Ram Ayodhya Singh
अधिकतर हिन्दू तो इसे जानते भी नहीं, मनाने की बात तो दूर है।
बहुत पहले से संघ से जुड़े लोग यूं ही बातचीत में कहा करते थे कि “आज हम लोगों का नया दिन है। पहली जनवरी तो ईसाईयों का है।” –और होंठों में इस तरह मुस्कुराते थे मानो कोई बड़ी बात कह दी हो।
ऐसे ही एक बार मैंने एक संघी से कह दिया कि भाई मैं तो रोज नया दिन मनाता हूं।
मेरी ओर टेढ़ी नजर से देखते हुए कहा कि हूं, यह कैसे संभव है?
मैंने कहा कि सच्चाई तो यही है। अच्छा बताओ, कौन दिन नया नहीं होता है? हर दिन साल में एक बार ही आता है। क्या कोई ऐसा दिन है जो साल में दुबारा आता हो?
“आप भी अजीब आदमी हैं साहब”, कहते हुए उठकर चल दिए। कुछ दिनों तक मुंह फुलाए रहे, फिर सामान्य हो गए।
तब से लेकर आज तक एक-दूसरे को देखते-सुनते यह धीरे-धीरे बढ़कर हिन्दुओं के बहुतेरे सवर्णों और संघ से जुड़े लोगों के बीच एक स्थायी परंपरा के तौर पर स्थापित हो गया है।
सबसे दिक्कत यह है कि इसे न मनाने वाले को ये लोग संदेह की नजरों से देखते हैं, या यूं कहिए कि हिन्दू धर्म और राष्ट्र के विरोधी के रूप में।
मेरे लिए तो कोई दिन, महीना या मौसम किसी धर्म से जुड़ा हुआ है ही नहीं। यह तो समय को अपनी सुविधा के अनुसार पल से लेकर दिन, महीने और साल में बांटने की प्रक्रिया है। पहली जनवरी ग्रेगोरियन कैलेंडर के अनुसार साल का पहला दिन माना जाता है और जिसे अब पुरी दुनिया ने स्वीकार कर लिया है। लेकिन, कोई उसे ईसाई कैलेंडर तो नहीं कहता? कोई कौन-सा दिन साल के पहले दिन के रूप में मनाएगा, इसके लिए वह स्वतंत्र है। लेकिन, उसे किसी धर्म से जोड़कर देखना कोई अच्छी बात नहीं है। दिनों की तो बात ही क्या, अब तो लोग कपड़ों, खान-पान, रंग, जानवर, भाषा और संस्कृति की पहचान को भी धर्म से जोड़कर देखने लगे हैं। आखिर, यह कहां तक जाकर खत्म होगा? अब तो देहातों में भी अपने को कट्टर संघी या भाजपाई साबित करने के लिए कुछ लोग इसे पर्व की तरह मनाने लगे हैं।
सवर्ण हिन्दुओं में यह सर चढ़कर बोल रहा है, तो राजपूतों में यह एक सनक की तरह हो गया है।
इस बात को मान भी लिया जाए कि आपने ग्रैगोरियन कैलेंडर को इसलिए स्वीकार नहीं करते कि यह ईसाईयों का बनाया हुआ है, फिर तो सारे हिन्दुओं को जीवन के दैनिक उपयोग में आने वाली उन सभी वस्तुओं का भी त्याग करना होगा, जिसका आविष्कार ईसाईयों ने किया है और ईसाई देशों में बनाए जाते हैं। क्या कभी इस बात पर विचार किया है? क्या बता सकते हो कि ऐसी स्थिति में तुम्हारे उपयोग के लिए क्या बचेगा? सूई से लेकर सिलाई मशीन, साईकिल, मोटरसाइकिल, कार, जीप, ट्रक, ट्रैक्टर, खाद, कीटनाशक दवाएं, अस्पताल, डाक्टर, नर्स, दवाएं, हवाई जहाज, रेलगाड़ी, जलयान, मालवाहक जहाज, बंदूक, गोली, रायफल, बम, मिसाइल, मानव निर्मित उपग्रह और न जाने कितने ही अनगिनत वस्तुओं का आविष्कार और निर्माण उन देशों द्वारा किया जाता है, जहां के लोग ईसाई धर्म को मानने वाले हैं। क्या इन सारी वस्तुओं का परित्याग कर दोगे?
