गांधीजी के भीतर प्राचीन परंपरा के सन्त और आधुनिकता के विचारक दोनों ही विद्यमान हैं। प्राचीन परंपरा के संत ने उन्हें धर्म को जीवनव्यापी बनाने की साधना की ओर खींचा और आधुनिकता के विचारक ने बौद्धिक बेचैनी की ओर धकेला।
गांधीजी ने यंग इंडिया में लिखा-
” मैं धर्म की किसी भी ऐसी व्याख्या को मानने से इंकार करता हूँ जो महाविद्वानों की होने पर भी नैतिक भावना और बुद्धि के विरुद्ध है। मेरा धर्म हिन्दू धर्म नहीं बल्कि वह धर्म है जो हिंदुत्व से भी आगे जाता है और जो हिंदुत्व के भीतर के सत्यों पर आधारित है। जो क्षण क्षण पवित्रता प्रदान करने वाला है,जो आत्मा को बौद्धिक बेचैनी देता है।”
वे आगे लिखते है कि ” किसी को भी इस धोखे में नहीं रहना चाहिए कि संस्कृत में जो कुछ लिखा है और जो शास्त्रों में मुद्रित है उसे आंख मूंदकर मानना ही धर्म है। नैतिकता के मूल सिद्धांत और सुनियोजित बुद्धि के जो विरुद्ध है उसे नहीं मानना ही धर्म है, चाहे वह कितना भी प्राचीन क्यों न हो।”
गांधीजी की बौद्धिक बेचैनी को देखते हुए दुनिया के कई विचारकों ने उन्हें बहुत गहराई से समझने की कोशिश की है। कई विद्वानों का मत है कि यह बताना बहुत कठिन है कि गांधीजी द्वैतवादी थे या अद्वैतवादी थे, उनकी भक्ति साकार थी या निराकार थी, वे अपने को वैष्णव कहते थे पर उनपर बौद्धधर्म के दार्शनिक आचार्य नागार्जुन द्वारा प्रतिपादित शून्यवाद की भी छाप थी। जिसके अनुसार सत्य के दो रूप माने जाते है एक संवर्ती सत्य और दूसरा परमार्थ सत्य । संवर्ती सत्य वह है जो आभासी सत्य है पर दिखाई ऐसा देता है कि मानो यही सत्य है। जबकि परमार्थ सत्य वह है दिखलाई नहीं देता परंतु असली सत्य वही है।
अमरीकी लेखक लुई फिशर अपनी पुस्तक ‘अ वीक विद गांधी’ में लिखते हैं कि गांधीजी पर जैनधर्म के अनेकान्तवाद का प्रभाव था। अनेकान्तवादी वह होता है जो दूसरे धर्म को भी आदर के साथ देखना और समझना चाहता है क्योंकि सत्य के सारे रूप उसे एक धर्म में दिखाई नहीं देते इसलिए सम्पूर्ण सत्य की खोज में वह आजीवन सभी धर्मों को टटोलता रहता है। अशोक, हर्षवर्धन, रामकृष्ण परमहंस, ईसा मसीह की तरह गांधी भी अनेकान्तवादी थे। ईसा मसीह की तरह गांधी भी सभी धर्मों के बारे में सम्यक विचार रखते थे उन्होंने कहा था कि ”मेरे पिता के यहां अनेक मकान हैं, मैं यहां किसी भी मकान को तोड़ने नहीं आया हूँ बल्कि सबकी रक्षा और पूर्णता मेरा उद्देश्य है।”
अमरीकी लेखक विसेंट सीन जो गांधी की हत्या के प्रत्यक्षदर्शी थे और उन्होंने गांधीजी का अंतिम इंटरव्यू लिया था अपनी पुस्तक ‘द महात्मा’ में लिखते हैं कि गांधीजी ने कबीर का सहज मार्ग ही अपनाया था जिसके अनुसार उनका हर कार्य पूजा की तरह था ”जहां जहां डोलू सो परिचर्चा जो जो करूं सो पूजा।”
गांधीजी में भी कबीरदास जैसी उलझन की आवृति थी। कबीर ने राम का नाम तो लिया किन्तु कौन राम, ऐसा पूछे जाने पर उन्होंने यह कहकर पल्ला झाड़ लिया कि जिसका भक्त मैं हूँ वह दशरथ पुत्र राम नहीं ।
संतो, आवै जाय सो काया ।
दशरथ के घर ब्रह्म न जनमे ,
यह छल कीन्हों माया ॥
गांधीजी जिस राम का नाम गांधी जीवनभर जपते रहे तथा जिसका नाम लेते हुए उन्होंने अपने प्राण त्यागे, वह राम कौन है यह शोध का विषय है?
