मौजूदा वक़्त में क्रांतिकारी मीडिया की ज़रूरत और इसके कार्यभार

दैनिक समाचार

सूचनाओं, ख़बरों और विचारों के संचार के साधन के रूप में आज मीडिया का जो रूप हमारे सामने है, वह हमेशा से नहीं था। इसका आगमन पूँजीवादी व्यवस्था के आगमन से ही हुआ है। हालाँकि पहले की सामाजिक व्यवस्थाओं में भी विचारों, सूचनाओं के आदान-प्रदान के साधन रहे हैं, लेकिन पहले कभी इसकी इतनी व्यापक ज़रूरत नहीं थी। पूँजीवाद से पहले सामंतवादी व्यवस्था एक निरकुंश व्यवस्था थी, जहाँ कोई जनवाद नहीं था, बल्कि हर चीज़ शासक वर्ग द्वारा थोपी जाती थी। सामंतवादी से सत्ता जीतने के लिए नए उभर रहे पूँजीवाद ने आज़ादी, समानता और भाईचारे का नारा दिया और किसानी और अन्य मेहनतकश लोगों को सामंती निज़ाम के ख़िलाफ़ संघर्ष के लिए संगठित किया। पूँजीपति वर्ग के इन विचारों को लोगों तक पहुँचाने की ज़रूरत में से ही आधुनिक मीडिया का जन्म हुआ। छापेखाने, प्रेस की खोज इसी दौर में हुई और अख़बारों, किताबों की छपाई महत्व हासिल करती गई।

सामंती व्यवस्था का तख़्तापलट करके जब पूँजीवादी व्यवस्था स्थापित हुई तो जिस आज़ादी, समानता और भाईचारे का वायदा किया गया था, वह वफ़ा ना हुआ। आर्थिक असमानता वाले समाज में, जहाँ एक ओर मुट्ठी-भर लोग उत्पादन के साधनों, जायदाद के ऊपर क़ाबिज़ हैं और दूसरी ओर बहुसंख्या मेहनतकश आबादी ग़रीबी में जी रही है, आज़ादी और समानता की बातें ख़ानापूर्ति बनकर रह जाती हैं। लूट के रूप बदल जाते हैं और सामंती लूट की जगह पूँजीपतियों द्वारा लूट ले लेती है और सामंतों, राजाओं की जगह मेहनतकश लोगों पर पूँजीपति वर्ग और उनकी सेवक सरकारों की हुकूमत क़ायम हो जाती है। यह शासक वर्ग तरह-तरह के तरीक़ों से मेहनतकशों पर अपना राज क़ायम रखने की कोशिश करता है। इसी प्रक्रिया में पूँजीपति वर्ग के जिस मीडिया की पहले सामंतवाद के ख़िलाफ़ संघर्ष में लोगों को चेतन करने और जनवादी मूल्य देने की प्रगतिशील भूमिका थी, अब वह पूँजीवादी शासन व्यवस्था को बरक़रार रखने का औज़ार बन जाता है।

सामंतवाद की जगह आई पूँजीवादी व्यवस्था में शासक वर्ग अब पहले की तरह केवल ताक़त के दम पर राज नहीं करता, बल्कि वह लोगों से सहमति हासिल करके यह काम करता है। यानी लोगों को शासक वर्ग के नज़रिए से समाज को देखना सिखाया जाता है, ताकि उन्हें यह महसूस हो कि कुछ भी उन पर थोपा नहीं हुआ, बल्कि सब कुछ स्वाभाविक और उनकी इच्छा के मुताबिक़ हो रहा है। इसे लोगों पर विचारधारात्मक दबदबा क़ायम करना कहा जाता है। आधुनिक मीडिया या पूँजीवादी मीडिया का सबसे मुख्य काम यही है कि शासक वर्ग की विचारधारा का लोगों पर दबदबा क़ायम किया जाए, ताकि लोग इसके ख़िलाफ़ बग़ावत ना करें और इसे ज्यों का त्यों परवान करते रहें।

इस तरह ऊपर से देखने को ऐसा मालूम होता कि मीडिया सूचनाओं और विचारों का प्रसार कर रहा है, लेकिन ये सूचनाएँ और विचार भी ख़ास वर्गीय नज़रिए से प्रचारित किए जाते हैं। यह निजी जायदाद के विचार को जायज़ और स्वाभाविक बताता है और इस बात की हिमायत करता है कि कुछ लोगों को उत्पादन के साधनों के निजी मालिकाने का विशेष हक़ होना चाहिए, जिसके ज़रिए वह औरों की मेहनत की लूट करके अपनी जायदाद बढ़ा सके। यह मीडिया यदि पूँजीवादी व्यवस्था की समस्याएँ पेश करता भी है, तो वह यही कहता है कि इस व्यवस्था को बुनियादी तौर पर बदलने की ज़रूरत नहीं, बल्कि कुछ सुधार करके ही काम चल सकता है। यह कहता है कि पूँजीवादी व्यवस्था अजय है और दुनिया हमेशा से ही इसी तरह चलती आई है और इसी तरह चलती रहेगी, इसे बदला ही नहीं जा सकता।

