वैश्विक अर्थव्यवस्था की मौजूदा हालत दुनिया-भर की जनता में चर्चा का विषय बनी हुई है। तेज़ी से फैल रही बेरोज़गारी, वेतन में कटौती, जनता की सुविधाओं के दायरे का सिकुड़ते जाना, तेज़ी से हो रहा निजीकरण, महँगाई का तेज़ी से बढ़ना आदि जैसी विभिन्न प्रकार की समस्याएँ हैं जो दुनियाभर की मेहनतकश जनता के आगे मुँह बाए खड़ी हैं। इन समस्याओं से पैदा हो रहा रोष अलग-अलग रूपों में प्रकट हो रहा है और प्रतिदिन दुनिया के अलग-अलग कोनो में मज़दूरों, मेहनतकशों द्वारा अपने अधिकारों के लिए सड़कों पर आने की घटनाएँ तेज़ हो रही हैं, चाहे वह कजाकिस्तान में जनता का संघर्ष हो या पोलैंड और तुर्की के मज़दूरों की हड़तालें और या फिर भारत में मेहनतकश जनता के विभिन्न संघर्ष, जिनमें शीर्ष की जगह कृषि क़ानूनों के ख़िलाफ़ चले संघर्ष की रही है। मज़दूरों-मेहनतकशों के हितों के लिए लड़ने वालों के लिए ज़रूर ही यह एक शुभ संकेत हैं। पूँजीपतियों और उनकी सेवक सरकारों के लिए अगर ये संघर्ष बड़ी सिरदर्दी का कारण बनते जा रहे हैं, वहीं दूसरे हाथ पूँजीपतियों की लगातार घटती मुनाफ़े की दर, क़र्ज़ और महँगाई में बढ़ोतरी आदि भी इनकी बेचैनी में चौगुना इज़ाफ़ा कर रहे हैं। इस डर और बेचैनी में यहाँ एक तरफ़ सरकारें अपने शासकों का मुनाफ़ा बढ़ाने के लिए निजीकरण, श्रम क़ानूनों में संशोधन कर रही हैं, वहीं दूसरी तरफ़ इनसे पैदा होने वाले जनता के विरोध को दबाने के लिए दमन के हथियारों, जैसे फ़ौज, पुलिस, जासूसी तंत्र, क़ानून आदि को ज़्यादा तीखा करने पर आमादा हैं। पूरी दुनिया में बढ़ रहा निजीकरण, उदारीकरण आदि और सत्ता में आ रहीं दक्षिणपंथी ताक़तों की कड़ियाँ भी एक-दूसरे से जुड़ती हैं। इस लेख में आर्थिक संकट की पूरी प्रक्रिया या किसी एक विशेष अर्थव्यवस्था में आर्थिक संकट का विवरण करने की बजाय विश्व अर्थव्यवस्था गिरने के कुछ ख़ास लक्षणों की ही बात की जाएगी।
विश्व अर्थव्यवस्था पर बढ़ता क़र्ज़
2020 में कोरोना समय में यहाँ एक तरफ़ सरकारों ने जनता पर पाबंदियाँ लगाईं, वहीं दूसरी तरफ़ पूँजीपतियों के मुनाफ़े को बढ़ाने के लिए उन्हें कम दरों पर क़र्ज़ मुहैया करवाया गया और साथ ही ख़ुद क़र्ज़ उठाकर उन्हें अरबों डॉलर की सब्सिडियाँ दी गईं। नतीजा 2020 में एक साल के अंदर क़र्ज़ में जितनी बढ़ोतरी दर्ज की गई उतनी दूसरे विश्व युद्ध के समय के बाद किसी भी साल नहीं की गई। 