24 अप्रैल 1946 को गांधीजी ने लिखा
” मेरे राम, हमारी प्रार्थनाओं के राम ऐतिहासिक राम नहीं, वे दशरथ के पुत्र और अयोध्या के राजा नहीं । वे तो सनातन हैं, अजन्में हैं ,अद्वितीय हैं। मैं उन्ही से सहायता मांगता हूं।”
जब अमरीकी पत्रकार लुई फिशर ने गांधीजी इस दुविधा का कारण पूछा तो गांधी ने कहा कि आप राम की कल्पना को इतना संकुचित क्यों कर रहे हैं। राम भगवान हैं, वे तर्क की सीमा से बाहर हैं तो मेरे जैसा कोई मनुष्य यह दावा कैसे कर सकता है कि उसे ठीक पता है कि वे कहां और किसके घर पैदा हुए थे?
जब फिशर ने पूछा कि ‘ईश्वर ही सत्य है? या सत्य ही ईश्वर है?’ गांधीजी ने तनिक सोचकर कहा कि पहले कथन के प्रति में पूर्णतः आश्वस्त नहीं पर दूसरे कथन के प्रति पूर्णतः आश्वस्त हूँ यानी ‘सत्य ही ईश्वर है।’
गांधीजी ने कहा कि मैं जानता हूँ कि सत्य एक ऐसी चीज़ है जिसे कभी पूरा हासिल नहीं किया जा सकता। वो हमेशा प्रयोगों द्वारा ही हासिल किया जा सकता है और इसलिए मेरी पूरी जिंदगी नए नए प्रयोगों का एक अनवरत सिलसिला है। मैंने पहले कहा था कि गॉड इज ट्रुथ ( ईश्वर ही सत्य है) लेकिन आगे जाकर मैंने प्रयोगों से हासिल किया कि ट्रुथ इज गॉड (सत्य ही ईश्वर है) लेकिन उसके बाद के अनवरत प्रयोगों से मैंने पाया कि ट्रुथ इस पार्शियल (सत्य एक आंशिक चीज है) यानी सत्य का एक हिस्सा ही मैं जान सकता हूँ, सत्य के सारे पहलूओं को मैं नहीं जान सकता। इसलिए गॉड इज ट्रुथ या ट्रुथ इज गॉड कहने का कोई मतलब नहीं।
योग और प्राणायाम , पूजा और होम, यज्ञ और तपस्या तथा संसार से अलग रहकर एकांत साधना द्वारा धर्म साधना और अपनी मुक्ति खोजने की परंपरा सारे संसार में देखने को मिलेगी। गांधीजी ने इस सीमा रेखा को मिटा दिया। उन्होंने अपने आचरण से सिद्ध कर दिया कि धर्म किसी खास दिन , खास लग्न, खास चौघड़िया का कृत्य नहीं वह मनुष्य के प्रत्येक कार्य में विद्यमान रहता है। यहां तक कि राजनीति भी धर्म की अभिव्यक्ति का उचित माध्यम हो सकती है। ऐसे बहुत से राजनेता हुए हैं और हैं जो राजनीति के लिए धर्म का भगवा चोला ओढ़कर चलते हैं गांधीजी विशुद्ध धार्मिक व्यक्ति थे जिन्होंने देश की मुक्ति के लिए राजनीतिक खादी परिधान ओढ़ा।
अंग्रेज वाइसरॉय लिनलिथगो ने गांधी से कहा कि ये भारत के नासमझ लोग आप जैसे संत को राजनीतिक क्षुद्रताओं के नर्क में नाहक ही घसीटते हैं। गांधीजी ने तपाक से उत्तर दिया कि मेरा महात्मापन अगर कुछ है तो आप जिसे क्षुद्र राजनीति का नर्क कह रहे हैं, उसकी क्षुद्रता को खत्म करने में ही है। गांधीजी यथार्थवादी थे और जानते थे कि नर्क के बगैर तो स्वर्ग का मजा भी फीका पड़ जाता है।
क्यों न फिरदौस को दोखज में मिला लें या रब।
सैर के वास्ते थोड़ी सी फिजा और सही।।
गांधी दर्शन
27 मार्च 2022