गांधी या भगत सिंह पर कुछ भी लिखूँ लेकिन एक सवाल से बार-बार सामना होता है. मित्र पूछते हैं कि क्या गांधी या कांग्रेस ने भगत सिंह को जानबूझकर नहीं बचाया? कई बार सवाल तो एक लाइन का होता है लेकिन जवाब एक लाइन का नहीं होता. थोड़ा जटिल और थोड़ा विस्तृत होता है, ठीक वैसा ही जैसी परिस्थिति 1930-31 में बनी हुई थी. विस्तार में जाएँ तो बात लंबी होगी सो कोशिश है छोटे में समेटा जाए.
भगत जहां सशस्त्र क्रांति से समाजवादी शासन चाहते थे वहीं गांधी अहिंसा के ज़रिए स्वराज लाने के इच्छुक थे. दोनों की सोच में मूलभूत फ़र्क़ तो यहीं था, बावजूद इसके ना तो भगत और उनका संगठन गांधी की हत्या करना चाहते थे और ना कभी गांधी ने किसी की हत्या कामना की. गांधी अपने विचार पर इतने दृढ़ थे कि मदनलाल ढींगरा का मामला हो, वायसराय की ट्रेन उड़ाने का मसला हो या सांडर्स की हत्या का वो हमेशा ऐसे कृत्यों की निंदा करते रहे. उन्होंने अपना ये स्टैंड कभी नहीं बदला. तो ये साफ़ है कि दोनों के विचार में अंतर था लेकिन वो एक दूसरे के दुश्मन कभी नहीं थे. यहाँ भी भी बता दूँ कि आप संपूर्ण गांधी वांग्मय पढ़ेंगे तो पाएँगे कि भगत सिंह के मामले में अंत आते आते गांधी थोड़ा सहृदय होते चले गए. ऐसा उनकी नरम होती टिप्पणियों से पता चलता है.
ये भी अहम बात है कि भगत सिंह ने असेंबली में बम फेंका तो ख़ुद ही सरेंडर किया. वो जानते थे कि सज़ा होगी. उनका ये कृत्य AUGUST VAILLANT नाम के फ्रैंच क्रांतिकारी से प्रेरित था. उसने भी 1893 में चेंबर ऑफ डेप्युटीज़ में धमाके किए और अगले साल फाँसी का फंदा चूमा.1929 में यही कारनामा दोहराते हुए भगत जानते थे कि अब लौटना नहीं है. वो चाहते भी यही थे कि मुक़दमा लंबा खिंचे ताकि वो क्रांतिकारियों की बात अदालत में कहते रहें, मीडिया रिपोर्ट करता रहे, जनता अख़बार पढ़कर जान सके कि क्रांतिकारी क्यों लड़ रहे हैं. केस में उन्होंने वकील लेने से साफ़ इनकार कर दिया जबकि उनके साथी बीके दत्त का मुक़दमा कांग्रेस नेता आसफ़ अली ने लड़ा. दोनों में से कोई सज़ा से मुक्ति नहीं चाहता था. नतीजतन उम्र क़ैद मिली. उस वक़्त क्रांतिकारियों के सामने भारी चैलेंज रहता था कि लोगों तक अपनी बात कैसे पहुँचाई जाए. भगत को उनके संगठन HSRA की तरफ़ से प्रचार का ज़िम्मा मिला था सो उन्होंने वो ऐसे निभाया. यदि भगत माफ़ी माँगते तो जनता में संगठन और उनकी छवि क्या बनती ये आप सोच सकते हैं इसलिए वो ख़ुद भी चाहते थे कि केस पूरे चले और सज़ा हो.
अब कहानी में ट्विस्ट आया.
असेंबली कांड से 4 महीने पहले भगत सिंह ने लाहौर में सांडर्स की हत्या की थी. पुलिस को तब तक कोई सुराग हाथ नहीं लगा था लेकिन भगत के दो साथियों ने उनके ख़िलाफ़ अब गवाही दे दी थी. परिणाम ये हुआ कि भगत सिंह पर अब सांडर्स वाला केस चलने लगा. इस दौरान सेंट्रल एसेंबली में जिन्ना से लेकर मोतीलाल नेहरू जैसे कांग्रेसी नेता तक भगत सिंह और उनके साथियों के हक़ में आवाज़ उठाते रहे. पंजाब की एसेंबली से दो कांग्रेस मेंबरों ने इस्तीफ़ा भी दे दिया. लाहौर वाले मुक़दमे में भगत और उनके साथियों की पैरवी में कांग्रेस नेता और लाला लाजपत राय के शिष्य गोपीचंद भार्गव समेत कई लोग आगे आए. जेल में उनसे मिलने जवाहरलाल नेहरू, नेताजी सुभाष, मोतीलाल नेहरू, रफ़ी अहमद किदवई जैसे बड़े नेता जाने लगे. अब तक मीडिया में मुक़दमा बड़ा बना हुआ था लेकिन राष्ट्रीय नेताओं की दिलचस्पी ने इसका महत्व और बढ़ा दिया. इस बीच क्रांतिकारियों की भूख हड़ताल ने भी देश को झकझोर दिया था. अंग्रेज़ सरकार ने एकतरफा मुक़दमा चलाया जिसे भगत सिंह ने ढकोसला बताते हुए सुनवाई में व्यवधान पैदा किए. उनको मारा पीटा गया लेकिन वो कोर्ट में अधिकतर बार नहीं आए. आख़िरकार सरकार ने फाँसी की सज़ा सुना दी.
