कहना तो मानव विरोधी चाहिए। किसी फिल्म को समुदाय विशेष के समर्थन या विरोध की फ़िल्म के रूप में देखना ठीक नहीं। लेकिन यह फ़िल्म खुद ही हिन्दू मुसलमान की भाषा में बोलती है। बहुत से लोग इसे मुस्लिम विरोधी फ़िल्म समझ रहे हैं। लेकिन यह हिन्दू विरोधी ज़्यादा है।
इस फ़िल्म में दो तरह के हिन्दू दिखाए गए हैं। कुछ तो वे हैं जिनकी इस्लामी आतंकवादियों के साथ सीधी सांठ गांठ है। वे बड़े प्रतिष्ठित और शक्तिशाली लोग हैं। बड़ी एलीट यूनिवर्सिटी में प्रोफ़ेसर और छात्र हैं। लेकिन हिंदुओं के ‘जनसंहार’ में शामिल आतंकियों के मददगार हैं।
लेकिन क्यों हैं? कश्मीर को भारत से अलग कर उन्हें क्या मिलेगा? फ़िल्म इस पर कुछ भी नहीं बताती। वे ऐसे ही हैं। ऐसा नहीं है कि वे विचारधारा के कारण आतंकवाद के समर्थक हो गए हैं।
अगर ऐसा होता तो पल्लवी जोशी के चेहरे पर चालाकी और बेईमानी से भरी हुई मुस्कान हर समय नहीं दिखाई जाती। विचारधारा के कारण स्टैंड लेने वाले लोग मूर्ख हो सकते हैं, कमीने नहीं।
हिन्दू हीरो ऐसा घनचक्कर दिखाया गया है, जिसके पास न बुद्धि है, न विवेक। किसी प्रोफ़ेसर ने समझा दिया तो आज़ादी समर्थक हो गया। किसी और ने समझा दिया तो विरोधी हो गया। उसे कोई कुछ भी समझा सकता है। जब तक कोई और समझाने न आए, वह दी जा रही समझाइश पर कोई सवाल नहीं उठा सकता। क्या विश्वविद्यालयों में पढ़नेवाले हिन्दू नौजवान ऐसे होते हैं?
दूसरे तरह के हिन्दू अकल्पनीय रूप से कमजोर, कातर और आत्महीन प्राणी दिखाए गए हैं। क्या कोई हिन्दू अपने बीवी बच्चों को आतंकियों के सामने बेसहारा छोड़ कर चावलके ड्रम में छुप जाना चाहेगा? क्या कोई हिन्दू नारी अपने मारे जा चुके पति के खून से भीगे चावल खाना मंजूर करेगी? क्या इससे भी ज़्यादा अकल्पनीय और हौलनाक कोई बात हो सकती है?
कमजोर व्यक्ति किसी भी समुदाय में हो सकते हैं। लेकिन क्या उन्हें उस समुदाय के प्रतिनिधि चरित्र के रूप में दिखाया जा सकता है?
बेशक कश्मीरी हिंदुओं के साथ इस्लामी आतंकियों के हाथों बर्बर घटनाएं हुई। मुसलमानों के साथ भी हुई। लेकिन यह सच नहीं हो सकता कि स्थानीय हिंदुओं और मुसलमानों ने उनका मुकाबला नहीं किया। राजनीतिक तरीकों से, कलम से या कैमरे से। नहीं करते तो इतनी बड़ी संख्या में मारे ही क्यों जाते!
हजार हों या तीन हज़ार, पर आज भी पंडित वहां हैं। अगर इतनी कम संख्या में भी वे आतंकवाद का मुकाबला कर रहे हैं, तो अपनी पूरी संख्या से साथ भी बखूबी करते ही। उन्हें निकलना इसलिए पड़ा कि अपनी ही सरकार ने उनसे कहा कि उनकी सुरक्षा की गारंटी नहीं की जा सकती। यह सब फ़िल्म में दिखाया नहीं गया है।
दिखाया यह गया है कि पिछले जमाने में ईरान से एक मुसलमान आता है और तलवार के जोर से लगभग समूची कौम को मुसलमान बना लेता है। हिन्दू कोई प्रतिरोध नहीं करते!
दिखाया यह गया है कि नए जमाने में कुछ मुसलमान आतंकी आते हैं और लाखों हिंदुओं का ‘जाति संहार’ कर डालते हैं। राज्य में हिंदूवादी राज्यपाल और केंद्र में हिंदूवादी समर्थित सरकार के रहते! पुलिस फौज की ताकत के होते। उन्हें निकलने के लिए बाध्य किया जाता है और एक बार फिर वे किसी भी तरह का कोई प्रतिरोध किए बिना निकल जाते हैं।
किसी भी कौम में दो चार कमजोर चरित्र हो सकते हैं, लेकिन क्या पूरी की पूरी कौम ऐसी हो सकती है? क्या ऐसे चरित्र हिन्दू कौम के नुमाइंदे हो सकते हैं? यह फ़िल्म हिंदुओं का पूरी तरह इकतरफा चित्रण करती है।
निर्माता-निर्देशक को ऐसा क्यों करना पड़ा? कुछ सच्ची घटनाओं के सहारे बनाए गए एक झूठे नैरेटिव को लोगों को गले उतारने के लिए। एक राजनीतिक समस्या को पूरी तरह साम्प्रदायिक रंग देने के लिए। बेशक एक दौर में कश्मीर में इस्लामी आतंकवाद फला फूला। लेकिन वह कश्मीर समस्या की जड़ नहीं, एक परिणति है।
यह अकारण नहीं है कि बहुत से कश्मीरी हिन्दू इस फ़िल्म से दुखी और नाराज़ हैं।
आशुतोष कुमार
( लेखक आलोचना पत्रिका के संपादक हैं ) #डाटावाणी