पश्चिम परस्त सरकार को मान्यता नहीं दी। इस मामले में विक्टोरिया नूलंद, जो अमरीका की करीबी रही है, की फ़ोन रिकॉर्डिंग लीक हुईं हैं, जिसमें यूक्रेन के तख़्तापलट के ज़रिए अमरीका की कठपुतली हुकूमत बिठाने की सारी बातें साफ़ ज़ाहिर हो गईं। रूस-अमरीका की आपसी खींचतान में रूस ने उस वक़्त युद्धनीतिक महत्व वाले क्रीमिया पर क़ब्ज़ा करके अमरीका की कोशिशों पर पानी फेर दिया। क्रीमिया पर क़ब्ज़े ने रूस के काला सागर जंगी बेड़े की समस्या को भी हल कर दिया। यूक्रेन की नई अमरीकी तरफ़दारी वाली सरकार ने इसे क्रीमिया के सेवास्तोपोल शहर से हटाने की ठानी हुई थी। क्योंकि काले सागर में और कोई जगह नहीं थी, जहाँ रूस इस जंगी बेड़े का ठिकाना बना सकता था। क्योंकि अन्य जगहों पर सर्दियों में पानी जम जाता था। इस तरह क्रीमिया को अपने में मिलाकर रूस ने इस क्षेत्र में अपनी युद्धनीतिक पकड़ मज़बूत कर ली।

मौजूदा समय में यूक्रेन में फ़ौज दाख़िल करने से पहले रूस द्वारा लगातार अमरीका और पश्चिम के नाटो देशों को बक़ायदा लिखकर यूक्रेन को नाटो में शामिल ना करने की गारंटी देने के लिए कहा जाता रहा है। इसके लिए रूस ने अपनी भौगोलिक सुरक्षा का हवाला दिया था और यूक्रेन को एक “निष्पक्ष” राज्य रहने देने की अपील की थी। लेकिन अमरीका द्वारा अपने साम्राज्यवादी विस्तार की नीति के तहत रूस की इन अपीलों को लगातार नकारा गया और यूक्रेन को नाटो में शामिल करने की प्रक्रिया और तेज़ कर दी गई, जो इस जंग की फ़ौरी वजह बनी।

रूस की युद्धनीतिक घेराबंदी के अलावा इस क्षेत्र पर अपना दबाव बनाकर अमरीका रूस के साथ-साथ यूरोपीय यूनियन को भी एक हद तक अपने मातहत रखना चाहता था। क्योंकि यूरोपीय यूनियन के देशों की आर्थिक मज़बूती से, उनकी भी साम्राज्यवादी आकांक्षाएँ जाग रही थीं। एक हद तक अमरीका और यूरोपीय देशों के बीच भी टकराव आ रहा था। इस वजह से अमरीका रूस और यूरोप के बीच प्राकृतिक गैस की पाइपलाइन का भी विरोध करता रहा है। जो रूस से यूक्रेन से होती हुई जर्मनी जाती है। रूस की प्राकृतिक गैस पाइपलाइन चूँकि अमरीकी प्राकृतिक गैस, जो टैंकरों या जहाज़ों के ज़रिए यूरोप में जाती है, से सस्ती पड़ती है। इसलिए रूस से प्राकृतिक गैस लेने से यहाँ यूरोप में से अमरीका की मंडी हाथ से जाती है, वहीं यूरोप में अमरीका का असर घटता और रूस का असर बढ़ता है। जो कि अमरीका को बिल्कुल भी मंज़ूर नहीं है। रूस ने इस क्षेत्र में अपना दबाव बढ़ाने के लिए 11 अरब डॉलर की लागत से पिछले 5 सालों में नॉर्ड स्ट्रीम-2 का निर्माण किया है, जो समंदर में से गुज़रती पाइपों के ज़रिए

रूस से जर्मनी तक गैस पहुँचाएगी। अमरीका और यूक्रेन द्वारा इसका भी ज़ोरदार विरोध किया जा रहा है।