2020 के अंत तक विश्व अर्थव्यवस्था पर कुल क़र्ज़ 226 खरब डॉलर तक पहुँच चुका था, जोकि दुनिया के कुल उतपादन का 256 प्रतिशत बनता है। इसका मतलब यह है कि 2020 के अंत तक विश्व अर्थव्यवस्था पर कुल क़र्ज़ दूनिया के कुल उतपादन के 2.5 गुणा से भी बढ़ गया था। फ़रवरी 2022 की शुरुआत में विश्व अर्थव्य्वस्था पर कुल क़र्ज़ 281 खरब डॉलर के आँकड़े को छू चुका था और हाल ही में इसके नीचे आने की कोई उम्मीद नज़र नहीं आ रही है। कई बड़े कारपोरेट घराने और कुल मिलाकर विश्व अर्थव्यवस्था क़र्ज़ की बैसाखी के सहारे ही खड़ी है। असल में कहना हो तो यह इसके सहारे खड़ी नहीं, बल्कि लड़खड़ा रही है। बिना अथाह क़र्ज़ के काफ़ी पहले ही अार्थिक संकट फुट हो चुका होता। विश्व स्तर पर मुनाफ़े की दर इतनी गिर गई है कि ज़्यादा क़र्ज़ लिए बिना इसका चलना नामुमकिन हो चुका है। पर यह क़र्ज़ लेने की प्रक्रिया भी अनंत नहीं चल सकती, लिया हुआ क़र्ज़ आख़िरकार वापस करना ही पड़ता है और असल उत्पादन के क्षेत्र में मुनाफ़े की कमी के कारण क़र्ज़ वापस करने में पहले ही समस्या आ रही थी, ऊपर से बढ़ती महँगाई के कारण कई बड़े देशों के केंद्रीय बैंकों ने 2022 में ब्याज़ दरें बढ़ाने का ऐलान कर दिया है, जिससे इस क़र्ज़ की किश्तों की अदायगी और भी ज़्यादा कठिन होगी। क़र्ज़ का दिन-रात विस्तार आने वाले समय में अनिवार्य ही आर्थिक संकट के ज़्यादा व्यापक गहराने का एक अहम कारण बनेगा।
विश्व अर्थव्यवस्था का बुलबुला
और महँगाई
जैसे पहले भी संग्राम के बहुत से लेखों में लिखा गया है कि पूँजीवाद में आर्थिक संकट का बुनियादी कारण मुनाफ़े की गिरती हुई दर है या कह लीजिए कि पूँजीवादी अर्थव्यवस्था का संकट बुनियादी रूप में मुनाफे़ का संकट है। बढ़ते क़र्ज़ के साथ-साथ मुनाफ़े की गिरावट ने आजकल विश्व अर्थव्यवस्था के लिए जो जुड़वाँ समस्याएँ पैदा की हैं, वे हैं – विश्व अर्थव्यवस्था का बुलबुला और महँगाई। असल में जब उत्पादन के क्षेत्र में ज़्यादा मुनाफ़े सिकुड़ जाते है, तो पूँजीपति ज़्यादा मुनाफ़ा कमाने के लिए सट्टेबाज़ी की तरफ़ मुड़ते हैं। उत्पादन के क्षेत्र में ज़्यादा निवेश करने की जगह शेयर बाज़ार आदि के द्वारा तुरंत मुनाफ़ा कमाने को पहल दी जाती है। अब कोरोना के समय में अलग-अलग देशों की सरकारें और बैंकों ने पूँजीपतियों को जो सस्ती दरों पर क़र्ज़ उपलब्ध कराया, उसे इन पूँजीपतियों ने मुख्य तौर पर उत्पादन बढ़ाने की जगह सट्टा बाज़ार में अपने या दूसरी कंपनियों के शेयर ख़रीदने में लगाया, जिससे इन कंपनियों के शेयरों की माँग बढ़ने के साथ इनके शेयरों की क़ीमतें बढ़ीं और इन कंपनियों की कुल क़ीमतें भी बढ़ीं। क्योंकि कुछ भी उल्लेखनीय निवेश उत्पादन के क्षेत्र में नहीं हुआ, इस वजह से इन कंपनियों की क़ीमत और इनके शेयरों की क़ीमत बढ़ जाना एक बुलबुला ही है यानी असल उत्पादन से इसका कोई संबंध नहीं है। इन कंपनियों को उन लोगों को, जिनके पास इनके शेयर होते हैं, को अपने मुनाफ़ों से भुगतान करना होता है और यह भुगतान अंतिम रूप में असल उत्पादन से अर्जित किए मुनाफ़ों से ही हो सकता है। असल में किसी कंपनी के शेयर ख़रीदने का मतलब ही उसके मुनाफ़े में हिस्सा (शेयर) है। मुनाफ़ों की