Ashish Telang
पहले यूरोप में रोमन न्यूमरल या नंबर सिस्टम चलता था, वो इतना ऊलजुलूल और अवैज्ञानिक था कि यदि उसमें बड़ी संख्या जैसे एक अरब को लिखना हो तो पूरी सड़क भर जाए. आज वो बस किताबों में बचा है.
इस इंडो-अरेबिक न्यूमरल सिस्टम का आविष्कार इतिहासकारों के अनुसार भारत में पहली से चौथी शताब्दी (AD) के आसपास हुआ था. कुछ इतिहासकार इसे छटी से सातवीं शताब्दी के बीच मानते हैं.
भारत और अरबों के बीच उस समय कई कारणों के चलते अच्छा आवागमन था और संपर्क सूत्र प्रगाढ़ थे जिसके चलते नवी शताब्दी के आसपास ये नंबर सिस्टम अरब में पहुंचा.
फारसी गणितज्ञ अल ख़्वारिज़्मी और अल किन्दी ने इस नंबर सिस्टम में काफी काम किया. वहां आज भी इस नंबर सिस्टम को अरबी लोग हिन्दसा कह कर संबोधित करते हैं क्योंकि इसकी जड़ें हिन्द में थीं.
बाद में ग्यारहवीं बारहवीं शताब्दी के आसपास ये यूरोप पहुंचा और धीरे धीरे इसने रोमन नंबर सिस्टम को पूरा रिप्लेस कर दिया.
चूंकि वहां ये अरब से आया था तो उन्होनें इसे अरेबिक न्यूमरल सिस्टम कहा.
बाद में इसके सोर्स के बारे में और ऐतिहासिक तथ्य सामने आने पर इसे इंडो-अरेबिक न्यूमरल सिस्टम कहा जाने लगा. आज भी इसे यही कहते हैं.
अल्बर्ट आइंस्टीन का इस पर एक प्रसिद्ध कथन है-
“हम भारतीयों के बहुत ऋणी हैं, जिन्होंने हमें गिनना सिखाया, जिसके बिना कोई सार्थक वैज्ञानिक खोज नहीं हो सकती थी”.
ज्ञान की अपनी एक यात्रा रही है और उसके लिए देशों की सीमाएं अस्तित्व नहीं रखती. सोचिए यदि उस समय यूरोपीय देशों के शासकों ने “आत्मनिर्भरता” का नारा दे दिया होता तो आज भी वहां रोमन नंबर सिस्टम ही चल रहा होता और सारी सड़कें भर चुकी होतीं.
इंग्लिश में एक कथन है-
“चक्के का फिर से आविष्कार नहीं करो”.
किसी ने चक्के का आविष्कार किया होगा फिर विश्व ने उसको अपना लिया. अगर कल को किसी ऐतिहासिक तथ्य से ये साबित हो जाये कि चक्के का आविष्कार वर्तमान के पाकिस्तान में हुआ था तो क्या हम अपनी सारी गाड़ियां भारतीय महासागर में बहा देंगे?
ऐसे ही आज ज़्यादातर देशों ने पश्चिमी कैलेंडर अपना लिया है, जिसका साल एक जनवरी से शुरू होता है.
पूरा कंप्यूटर सिस्टम, स्पेस विज्ञान इसी पर चल रहा है. भारत में भी पूरा सिस्टम आज इसी कैलेंडर पर चल रहा है.
पूर्व कालों में भारत में विक्रम संवत और शक संवत चलते थे, पर आज इनका उपयोग तीज त्योहार और धार्मिक अवसरों के अलावा विभिन्न कार्यक्षेत्रों में नहीं के बराबर रह गया है और इनकी उपस्थिति बस प्रतीकात्मक ही बची है.
ऐसे में इस बात का ख्याल रखना भी ज़रूरी है कि कहीं हम चक्का उल्टा ना चलाने लगें!
लेकिन क्या किया जाए, ये अमृतकाल है, इतिहास को सुधारने का काल!!