पूँजीवादी मीडिया पूँजीवादी व्यवस्था की नक़ली आलोचना पेश करता है। नक़ली आलोचना पेश करने का मतलब है कि समस्याओं की बात तो करना, लेकिन इसके बुनियादी कारणों और इसके सही बदल पेश करने से गुरेज़ करता है। ऐसी आलोचना से लोगों में मीडिया की “आज़ादी” और “निष्पक्षता” का भरोसा बना रहता है और पूँजीवादी व्यवस्था का भी कुछ नहीं बिगड़ता। जैसे यह मीडिया असमानता, महँगाई, बेरोज़गारी और भ्रष्टाचार की बात करेगा, लेकिन कभी भी यह नहीं बताता कि इसका बुनियादी कारण उत्पादन के साधनों की मालिकी कुछ हाथों में सीमित होना है और इन साधनों को समाज की साझा जायदाद बनाकर ही ये सामाजिक समस्याएँ ख़त्म जा सकती हैं। इसकी जगह यह इसके कारण के रूप में लोगों में नुक़्स बताता है या फिर अधिक-से-अधिक सरकार की किसी नीति, किसी राजनीतिक पार्टी या पूँजीपति को इसका कारण बताता हुआ नई सरकार या नई नीतियों का विकल्प पेश करता है। लेकिन यह कभी भी नहीं कहता कि इन समस्याओं को ख़त्म करने के लिए पूँजीवादी व्यवस्था को ही बदलने की ज़रूरत है। ऐसी आलोचना पेश करते हुए वह पूँजीवादी जनवाद का भ्रम लोगों में बनाए रखता है कि यह असल जनवाद है, जहाँ एक साधारण मज़दूर और मुकेश अंबानी जैसे पूँजीपतियों को समानता हासिल है। यह पूँजीवादी जनवाद की संस्थाओं जैसे संसद, अदालतों, नौकरशाही, फ़ौज आदि की समस्याओं को पेश करता हुआ इसमें ही हल देखना, भरोसा रखना सिखाता है। इस तरह पूँजीवादी समाज में इसका उद्देश्य हुकूमत कर रहे वर्ग की विचारधारा को लोगों के दिमाग़ों में भरकर इस व्यवस्था की उम्र लंबी करना होता है।

भारत की बात करें तो इस वक़्त एनडीटीवी, न्यूज़ नेशन, इंडिया टीवी, न्यूज़ 24 और नेटवर्क-18 पाँच बड़ी संस्थाएँ हैं जिनके अधीन सैकड़ों चैनल, अख़बार और वेब-पोर्टल हैं। इन पाँचों पर तीन बड़े पूँजीपतियों मुकेश अंबानी, महिंद्र नाटा और अभय ओसवाल का नियंत्रण है। इन मीडिया संस्थाओं में बड़े स्तर पर इन तीनों का निवेश है या इनका क़र्ज़ा है। इस तरह संयुक्त राज्य अमरीका में मीडिया के 90 फ़ीसदी हिस्से पर 6 मीडिया संस्थाओं – कौमकास्ट, न्यूज़ कार्पस, डिज़नी, वायाकाम, टाइम वार्नर और सीबीएस क़ाबिज़ हैं।

इस तरह मीडिया का बड़ा हिस्सा सीधा ही बड़े पूँजीपतियों के अधीन है, जो उनकी विचारधारा को लोगों के आगे परोसने का ही काम करेगा। इन बड़े पूँजीपतियों के लिए मीडिया केवल विचारधारात्मक ग़लबे का साधन नहीं, बल्कि अच्छे मुनाफ़़े वाला कारोबार भी है। जो मीडिया संस्थाएँ इन बड़े पूँजीपतियों के अधीन नहीं होतीं, वे भी अपनी आमदनी के लिए विज्ञापनों पर निर्भर होती हैं, जो उन्हें पूँजीपतियों और सरकारों से ही मिलते हैं। लिहाज़ा उनके पास भी पूँजीपति वर्ग के ख़िलाफ़ जाने की कोई राह नहीं होती। जो कोई छिटपुट “आज़ाद” मीडिया संस्थाएँ पूँजीपति वर्ग की इस तरह प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष नियंत्रण से मुक्त होते हैं, वे भी पूँजीपति वर्ग के विश्व नज़रिए से ही चीज़ों को देखते समझते हैं और इस ढाँचे की सही आलोचना करने और इसका बदल पेश करने के सक्षम नहीं होते। जैसे भारत में हम कुछ ऐसे पत्रकार, मीडिया संस्थान देख सकते हैं, जो सरकार की नीतियों और भाजपा-संघ के फासीवाद के ज़ोरदार आलोचक हैं। लेकिन वे भी समूची पूँजीवादी व्यवस्था का बदल पेश करने की जगह सरकार, नौकरशाही और न्यायपालिका में अच्छे लोगों या पार्टियों वाली उदार कि़स्म की पूँजीवादी व्यवस्था का अमूर्त विकल्प ही पेश करते हैं।