इस जंग का एक कारण यह भी रहा कि अमरीका जिस तरीक़े से यूक्रेन के मसले को निपटाना चाहता था, यूरोप के देशों का रवैया अमरीका से अलग था। अमरीका हर हालत में इस मामले को सुलझाने की बजाए और उलझाना चाहता था। अमरीका होने वाले रूसी हमले का हवाला देकर रूस पर आर्थिक पाबंदियाँ थोपने के लिए मजबूर कर रहा था। दूसरी ओर शुरू में जर्मनी और फ़्रांस जैसे देशों का रवैया इसमें से कोई कूटनीतिक तौर-तरीक़ों से हल निकालने का था, जो भले ही पूरा ना हो सका। रूस द्वारा घुसपैठ के बाद अब अमरीका से एकसुर होकर जर्मनी ने भी नॉर्ड स्ट्रीम-2 पाइपलाइन के प्रोजेक्ट को रोकने के हुक्म जारी कर दिए हैं। जिससे अमरीकी कोशिशें एक हद तक कामयाब होती दिख रही हैं।

इस जंग का एक बड़ा कारण यह है कि रूस और अमरीका दोनों अपने-अपने अंदरूनी संकटों से भी जूझ रहे हैं। पिछले लगभग तीन दशकों से अमरीकी अर्थव्यवस्था नीचे की ओर जा रही है। 1980 से शुरू हुई नवउदारीकरण की नीतियों के तहत उत्पादन क्षेत्र अमरीका और यूरोप से सस्ती श्रम शक्ति वाले क्षेत्रों की ओर तब्दील हो गए हैं। जिससे अमरीका की निर्भरता वित्तीय पूँजी पर दिन-ब-दिन और ज़्यादा बढ़ती जा रही है, जो इसके लिए विस्फोटक साबित होगी और हो भी रही है। साल 2007 में आए आर्थिक संकट ने भी अमरीकी अर्थव्यवस्था को बुरी तरह झकझोरकर रख दिया था। अमरीकी अर्थव्यवस्था क़र्ज़े में बुरी तरह डूबी हुई है। इसलिए अमरीकी अर्थव्यवस्था दिन-ब-दिन गिरती जा रही है। इसलिए अमरीका अपने रसूख़ और ताक़त को क़ायम रखने के लिए सैन्यकरण के अभियानों को किसी-ना-किसी कोने में चलाए रखता है। इसी तरह साल 2014 में रूस आर्थिक संकट से बुरी तरह झकझोरा हुआ था। रूस भी विश्व आर्थिक संकट के असरों से बचा हुआ नहीं है। पुतिन द्वारा रूस की साम्राज्यवादी आकांक्षाओं की नुमाइंदगी करते हुए संसार में रूसी साम्राज्यवाद का गुट मज़बूत करने की कोशिशें और तेज़ कर दी हैं। इन साम्राज्यवादी गुटों के घटिया मंसूबों का टकराव ऐसी नाजायज़ जंगों को जन्म दे रहा है। युद्ध इन साम्राज्यवादी देशों के लिए अपना वजूद बरक़रार रखने के लिए ज़रूरी शर्त बन गए हैं। केवल यूक्रेन ही नहीं बल्कि भविष्य में भी इन दोनों साम्राज्यवादियों का टकराव धरती के किसी-ना-किसी हिस्से में लोगों पर जंग थोपता रहेगा।

साम्राज्यवादी लूटेरों की इस नाजायज़ जंग का विरोध करो

इस नाजायज़ जंग ने यूक्रेन के आम लोगों को मौत के मुँह में फेंक दिया है। लाखों की गिनती में लोगों को अपना घर-बार छोड़कर दूसरे देशों की ओर जाना पड़ रहा है। पड़ोसी देशों की सरहदों पर लोगों की लंबी क़तारें देखी जा सकती हैं। यूक्रेन की धरती पर साम्राज्यवादी ताक़तों की इस नाजायज़ जंग ने मानवता के लिए संकट खड़ा कर दिया है। इससे पहले भी इन साम्राज्यवादी गुटों की आपसी लड़ाई में मासूम लोग और देश पिसते आए हैं। मध्य पूर्व, लातिन अमरीका, अफ़्रीका आदि साम्राज्यवादी लूट-दमन का सित्म सहते रहे हैं और आज भी सह रहे हैं। इसके अलावा बस जंग वाले क्षेत्र के ही नहीं बल्कि इससे पूरी दुनिया के आम लोग इस घटना से प्रभावित होंगे। जंग शुरू होने के बाद और पश्चिम द्वारा रूस पर थोपी गई आर्थिक पाबंदियों से कच्चे तेल, गैस आदि की क़ीमतें बहुत अधिक बढ़ गई हैं। जिससे स्वाभाविक ही खाने-पीने की ज़रूरी वस्तुएँ भी महँगी होंगी, आम लोगों का गुज़ारा और ज़्यादा बदतर होगा। जबकि इन साम्राज्यवादी युद्धों को अंजाम देने वाले शासकों या उनके पीछे खड़े पूँजीपतियों के लिए यह मोटी कमाई करने का “मौक़ा” बनेगा।