यहाँ से लोगों में मायूसी और भगत की फाँसी टलवाने की कोशिशें शुरू होती हैं. बहुत से लोग इस पर बहुत कुछ लिख चुके. आगे मैं जो लिखूँगा वो इतिहासकार अशोक कुमार पांडेय, बी एन दत्ता, यशपाल, नेताजी सुभाष, नेहरू, भारत सरकार के पास उपलब्ध रिपोर्ट्स, भगत के ख़तों और उनके साथियों के लेखों के आधार पर लिखने जा रहा हूँ.
उस दौर में गांधी और तब के वायसराय इरविन के बीच मुलाक़ातें जारी थीं. सरकार चाहती थी कि देश में जो तनातनी का माहौल कांग्रेस ने बना रखा है उसे थोड़ा थामा जाए. बहुत से राजनीतिक कार्यकर्ता जेलों में ठूँसें जा चुके थे. तब के वायसराय इरविन और गांधी किसी समझौते तक पहुँचने की कोशिश कर रहे थे. लोग कहते हैं कि यही मौका था कि गांधी को भगत की फांसी रुकवाने की शर्त रख देनी चाहिए थी.ऐसे लोग ना इतिहास से वाक़िफ़ हैं और ना इरविन की सीमाओं से. अब जल्दी जल्दी से उसकी बात कर लेते हैं.
असहयोग आंदोलन में पुलिस ने बहुत सारे कांग्रेसी कार्यकर्ताओं को पीटा था. नृशंसता की हद ये थी कि न्यूयॉर्क टेलिग्राम के रिपोर्टर वेब मिलर ने माना कि अपनी 22 देशों में 18 साल की रिपोर्टिंग के दौरान ऐसी क्रूरता उन्होंने नहीं देखी थी. गांधी चाहते थे कि जो समझौता होने जा रहा है उसमें इरविन ये भी जोड़ दें कि कांग्रेसियों और आम लोगों पर जो बर्बरता हुई है उसमें एक कमीशन पुलिस के रोल की जाँच करे. इस पर बंबई के गवर्नर साइक्स समेत 7 गवर्नरों ने वायसराय को इस्तीफ़े की धमकी दे दी. इरविन ने गांधी को इनकार कर दिया.
अब बात भगत सिंह की फाँसी पर. पंजाब की ब्रिटिश पुलिस अपने दो सहयोगियों को खोने के बाद तमतमाई हुई थी. इसी संगठन ने उसके अगले साल इरविन की ट्रेन उड़ाने की कोशिश की थी. इसके बाद पंजाब के गवर्नर पर हमला हो गया. पुलिस अफ़सरों पर तो हमले होने ही लगे थे. उस वक़्त की ख़ुफ़िया रिपोर्ट्स इसकी गवाह हैं. सब भारत सरकार के अभिलेख पोर्टल पर पड़ी हैं और मैंने स्रोत ठीक रहे उसके लिए पढ़ी हैं. बड़ी मुश्किल से पंजाब पुलिस को सांडर्स के हत्यारों का पता चला था और अब वो किसी क़ीमत पर उन्हें बख्शना नहीं चाहते थे. इरविन पर पंजाब पुलिस के अफ़सरों ने कितना प्रेशर बनाया इसका ज़िक्र कम से कम दो जगहों पर तो है ही. जगह होती तो और भी सबूत देता. एक तो इरविन के करीबी लंदन के न्यूज़ क्रॉनिकल के रिपोर्टर बर्नेस थे, वो भारत में मौजूद थे. उन्होंने लिखा कि वायसराय अगर फाँसी माफ़ कर देते तो संभव था कि पंजाब का हर पुलिस प्रमुख इस्तीफ़ा दे देता. 22 मार्च 1931 के द पीपल में छपा था कि- पंजाब के कुछ अधिकारी इरविन पर भगत को फाँसी देने का दबाव बना रहे हैं. कुछ ने इस्तीफ़े तक की धमकी दी है.