कमी के कारण और उत्पादन में निवेश ना करने के कारण जब यह भुगतान संभव नहीं रहता फिर या तो कंपनियों का यह बुलबुला फूट जाता है (शेयरधारक जल्दी-जल्दी इन शेयरों को बेचने की कोशिश करते हैं, जिससे शेयरों और कंपनी की क़ीमत और नीचे आ जाती है) और या फिर बैंकों, सरकार से ज़्यादा क़र्ज़ हासिल करके इस बुलबुले को और ज़्यादा फुलाया जाता है। कोरोना के समय से यही बुलबुला ज़्यादा-से-ज़्यादा फुलाया जाता रहा है, पर यह पूँजीवादी अर्थव्यवस्था का तर्क है कि जितना बड़ा बुलबुला होगा, उतना ही बड़ा इसका फटना होगा और उतना ही गंभीर आर्थिक संकट का विस्फोट।
इस समय महँगाई जो पूरे विश्व-भर में तेज़ी से बढ़ रही है, उसकी कड़ियाँ भी मुनाफ़े के सिकुड़ने के साथ जुड़ी हुई हैं। कोरोना समय में जहाँ मेहनतकशों को भूख से लड़ना पड़ रहा था, वहीं दूसरी तरफ़ उच्च और मध्यम मध्यवर्ग (ख़ासतौर पर निश्चित आमदनी वाले) और पूँजीपतियों के पास बाज़ार बंद रहने के कारण पैसा इकट्ठा हो रहा था। कोरोना की पाबंदियाँ ख़त्म होने के बाद मध्यवर्ग और पूँजीपतियों का इकट्ठा हुआ पैसा वस्तु सेवाओं के लिए इकट्ठा हुई माँग के तौर पर सामने आया। साथ ही कोरोना पाबंदियाँ ख़त्म या ढीली होने के बाद उत्पादन फिर से शुरू होने लगा तो मशीनें, कच्चे माल आदि के लिए भी बाज़ार में माँग बढ़ी। पर चूँकि उत्पादन के क्षेत्र में मुनाफ़े की दर नीचे होने के कारण पूँजीपतियों ने सस्ती दरों पर क़र्ज़ लिया और सब्सिडियों को उत्पादन बढ़ाने की जगह सट्टेबाजी के लिए इस्तेमाल किया था। इसलिए बाज़ार में पैदा हुई वस्तुएँ, सेवाएँ, मशीनें, कच्चे माल आदि की माँग से पूर्ति काफ़ी नीचे रह गई और अभी तक है, जिसके साथ क़ीमतों में बड़ा उछाल आया। यह महँगाई का एक बड़ा कारण है। महँगाई का दूसरा कारण है, कोरोना समय में विभिन्न देशों की सरकारें और केंद्रीय बैंकों की तरफ़ से मुद्रा की पूर्ति बढ़ाना, जिसके पीछे कारण भी ब्याज़ दरों को नीचे रखकर सस्ता क़र्ज़ पूँजीपतियों के लिए उपलब्ध कराना था। मुद्रा की पूर्ति में जो बढ़ोतरी हुई है, उसने मेहनतकश जनता का ख़ून निचोड़कर रख दिया है। ऊपर से कोरोना के बाद पक्के रोज़गार और वेतन में भी बड़ी कटौती हुई है, जिससे आम जनता ज़्यादा भयंकर हालातों में धकेली गई है।
और ज़्यादा खस्ताहाल हुई विश्व पूँजीवादी व्यवस्था
अब विश्वभर की सरकारों के पास दो विकल्प हैं। पहला यह कि वे ब्याज़ की दरें कम रखें और महँगाई में हो रही बढ़ोतरी का शिकंजा कसने के लिए कोई क़दम न उठाएँ। इससे महँगाई में बढ़ोतरी जारी रहेगी और आम जनता के हालात ज़्यादा बुरे होंगे। नतीजतन सरकारों को उनके ग़ुस्से का कभी-न-कभी सामना करना पड़ेगा। दूसरा विकल्प है ब्याज़ दरों को बढ़ाकर महँगाई का शिकंजा कसने की कोशिश करना, जिससे पूँजीपतियों को क़र्ज़ ज़्यादा दरों पर