आज की दुनिया वैश्विक हो गई है, और हम हर विचार, सोच, व्यवहार, व्यापार, मानव जीवन, राज्यों के परस्पर संबंध, साहित्य, कला, दर्शन, ज्ञान-विज्ञान, बौद्धिकता, चित्रकला, खेलकूद, मनोरंजन और सिनेमा तक का स्वरूप और प्रकृति भी आज वैश्विक हो गई है। ऐसे में किसी भी चीज को देखने का हमारा दृष्टिकोण भी वैश्विक ही होगा, न कि गंवई।
एक बात मैं गौर से देख रहा हूं कि सांप्रदायिकता के जहर को फ़ैलाने की संघी योजना अब एक दैनिक दिनचर्या की तरह लगातार चलते रहने वाली प्रक्रिया बन गई है, जिसमें पढ़े-लिखे पर बेरोजगार हिन्दू युवा और अपना कोई भविष्य न देख सकने वाले लोग, सबसे ज्यादा और सबसे आगे-आगे हैं।
यह उन्हें कुछ पारिश्रमिक देने के साथ ही कुछ आत्मतोष भी देता है।
धर्म और राष्ट्र की नासमझी भरी बातों को ही अंतिम सत्य मानकर उन पर अमल करना ही उनके लिए धर्मपरायण और राष्ट्रभक्त होना है।
इस जनम में तो उन्हें कुछ नहीं ही मिला, पर अगले जनम में स्वर्गप्राप्ति की कामना से प्रेरित होकर वे आज अपने को भारत के हिन्दू धर्मध्वजा धारक और राष्ट्रभक्ति के सच्चे प्रतीक समझने लगे हैं।
ऊपर से जातीय श्रेष्ठता की अपंग और मरणासन्न मानसिकता ने उन्हें इसके लिए बाध्य कर दिया है कि वे अपनी जातीय श्रेष्ठता का प्रदर्शन करते रहें, ताकि अपनी नज़र में वे और न गिरें ।
ऐसे लोगों के साथ बातचीत करते हुए मैंने यह अनुभव किया है कि वास्तव में ये लोग दिमागी दिवालियापन के शिकार वैसे लोग हैं, जो किसी भी स्थिति में अपनी बौद्धिक, आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक हीनता को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं हैं। मैं ऐसे लोगों के बाप-दादाओं को भी अच्छी तरह से जानता हूं कि वे क्या थे? सच्चाई तो यही है कि इनके बाप-दादा भी अनपढ़, उच्छृंखल, आवारा और छोटे-मोटे आपराधिक काम करने वाले या कहीं चटकल, कारखाने और फैक्ट्री में मजदूर या दरबान थे, या पुलिस विभाग में सिपाही थे, जो किसी तरह से कुछ कमा लेना ही अपना धर्म समझते थे। ये लोग अपने बच्चों को न तो ठीक से पढ़ा सके और न ही ठीक से परवरिश कर सके।
इन बच्चों में अधिकतर वैसे हैं, जो परीक्षा में नकल करते हुए उत्तीर्ण हुए और जिनके पास कहने को बी.ए. और एम.ए. की डिग्री भी है। पर, सही मायने में इनके दिमाग में गोबर के सिवा और कुछ भी नहीं है।
बेरोजगारी से टूटे हुए ऐसे युवा या अधेड़ अपनी गिरती सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक स्थिति को न तो स्वीकार कर रहे हैं और न ही उनके सामने कोई बेहतर भविष्य का विकल्प ही शेष है।
ऐसे में हिन्दू धर्म और राष्ट्र की सेवा में अपने को समर्पित कर देना ही उनके लिए एकमात्र विकल्प रह गया है।