इरविन की हालत ख़राब थी. लंदन में बैठे पीएम का भरोसा तो उन्हें प्राप्त था लेकिन उसी पार्टी के चर्चिल, बर्कनहेड जैसे नेता उनके प्रदर्शन पर नज़र रखे हुए थे. वो गांधी और दूसरे बड़े नेताओं को रिहा करने पर नाखुश थे. ऐसे में भगत की फाँसी माफ़ करना एफ़ोर्ड कर ही नहीं सकते थे. काफ़ी बातें तो उन्होंने अपनी आत्मकथा में भी लिखी हैं. आख़िरकार 23 मार्च को गांधी ने उन्हें अंतिम ख़त लिखा. उसका फ़ोटो दे रहा हूँ. गांधी ने जो लिखा उसका सार यही था कि शांति के हित में आख़िरी अपील कर रहा हूँ. आपने हालाँकि फाँसी माफ़ करने से इनकार कर दिया है लेकिन सही हो चाहे ग़लत लोग रियायत चाहते हैं. जब कोई सिद्धांत दांव पर ना लगा हो तो लोगों की बात मान लेनी चाहिए. यदि मौत की सज़ा दी गई तो शांति ख़तरे में पड़ जाएगी. क्रांतिकारी दल ने मुझे आश्वासन दिया है कि फांसी माफ़ हो गई तो वो लोग भविष्य में ऐसी घटना भी नहीं करेंगे. आगे गांधी ने कहा कि मौत की सज़ा पर अमल हो गया तो वापस नहीं ली जा सकेगी इसलिए आगे विचार करने के लिए फ़िलहाल तो टाल ही दें. वो ये भी कहते हैं कि इस बारे में बातचीत के लिए आप बुलाएँगे तो आ भी जाऊँगा क्योंकि वो कराची में कांग्रेस अधिवेशन के लिए निकल रहे थे. आख़िर में इरविन के धार्मिक रुझान को जानते हुए उनकी संवेदनशीलता जगाने के लिए बाइबिल से एक लाइन भी उद्धृत करते हैं- दया कभी निष्फल नहीं जाती.
इरविन नहीं माने. फाँसी 24 मार्च को होनी थी लेकिन नेताओं और जनता में जैसा आक्रोश था उसे देखकर एक दिन पहले ही दे दी. सच तो ये है कि जब ये ख़त लिखा जा रहा था उसी समय सबसे छिपाकर फाँसी दी जा रही थी क्योंकि वो किसी भी क़ीमत पर टाली ही नहीं जानी थी. यहाँ तक कि इरविन ने अपनी आत्मकथा में लिखा है जब गांधी ने कहा था कि उन्हें डर है यदि भगत के मृत्युदंड पर मैंने कुछ नहीं किया तो समझौता टूट सकता है. मैंने कहा इसका दुख मुझे भी होगा लेकिन मेरे लिए यह बिल्कुल असंभव है कि भगत सिंह के मृत्युदंड के मामले में कोई छूट दे सकूँ.
ये भी याद रखा जाना चाहिए कि अंग्रेज़ इस मामले को हत्या की तरह देखते थे ना कि कोई राजनीतिक कृत्य. गांधी भी मानवता के नाते ही कोशिशें कर रहे थे. यहाँ तक कि अब तक असेंबली कांड पर बोल रहे जिन्ना हत्या के मामले में चुप रहे. टैगोर चुप थे. आंबेडकर ख़ामोश थे. संघ नेताओं या सावरकर का भी कोई प्रयास अब तक पता नहीं. कुल मिलाकर चौतरफ़ा चुप्पी थी. हत्या का बचाव करना और मुश्किल इसलिए हो रहा था क्योंकि भगत अपना बचाव ख़ुद नहीं करना चाहते थे. उनके अपने साथियों ने सरकारी गवाह बनकर जो ग़द्दारी की वो अलग. भगत सिंह माफ़ी भी माँगने को राज़ी नहीं थे और ना किसी और को माँगते देखना चाहते थे. वो बार बार कह रहे थे कि उनका फाँसी पर चढ़ जाना ही ठीक है. यहाँ तक कि जब उनके पिता किशन सिंह ने डिफ़ेंस कमेटी बनाकर ट्रिब्यूनल के सामने भगत का बचाव करना चाहा तो वो नाराज़ हुए. उन्हें सख़्त ख़त लिखा. इसके उलट भगत ने सरकार से कहा कि फाँसी लगाने के बजाय उन लोगों को गोली मार दी जाए क्योंकि वो युद्धबंदी हैं.
