बुरी नीयत से बनायी गयी ‘तस्वीर’ जिस भी घर में लगती है, उस घर पर संकट छा जाता है. उस घर में ईर्ष्या, द्वेष, नफरत का बोलबाला हो जाता है. यह विषय है गोगोल की प्रसिद्ध कहानी ‘तस्वीर’ का.
‘कश्मीर फ़ाइल्स’ देखते हुए मुझे 1835 में लिखी यह कहानी शिद्दत से याद आ रही है.
यह फिल्म जहाँ भी लग रही है, गोगोल की ‘तस्वीर’ की तरह वहां के माहौल को विषाक्त बना रही है. फिल्म देखकर निकल रहे लोग नये दौर का ‘राष्ट्रीय नारा’ ”देश के गद्दारों को, गोली मारो सालो को” जिस घृणा और बदले की भावना से लगा रहे है, उस विष्ठा-वमन में कोई भी व्यक्ति इस फिल्म के कथ्य की एक झलक पा सकता है. किसी भी कृति को मापने का इससे अच्छा मापदंड और क्या हो सकता है कि उसने समाज पर असर क्या डाला है.
और शायद इसी कारण फिल्म इतिहास में यह पहली बार हो रहा है कि फिल्म के पक्ष और विपक्ष में लिखने वाले लोगों में से करीब 70-80 प्रतिशत लोगो ने फिल्म देखी ही नहीं है. मैं भी यह ‘डिस्क्लेमर’ लगा रहा हूँ कि मैंने भी यह फिल्म नहीं देखी है.
हालाँकि फिल्म देखने को कोशिश मैंने ज़रूर की, लेकिन देख नहीं पाया. हम सबने चावल को दूध, दाल, सब्जी, मछली आदि के साथ खाया है. लेकिन फिल्म के एक शुरूआती दृश्य में पड़ोसी मुस्लिम [जो अब तथाकथित आतंकवादी हो गया है] कश्मीरी पंडित के परिवार की एक हिन्दू महिला को उसके पति के खून से सने चावल खाने को बाध्य करता है. इसके आगे देखना संभव नहीं था. मैं कंप्यूटर बंद करके यह सोचने लगा कि यह दृश्य इस फिल्म के निर्देशक विवेक रंजन अग्निहोत्री ने सोचा कैसे होगा? इतनी नफ़रत वो अपने दिमाग में कहाँ से लाये होंगे. नफ़रत के सीवर में कितनी बार डुबकी लगाने के बाद इस तरह के दृश्य दिमाग में आते होंगे.
यह फिल्म बहुत चतुराई से बनाई गयी है. फिल्म के दूसरे तीसरे फ्रेम में शिवरात्रि के दिन शिव की तस्वीर को जलते हुए दिखाया गया है. एक नाटक में शिव की भूमिका निभा रहे अनुपम खेर को शिव के ही वेश में ‘आतंकवादियों’ से बचते और फिर उनसे ही अपने पोते-बहू की जान की भीख माँगते दिखाया गया है. इस तरह से कश्मीरी पंडितों की पीड़ा के बहाने हिन्दुओं की धार्मिक भावनाओं से खेला जा रहा है यानी हिन्दुओं का भावनात्मक बलात्कार करने के लिए ही यह फिल्म बनायी गयी है. इसी सन्दर्भ में संजय काक ने कश्मीरी पंडितों के मुद्दे को एक ‘नए अयोध्या’ की संज्ञा दी है.
एक टी.वी साक्षात्कार में विनोद अग्निहोत्री ने फिल्म में शिव के प्रतीक को खोलते हुए कहा कि कश्मीरी पंडितों ने अपनी भयानक पीड़ा को शिव की तरह चुपचाप धारण कर लिया है. यानी उस पीड़ा को किसी के प्रति नफ़रत में नहीं बदला. लेकिन विनोद अग्निहोत्री ने आगे यह नहीं बतलाया कि इसी काम को अंजाम देने के लिए यानी कश्मीरी पंडितों की पीड़ा को नफ़रत में बदलने और फिर उसे समाज में उदारतापूर्वक बांटने के लिए ही बालीवुड में विनोद अग्निहोत्री का अवतार हुआ है. इस कलियुग में विनोद अग्निहोत्री शिव के उल्टे अवतार है. यानी ज़हर पीने वाला नहीं, ज़हर पिलाने वाला.
इस फिल्म को जितना राज्य समर्थन मिल रहा है, वह भी अभूतपूर्व है. सच तो यह है कि फिल्म को नहीं बल्कि नफ़रत को टैक्स फ्री किया गया है. नफ़रत की राजनीति करने वाले संगठन पूरा हाल बुक करके लोगों को फ्री में फिल्म दिखा रहे हैं. मध्य प्रदेश सरकार ने तो पुलिस विभाग को यह फिल्म देखने के लिए छुट्टी का प्रावधान कर दिया है. ऐसा राज्य समर्थन पिछली बार किस फिल्म को मिला था?
1983 में मैं किसी छोटी कक्षा में था. एक दिन स्कूल जाने पर पता चला कि सभी बच्चों को पिक्चर हाल ले जाया जा रहा है. हाल में पहुचने पर पता चला कि यह फिल्म रिचर्ड एटनबरो की ‘गाँधी’ थी. पूरे देश में यह फिल्म टैक्स फ्री थी. स्कूल -कॉलेज अपने खर्च पर हाल बुक करके बच्चों को यह फिल्म दिखा रहे थे. कल्पना कीजिये कि उस वक़्त हाल से निकलते लोगों से अगर पत्रकार फिल्म पर उनकी प्रतिक्रिया पूछते तो वो क्या उत्तर देते. अब ‘कश्मीर फ़ाइल्स’ देख कर निकल रहे लोगो की प्रतिक्रिया से उसका मिलान कीजिये.
यहाँ मै ‘गाँधी’ और ‘कश्मीर फ़ाइल्स’ की तुलना नहीं कर रहा, बल्कि इसके बहाने पिछले 40 सालों में बदल चुके भारत की एक तस्वीर दिखाने की कोशिश कर रहा हूँ.
रही बात कश्मीर समस्या की, तो कश्मीर जैसे राजनीतिक विषय पर एक ईमानदार फिल्म वही बना सकता है जो ‘नो मेन्स लैंड’ में खड़ा हो. संघ की गोद में खेलने वाले तो ‘कश्मीर फ़ाइल्स’ ही बना सकते हैं. ‘नो मेंस लैंड’ में रहकर ही हमे यह दिखाई देगा कि कश्मीर के सेकुलर आन्दोलन को सांप्रदायिक दिशा देने के लिए भारत और पाकिस्तान दोनों की सुरक्षा एजेंसियों ने आपस में हाथ मिला लिया था. कश्मीरी पंडितों का पलायन उसी ‘ग्रैंड डिजाइन’ का हिस्सा था.
खैर, गोगोल की उपरोक्त कहानी के अंत में ‘तस्वीर’ के समाज पर पड़ रहे घातक प्रभाव के कारण उस ‘तस्वीर’ को नष्ट कर देने का निर्णय किया जाता है. लेकिन जब नष्ट करने का समय आता है तो वह ‘तस्वीर’ गायब हो जाती हैं.
‘कश्मीर फ़ाइल्स’ के रूप में वह ‘तस्वीर’ आज पुनः हमारे सामने हैं. लेकिन क्या हमारा समाज आज वहां खड़ा है कि वह इस ‘तस्वीर’ के घातक परिणामो से परिचित हो? इसे नष्ट करने का सवाल तो इसके बाद आता है.
मनीष आज़ाद
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