लेकिन लाज़िमी ही हमें यूक्रेन में हो रही इस नाजायज़ जंग का विरोध करना चाहिए। इस समय जंग का विरोध करने वाला कुछ हिस्सा कहीं-ना-कहीं रूस का विरोध करता-करता अमरीकी प्रचार का शिकार हो जाता है। लेकिन यह ग़ौरतलब है कि लाज़िमी ही जंग का विरोध करना चाहिए, लेकिन इसका मतलब किसी एक साम्राज्यवादी गुट का पक्ष लेना नहीं होना चाहिए। इस समय पर अमरीका ख़ुद और उसका पिट्ठू मीडिया अमरीका और नाटो को “शांति दूत” बनाकर पेश कर रहा है, जबकि रूसी घुसपैठ को यूक्रेन की “आज़ादी” और “एकता-अखंडता” पर हमला कह रहा है। इस समय संसार मीडिया बेशर्म होकर अमरीकी नेतृत्व वाले नाटो गुट का पक्ष ले रहा है। जबकि अमरीका का ख़ुद का इतिहास दूसरे देशों में “जनवाद की बहाली” और “आतंकवाद के ख़ात्मे” के नाम पर घुसपैठ करने, तख़्तापलट करने, वहाँ की धन-दौलत को लूटने, इंसानियत का क़त्ल करने का इतिहास रहा है। केवल 1945 से 1989 तक अमरीका पूरी दुनिया में 300 से अधिक युद्धों में शरीक़ हो चुका है। दूसरी संसार जंग के बाद 30 देशों में सीधी घुसपैठ कर चुका है और दर्जनों जगहों पर चुनी हुई सरकारों का तख़्ता पलटकर अपनी कठपुतली सरकारें बनाई हैं। यह अमरीका आज जनवाद की दुहाई देकर रूस के ख़िलाफ़ बोलता

है। लाहनत है! दूसरी ओर रूसी तरफ़दारी वाला मीडिया अपने साम्राज्यवादी गुट के हित की बात कर रहा है। लेकिन यूक्रेन के आम लोगों की वास्तविक चिंता पूरे मंज़र से ग़ायब है।

हो सकता है कि आने वाले दिनों में यूक्रेन से रूस का जंगबंदी को लेकर कोई समझौता हो जाए और कूटनीतिक तौर पर मसले का हल हो जाए। लेकिन यह समझौता बहुत देर चलने वाला नहीं हो सकता। क्योंकि साम्राज्यवाद इजारेदारियों का दौर है, जिसमें साम्राज्यवादियों के बीच आपसी मुक़ाबला ख़त्म नहीं, बल्कि और ज़्यादा हिंसक हो जाता है, तीखस हो जाता है और रूस के महान क्रांतिकारी लेनिन ने ठीक ही कहा है कि “साम्राज्यवाद का लाज़िमी लक्षण प्रभुत्व के लिए, यानी इलाक़े को जीतने के लिए बड़ी ताक़तों के बीच मुक़ाबला है, इतना सीधी तरह ख़ुद के लिए नहीं, जितना कि विरोधियों को कमज़ोर करने के लिए और उसके प्रभुत्व को नुक़सान पहुँचाने के लिए।” इसलिए यदि इन साम्राज्यवादियों के बीच कोई समझौता होगा भी तो वह चिरस्थाई नहीं हो सकता। क्योंकि जब तक उत्पादन के साधनों की निजी मालि‍की पर आधारित आर्थिक-सामाजिक व्यवस्था मौजूद रहेगी, तब तक साम्राज्यवादी ताक़तों के बीच टकराव रहेगा, जो लाज़िमी ही ऐसी नाजायज़ जंगों को जन्म देता रहेगा। इसलिए साम्राज्यवादी जंगों का मुक़म्मल ख़ात्मा इस पूँजीवादी-साम्राज्यवादी व्यवस्था के ख़ात्मे और समाजवादी व्यवस्था की स्थापति से ही संभव है।

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