ये सच है कि गांधी ने कहा था कि यदि सरकार फाँसी देने पर उतारू ही है तो कराची में शुरू होने जा रहे कांग्रेस अधिवेशन से पहले दे दे. ऐसा उन्होंने इसलिए कहा क्योंकि वो फाँसी माफ़ कराना चाहते थे लेकिन इरविन बस इतनी छूट देने को राज़ी थे कि कांग्रेस का अधिवेशन आराम से निपटा लीजिए. गांधी इसे निर्ममता मान रहे थे क्योंकि फाँसी में देरी से सबको आस बंधती कि शायद सज़ा बदली जा रही है. गांधी ये भी चाहते थे कि साल में एक बार होनेवाले कांग्रेस अधिवेशन से पहले ही यदि पता चल जाए कि फाँसी दी जा रही है तो कम से कम उस आयोजन में ही इस पर बात हो और आगे की रणनीति बने. ऐसे में दो चार दिन के लिए फाँसी रोके जाने का कोई तुक नहीं था. भगत सिंह के साथी रहे चमनलाल ने कराची जा रहे गांधी के साथ ट्रेन में सफ़र किया था. पूरे रास्ते वो गांधी का अपमान करते रहे. गांधी बस सुनते रहे. चमनलाल ने बाद में अपने संस्मरण में लिखा कि गांधी ने कहा- मैंने वो सब कुछ किया जो कर सकता था लेकिन पंजाब से पड़नेवाले दबाव के चलते इरविन मजबूर थे.
कराची अधिवेशन में भी गांधी ने भगत सिंह के तौर तरीक़ों के असहमति जताई लेकिन बहादुरी की तारीफ़ की. कराची के रास्ते में कुछ नौजवानों ने उनका विरोध किया वो भी चुपचाप झेला. कराची अधिवेशन में भगत के संदर्भ में बोलते हुए गांधी ने कहा था- ‘आपको जानना चाहिए कि खूनी को, चोर को, डाकू को भी सजा देना मेरे धर्म के विरुद्ध है। इसलिए इस शक की तो कोई वजह ही नहीं हो सकती कि मैं भगत सिंह को बचाना नहीं चाहता था।’ इस सभा में नौजवान भारत सभा के सदस्य भी बड़ी संख्या में मौजूद थे. चमनलाल जो नौजवान भारत सभा के सचिव भी थे, वे तो गांधी के अन्यतम सहयोगियों में से ही थे और वहां भी उनके साथ ही थे. इतने संवेदनशील और भावुक माहौल में भी गांधी पूरे होश में और पूरी करुणा से अपनी बात रख रहे थे। तभी किसी ने चिल्लाकर पूछा- ‘आपने भगत सिंह को बचाने के लिए किया क्या?’
इस पर गांधी ने जवाब दिया- ‘मैं यहां अपना बचाव करने के लिए नहीं बैठा था, इसलिए मैंने आपको विस्तार से यह नहीं बताया कि भगत सिंह और उनके साथियों को बचाने के लिए मैंने क्या-क्या किया. मैं वाइसराय को जिस तरह समझा सकता था, उस तरह से मैंने समझाया. समझाने की जितनी शक्ति मुझमें थी, सब मैंने उन पर आजमा देखी. भगत सिंह की परिवारवालों के साथ निश्चित आखिरी मुलाकात के दिन यानी 23 मार्च को सवेरे मैंने वायसराय को एक खानगी (अनौपचारिक) खत लिखा. उसमें मैंने अपनी सारी आत्मा उड़ेल दी थी. पर सब बेकार हुआ।’ ये भी याद रहे कि इस अधिवेशन में ख़ुद भगत सिंह के पिता किशन सिंह ने भी हिस्सा लिया. ये भी ध्यान रहे कि डॉ नारायणराव सावरकर तक ने वैचारिक असहमति के बावजूद गांधी से अपील की थी कि उनके दोनों भाइयों की सज़ा में रियायत करा दें. गांधी ने ऐसा किया भी. विक्रम संपत की किताब ‘सावरकर’ कहती है कि 26 मई 1920 में गांधी ने यंग इंडिया में ‘सावरकर बंधु’ नाम से लेख लिखा. बाबाराव सावरकर के घर-परिवार का हवाला देकर गांधी ने लिखा कि उन्होंने कोई हिंसा नहीं की. विनायक सावरकर के लिए लिखा कि लंदन में उनका शानदार करियर रहा है और उन पर हिंसक गतिविधि का कोई आरोप साबित नहीं होता है. गांधी अपने लेख में सावरकर भाइयों की याचिका को ही आधार बनाकर ब्रिटिश सरकार से उन पर भरोसा करने के लिए कह रहे थे. सरकार तुरंत तो नहीं मानी लेकिन फिर साल भर में दोनों सावरकर भाइयों को काला पानी से भारत शिफ़्ट कर दिया गया. अपने धुर विरोधियों तक के लिए उदार गांधी पर आरोप लगाना कि उन्होंने जानबूझकर भगत सिंह को मरने दिया दरअसल अज्ञानता तो है ही लेकिन यदि कोई इतनी जानकारियों के बावजूद अड़ा रहे तो यही मानिए कि केवल नीचता भरी ज़िद है.