लेकिन शासक वर्ग की विचारधारा को पूरे तौर पर लोगों की मानसिकता का हिस्सा बनाने में पूँजीवादी मीडिया कभी भी कामयाब नहीं हो सकता, क्योंकि लोगों की चेतना केवल मीडिया से ही नहीं, बल्कि सामाजिक जीवन से भी निर्मित होती है।

सामाजिक जीवन की कड़वी हक़ीक़तें पूँजीवादी मीडिया द्वारा परोसी जाने वाली शासक वर्ग की नक़ली विचारधारा से टकराती रहती हैं, जहाँ वे ख़ुद को इस पूँजीवादी व्यवस्था में पीड़ित महसूस करते हैं और इस व्यवस्था से बेज़ार होते है। असल जीवन की इस हक़ीक़त में से अपनी बेहतरी के लिए संगठित होने, संघर्ष करने की चेतना भी लेती है। लेकिन यूँ बनी चेतना स्वत:स्फूर्त होती है, जो इस व्यवस्था के ख़िलाफ़ रोष, बेचैनी तक तो पहुँच जाती है लेकिन उसके पास इसका विकल्प नहीं होता, मतलब यह स्वत:स्फूर्त चेतना इस व्यवस्था की क्रांतिकारी तब्दीली तक, समाजवादी चेतना तक नहीं पहुँचती। रूस के समाजवाद के नेता और मज़दूर वर्ग के अध्यापक लेनिन ने अपनी किताब “क्या करें” में तफ़सील से बताया था कि स्वत:स्फूर्त ढंग से मज़दूर इसी व्यवस्था में अधिक-से-अधिक हक़ लेने तक पहुँच सकते हैं, इसकी जगह नई समाजवादी व्यवस्था के सृजन के विचारों तक नहीं। वे लिखते हैं, “हम बता चुके हैं कि सामाजिक-जनवादी (कम्युनिस्ट) चेतना मज़दूरों में अपने आप पैदा नहीं होती। इसे बाहर से लेकर जाना पड़ता है। संसार के सभी देशों का इतिहास यही दिखाता है कि मज़दूर वर्ग अपने यत्नों से केवल ट्रेड यूनियन चेतना तक पहुँच सकता है, यानी इस निश्चय पर कि संगठनों में जुड़ना, मालिकों के ख़िलाफ़ संघर्ष करना और हुकूमत को लाज़िमी श्रम क़ानून पास करने के लिए मज़बूर करना।

इसका कारण यह है कि समाजवादी चेतना (या कम्युनिस्ट चेतना) समाज की वैज्ञानिक समझ में से, समाज की संरचना और विकास के नियमों की समझ में से पैदा होती है और इसे समाज विज्ञान के ज़रिए ही समझा जा सकता है। यहीं से ही क्रांतिकारी पार्टी की ज़रूरत पैदा होती है, जो सचेत तौर पर समाज की वैज्ञानिक समझ को ग्रहण करती है, मज़दूर वर्ग की विचारधारा को अपनाती है और समाजवादी (क्रांतिकारी) चेतना विभिन्न तरीक़ों से लोगों को देती है। इसी ज़रूरत में से आधुनिक जन मीडिया या पूँजीवादी मीडिया के विकल्प में किसी “आज़ाद” या “निष्पक्ष” मीडिया की नहीं, बल्कि क्रांतिकारी मीडिया की ज़रूरत पड़ती है।