हासिल करना पड़ेगा और वे अपनी सट्टेबाज़ी पहले की तरह जारी नहीं रख पाएँगे। इसके साथ सट्टा बाज़ार का बुलबुला फूटने का ख़तरा बना रहेगा, जो पूरी पूँजीवादी अर्थव्यवस्था में ही संकट के फूटने का कारण बन सकता है। इसके साथ भी अर्थव्यवस्था में भयंकर बेरोज़गारी, ग़रीबी और भुखमरी बढ़ेगी, जो आम जनता को इस जालिम ढाँचे के ख़िलाफ़ संघर्ष करने के लिए उत्साहित कर सकता है। दोनों विकल्प ही उस संभावना का आधार मज़बूत करते हैं, जिससे विश्वभर के शासक वर्ग इस समय ख़ौफ़ज़दा हैं और वह है मज़दूर वर्ग के नेतृत्व में मेहनतकश जनता का इस जालिम पूँजीवादी व्यवस्था के ख़िलाफ़ संघर्ष। आर्थिक संकट श्री लंका, तुर्की, क़ज़ाकिस्तान, भारत आदि के साथ-साथ दुनिया की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था पर भी अपनी मज़बूत पकड़ बना रहा है। चीन के रियल एस्टेट क्षेत्र और संबंधित उद्योग, जिनमें उसके कुल उत्पादन का 25-30 प्रतिशत हिस्सा आता है, भी एवरग्रांदे कंपनी के दिवालिया होने के बाद और भी गहरे संकट में फँसता जा रहा है। कुछ समय पहले ही रियल एस्टेट और सबसे अमीर 100 कंपनियों की कुल बिक्री में 41 प्रतिशत घाटा दर्ज किया गया है और चीन की कुल अर्थव्यवस्था के ही जल्द स्वस्थ होने की कोई उम्मीद नहीं है। अधिकतर अनुमानों के अनुसार संयुक्त राज्य अमरीका की अर्थव्यवस्था की बढ़ोतरी दर भी मामूली रहने की उम्मीद है। फे़डरल रिर्ज़व की तरफ़ से ब्याज़ की दरों में बढ़ोतरी की घोषणा के बाद 3 फ़रवरी को फे़सबुक के शेयरों की क़ीमत में 26 प्रतिशत गिरावट दर्ज की गई है, जिसने कंपनी की कुल क़ीमत को 230 अरब डॉलर के साथ घटा दिया है।
यह कहना कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी कि हर दिन पूँजीवादी अर्थव्यवस्था ख़ुद को जर्जर और अप्रासंगिक व्यवस्था साबित करती जा रही है और यह साफ़ है कि ऐतिहासिक तौर पर इसका युग ख़त्म होने की कगार पर है। विश्वभर में विभिन्न जगहों पर मज़दूर, मेहनतकश अपनी अपनी सरकारों के ख़िलाफ़ विरोध करने के लिए सड़कों पर आ रहे हैं। पूँजीवाद का अंत सिर्फ़ शब्दों, सलाहों, टीका-टिप्पणियों आदि से नहीं होगा बल्कि यह इतिहास से सीख लेते हुए मेहनतकश जनता के संगठित संघर्ष से ही संभव होगा। जहाँ आर्थिक संकट गहराते जाने से मेहनतकश जनता की बढ़ती बदहाली लाजमी ही एक चिंता का कारण है, दूसरी तरफ़ यह अत्यंत ख़ुशी की बात है कि इस गल-सड़ चुके समाज को जड़ से उखाड़ने वाली ताक़त एक लंबी नींद के बाद दुबारा उठ खड़ी हो रही है और संघर्ष के मैदान में कूद रही है। इस समाज के हर उस इंसान को, जो इस क्रूरतापूर्ण समाज और इसमें फैली गंदगी से दिल से नफ़रत करता/करती है, उसे इन संघर्षों का स्वागत करते हुए इसका हिस्सा हो जाना चाहिए और इसके फैलाव में मदद करनी चाहिए।
– नवजोत, पटियाला