आखिर आरएसएस जाने माने इतिहासकार प्रो. शम्सुल इस्लाम से क्यो घबराता है ?

दैनिक समाचार

कल खबर आई कि इंदौर में सरकारी आदेश का हवाला देते हुए मशहूर लेखक शम्सुल इस्लाम के आज होने वाले कार्यक्रम के लिए ऑडिटोरियम की बुकिंग रद्द कर दी गई, कार्यक्रम से मात्र एक दिन पहले इसके आयोजकों को ऑडिटोरियम की देखरेख कर रही संस्था की तरफ़ से एक पत्र भेजा गया, जिसमें कहा गया है कि सरकारी आदेश के कारण वो इस बुकिंग को रद्द कर रहे हैं। आयोजकों ने शुक्रवार को फिर से कार्यक्रम के अनुमति मांगी लेकिन उन्हे फिर से “अपरिहार्य कारणों” के कारण आयोजन की अनुमति देने से मना कर दिया
एक बात समझ नही आती कि जब अनुराग ठाकुर जैसे केंद्रीय मंत्री को गोली मारो सालो को बोलने से नही रोका गया तो एक स्कॉलर प्रो. शम्सुल इस्लाम को अपनी बात कहने से क्यो रोका जा रहा है

इसका एकमात्र जवाब यह है कि प्रो. शम्सुल इस्लाम राजनीतिक विज्ञानी होने के साथ-साथ संघ और राष्ट्रवाद से जुड़े मुद्दों पर दस्तावेज़ी ढंग से काम करने वाले विरल अध्येता हैं।,उन्होंने इस विषय पर कई किताबे लिखी है जो बरसो से रचे जा रहे आरएसएस के प्रोपेगेंडा को बेनकाब कर देती है

आप पूछेंगे कि वह क्या और कौन सा प्रोपेगेंडा है जिसे संघ फैला रहा है ?

जैसे राष्ट्रवाद, जी हां आप सही पढ़ रहे हैं, राष्ट्रवाद, ‘राष्ट्र प्रथम’ जैसे शब्द आपके दिलो दिमाग में भर दिए गए हैं….

शम्सुल इस्लाम कहते है समूचे विश्व में सामंतवाद की समाप्ति के बाद पूंजीवाद ने नये संसाधनों का विकास करते हुए इस राष्ट्रवाद के मुहावरे का प्रयोग मजदूरों को अपने कारखानों तक लाने के लिए किया। इसी क्रम में समाज ने वस्त्र, परिधान और संस्कृति में राष्ट्रवाद के प्रतीकों का आरोपण प्रारम्भ कर दिया, जबकि दरअसल यह शोषित वर्ग की जनता की स्वतंत्रता का अतिक्रमण था। उन्होंने रवीन्द्र नाथ टैगोर की इस बात को भी प्रस्तुत किया कि हमारे समूचे साहित्य में राष्ट्रवाद जैसे शब्द का कहीं उल्लेख नहीं है और यह एक ऐसा एनीस्थीसिया है, जिसके नाम पर किसी भी तरह की समस्याएँ उत्पन्न की जा सकती हैं। राष्ट्रवाद के प्रसिद्ध व्याख्याकार एंडरसन के हवाले से वे कहते हैं कि राष्ट्रवाद वस्तुतः इतिहास में झूठ गढ़ने का सिद्धान्त है।

शम्सुल इस्लाम ने अपने अध्ययन में यह पाया कि वर्ष 1925 से 1947 तक राष्ट्रीय स्वतंत्रता संग्राम में आरएसएस या हिन्दू महासभा की कोई भूमिका दृष्टिगत नहीं होती, बल्कि इसके उलट एकाधिक मौकों पर आन्दोलनों में साथ न देने के दस्तावेजी साक्ष्य भी मिलते हैं। आज जो आरएसएस गो माता की बात नही करते थकता है असलियत यह है कि
आरएसएस ने अपनी स्थापना (1925 ) से लेकर भारत की आज़ादी तक, अंग्रेजी राज में कभी भी गौ-वध बंद करने के लिए किसी भी तरह का आंदोलन नहीं चलाया।

शम्सुल इस्लाम ने आरएसएस के संघ संचालक गोलवलकर की 1939 में लिखी “वी ऑर अवर नेशनहुड डिफ़ाइंड” पुस्तक का हिंदी अनुवाद भी प्रस्तुत किया, जिसकी भूमिका जाने माने अंग्रेजी लेखक ख़ुशवंत सिंह ने लिखी है खुशवंत सिंह लिखते हैं — “गोलवलकर पर सावरकर के विचारों की गहरी छाप थी, दोनों जातिवाद के समर्थक थे और हिटलर द्वारा लाखों-लाख यहूदियों के जनसंहार को जायज़ ठहराते थे। वे यहूदीवादी राज्य इज़राइल के इसलिए समर्थक थे कि इसने अपने पड़ोसी मुसलमान देशों से लगातार युद्ध छेड़ रखे थे। इस प्रकार इस्लाम से घृणा हिन्दुत्व का एक अभिन्न अंग बनकर उभरा। गोलवलकर की पुस्तक वी ऑर अवर नेशनहुड डिफ़ाइंड की मुझे जानकारी नहीं थी। अब इसे सम्पूर्ण रूप से शम्सुल इस्लाम की पुस्तक में आलोचना के साथ छापा गया है। मैंने जो कुछ कहा है इससे उसकी पुष्टि होती है।”

आप ही बताइए ऐसी सच्ची बातो को आरएसएस केसे बर्दाश्त कर सकता है ?

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