मुझे आईएएस बनाना है, ऐसा मेरे माता-पिता ने कभी नहीं सोचा था. कॉलेज के दौर में राजनीति और सामाजिक क्षेत्र में काम करते समय लोगों की समस्याओं को करीब से जाना था. परियोजना से पीड़ितों की समस्याएं देखी थी. उस समय बड़े अधिकारी तो दूर की बात पंचायत सेवक को मिलने के लिए भी जद्दोजहद करनी पड़ती थी. हमारी खुद की आधा एकड़ जमीन तक नहीं थी, ना खुद का घर था. माँ घर-घर घूमकर चूड़ियाँ बेचती थी. ऐसे विपरीत समय में स्थानीय जनप्रतिनिधि और अधिकारियों से मिलकर 'इंदिरा आवास योजना' से आवास स्वीकृत हो, इसके लिए बिनती करने पर 'आपका नाम बीपीएल सूची में नहीं है, इसलिए नियम के अनुसार आपको आवास नहीं मिलेगा' ऐसा जवाब मिलता था. नियमों को तोड़कर आवास नहीं मिल सकता है य़ह जानकर एक तरफ़ मैं चुप रहता था, लेकिन दूसरी ओर कई एकड़ खेती के मालिक और दो/चार चक्का गाडी लेकर घूमनेवाले तथा अच्छे घर होनेवाले लोगों को योजना से आवास स्वीकृत होता था तो सिस्टम और प्रकिया के खिलाफ ग़ुस्सा होता था. सरकारी सेवा में गाँव में नौकरी करनेवाली एक महिला कर्मी विधवा, वृद्ध महिलाओं से पेंशन दिलवाने के नाम पर पैसे लेती थी. नसीब को कोसनेवाली देहात की ऐसी कई गरीब महिलाएं आर्थिक शोषण का शिकार होती थीं. इन महिलाओं में मेरी माँ 'आक्का' भी थी. यह स्थिति बदलनी चाहिए, ऐसा हमेशा लगता था. उस समय में पीडीएस दुकान से चावल और मिट्टी का तेल साल-भर नियमित कभी मिला नहीं. साल में कभी-कभी महीने का राशन 'ऊपर से ही नहीं आया!' ऐसा कारण बताकर नहीं बांटा जाता था. रात के समय में बिजली कट जाने के बाद अँधेरे में केरोसिन तेल का दिया (मराठी में उसे 'चिमनी' बोलते है) जलाकर आगे पढाई करनी पड़ती थी. तब, 'अरे दिये की बाती जरा कम करो, दो महीने के बाद मिट्टी का तेल मिला है. बाद में कब मिलेगा कुछ पता नहीं, सुबह पढाई करो' य़ह सुनना पड़ता था.
बेल्ट न होने के कारण मेरी पेंट कमर पर फिट करने का जिम्मा करदोड़ा (काला धागा, जो कमर को बाँधा जाता है) संभालता था. इस धागे को लकड़ी से फिट कर पेंट कमर को फिट की जाती थी. इस समय 'डूबते को तिनके का सहारा' यह मुहावरा मुझपर परफेक्ट लागू होता था. मुझे चप्पल पहनकर चलने में काफी मुश्किल होती थी, शूज लेने की स्थिति न होने के कारण कई साल नंगे पाँव चलने का अनुभव भी लिया. पिताजी की बीमारी के दौरान सरकारी अस्पताल में जाना पड़ता था. वहाँ भी कई बुरे अनुभवों से गुजरना पड़ता था. कॉलेज के समय में छात्र संगठनों का नेतृत्व करते समय जब मोर्चा या आंदोलन लेकर ज्ञापन सौंपने तहसीलदार के ऑफिस जाते थे, तब लगता था की, 'तहसीलदार बनना चाहिए'. यदि मैं तहसीलदार होता तो यह काम जरूर करता.
आज प्रशासन में काम करते समय 'जनता दरबार' लगाकर जब तत्काल पेंशन, राशनकार्ड स्वीकृत करता हूँ तब मुझे मेरी आक्कासमेत वो सारी महिलाएं आँखों के सामने आ जाती हैं. बाल मजदूरों को मजदूरी से मुक्त कर उन्हें किताबें, युनिफोर्म, स्कूल बॅग, शूज, बेल्ट देते समय मुझे मेरे बचपन के दिन जरुर याद आते हैं. खूंटी और बोकारो जिले में काम करते समय कई राशन दुकानदार और रॉकेल के हॉकर्स को कालाबाजारी और अनियमितता पाई जाने पर जेल भेजा था. एक ही दिन में ३९ दुकानदारों के लाईसेंस सस्पेंड कर १२३ दुकानदारों को 'कारण बताओ' नोटिस जारी किया. तब मुझे मेरे घर का वो कम केरोसिन के तेल का 'दिया' याद आता था. सरकारी अस्पतालों में जाकर वहाँ की स्थिति सुधारने का प्रयास करता हूँ, तब मेरे पिताजी और उनके जैसे कई लोग याद आते थे. अधिकारी के रूप में मेरे कार्यक्षेत्र में घूमते समय परियोजना पीड़ितों की समस्याएँ जानने की कोशिश करता हूँ, उन्हें मिलकर, बैठक लेकर समस्याओं के समाधान का भरोसा दिलाता हूँ, तब मुझे मेरे गाव के लोग याद आते हैं, जो अधिकारीयों के द्वारा अपनी समस्याओं का समाधान होने की अपेक्षा से उनकी राह देखते थे. जरुरतमंदों को ही 'आवास' मिलना चाहिए, ऐसा सफल प्रयास आज एक अधिकारी के रूप में मैं करता हूँ, तब मुझे मेरे बेघर होने के वो दिन याद आते हैं.
आज स्थिति बदल चुकी है. इतने साल सवाल ढूंढनेवाला मैं, आज जवाब ढूंढने का प्रयास करता हूँ. मेरा मानना है की, कोई भी विद्यार्थि स्कूल में जितना सीखता है उतना ही, मैं तो कहूंगा उससे अधिक इर्द-गिर्द के अनुभवों से सीखता है,सफल होता है. जिस समाज ने मुझे प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से सिखाया, काबिल बनाया, उस समाज के लिए कुछ करने का जिंदगीभर प्रयास रहेगा. जीवन में चाहें जितनी ऊँचाई पर पहुंच जाऊं, पीछे छूटे इन अनुभवों को और उनसे मिली संवेदनशीलता को मैं संजोकर रखूँगा. परीक्षा में पास होना सफलता का एक पड़ाव है, लेकिन मिले हुए पद का उपयोग लोगों के कल्याण के लिए करना और उनके चेहरे पर मुस्कान लाना ही जीत है. जनकल्याण से मिलनेवाला आत्मसम्मान और समाधान ही मेरा पुरस्कार है.
‘लोगों के लिए काम करने का जुनून ही मेरी प्रशासन में आने की प्रेरणा है और इस प्रेरणा से आखरी सांस तक बेईमानी नहीं करूँगा.’
-रमेश घोलप. भा.प्र.से.