उपरोक्त चर्चा से समझा जा सकता है कि क्रांतिकारी मीडिया शासक वर्ग की विचारधारा के वर्चस्व को तोड़कर मेहनतकशों को उनकी मुक्ति की विचारधारा देता है। यह पूँजीवादी व्यवस्था के जनद्रोही चरित्र को ज़ाहिर करके उनके आगे क्रांतिकारी विकल्प पेश करता है। यह बताता है कि सामाजिक समस्याओं का कारण लोग या किसी एक या दूसरी सरकार की नीतियाँ नहीं, बल्कि समूची पूँजीवादी व्यवस्था है और इसकी जगह समाजवादी व्यवस्था की स्थापना से ही ये समस्याएँ हल होंगी। इस तरह यह लोगों को समाज की वैज्ञानिक समझदारी देता है। क्रांतिकारी मीडिया मेहनतकशों को उनकी क्रांतिकारी विरासत से वाकिफ़ कराता है, क्योंकि अतीत की क्रांतिकारी विरासत से प्रेरणा लेकर ही रौशन भविष्य के सपने बुनते हैं और उनकी पूर्ति के लिए वर्तमान में संघर्ष करते हैं।

क्रांतिकारी मीडिया लोगों को वैकल्पिक संस्कृति देता है। जहाँ पूँजीवादी मीडिया सिखाता है इंसान बुनियादी तौर पर बुरे, स्वार्थी, हिंसक और लालची हैं, वहीं यह लोगों की अच्छाई में भरोसा करना सिखाता है। यह पूँजीवादी व्यक्तिवाद की जगह सामूहिक हितों को मुख्य रखकर चलना सिखाता है। पूँजीवादी मीडिया इस बात पर ज़ोर देता है कि केवल नायक महान होते हैं और जनता मूर्खों की भीड़ से अधिक कुछ नहीं होती। क्रांतिकारी मीडिया बताता है कि केवल जनता ही मानव इतिहास की वास्तवि‍क निर्माता और बदलाव की वास्तविक ताक़त होती है, कि क्रांतिकारी संघर्षों के अभ्यास में जनता की सामूहिक चेतना विकसित होती है और वह ठोस ताक़त बन जाती है। क्रांतिकारी मीडिया लोगों को मूक दर्शक बनने की जगह उनके कर्मों का रहनुमा बनता है, उन्हें मानवता की मुक्ति के लिए सक्रिय होकर अभ्यास करना सिखाता है।

लिहाज़ा क्रांतिकारी जद्दोजहद के अन्य बहुत-से रूपों के साथ-साथ क्रांतिकारी ताक़तों के लिए यह भी ज़रूरी है कि क्रांतिकारी मीडिया भी खड़ा किया जाए, जो लोगों के सामने इस पूँजीवादी व्यवस्था की सही आलोचना पेश करे, उनकी समस्याओं के वास्तविक कारणों पर रौशनी डाले और उनके सामने इसका सही क्रांतिकारी विकल्प पेश करे। ऐसा मीडिया जो छात्र-नौजवानों और मेहनतकशों को समाज की क्रांतिकारी तब्दीली के लिए काम करने के लिए प्रेरित करे और समाज की वैज्ञानिक समझदारी दे।

इस मीडिया के कई रूप हो सकते हैं – दस्ती-प्रतियों, दीवार-प्रतियों से लेकर अख़बार, पत्रिकाओं, रेडियो चैनल, प्रकाशन आदि इसके विभिन्न रूप हैं। इंटरनेट और सोशल मीडिया को भी क्रांतिकारी मीडिया के मंच के रूप में इस्तेमाल किया जा सकता है। कला विचारों के इज़हार का एक माध्यम है और क्रांतिकारी विचारधारा वाली संगीत मंडलियों, फ़िल्में आदि भी क्रांतिकारी मीडिया का ही एक अंग कहे जा सकते हैं।

ऐसे मीडिया की संरचना और कार्य-प्रणाली पूँजीवादी मीडिया जैसी नहीं हो सकती। यानी यह किसी मुनाफ़़े के लिए नहीं काम करेगा, बल्कि लोगों को क्रांतिकारी चेतना देने के मक़सद के लिए काम करेगा। इसके ख़र्चों के लिए आदमनी का स्रोत कोई पूँजीवादी संस्था, राजनीतिक पार्टी या सरकार आदि नहीं हो सकती, बल्कि यह अपने साधनों के लिए पूरी तरह मेहनतकशों पर निर्भर होगा। ऐसा मीडिया तनख़्वाहदार मुलाज़िमों के सहारे नहीं चल सकता, बल्कि यह मज़दूर वर्ग की विचारधारा जानने वाले और क्रांति के लिए समर्पित कार्यकर्ताओं के दम पर ही चल सकता है। मौजूदा वक़्त में क्रांतिदारी आंदोलन में ऐसा मीडिया मौजूद है, लेकिन इसे और अधिक मज़बूत और प्रभावशाली बनाने की ज़रूरत है।

मुक्ति संग्राम – बुलेटिन 17 ♦ अप्रैल 2022 में प्रकाशित

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