कश्मीर मुद्दे की जीवंत पेशकारी : संजय काक की दस्तावेज़ी फि़ल्म ‘जश्न-ए-आज़ादी’

दैनिक समाचार

‘कश्मीर फ़ाइल्स’ फि़ल्म के रिलीज होने के बाद कश्मीर का मुद्दा और ख़ासकर कश्मीरी पंडितों के पलायन का मुद्दा एक बार फिर से चर्चा का विषय बना हुआ है। संघ के एजेंडे के तहत बनाई गई यह फि़ल्म आम कश्मीरी नागरिकों को कश्मीरी पंडितों के पलायन का दोषी बनाकर पेश करती हुई हुक्मरानों की कश्मीर व्याख्या को लोगों के मनों में बिठाकर लोगों में सांप्रदायिक फूट डालने और अंधराष्ट्रवाद भड़काने की घटिया कोशिश है। वैसे तो बॉलीवुड में बनने वाली हर तीसरी फि़ल्म ऐसी ही होती है, लेकिन इस फि़ल्म में कश्मीरी पंडितों के पलायन का मुद्दा संघ की विचारधारा में लिपटा हुआ होने के कारण कश्मीरी मुसलमानों के ख़िलाफ़ संघ के प्रचार का एक बड़ा हथियार बन गई है। इस फि़ल्म में पेश किए गए तथ्य सच्चाई से कोसों दूर हैं। काल्पनिक वृतांत रचकर, भारतीय राज्य-सत्ता लोगों से वास्तविक तथ्यों/वृतांतों को छिपाने की कोशिश कर रही है। जिन्हें भारतीय राज्य-सत्ता और उसका मीडिया छिपाने की कोशिश कर रहा है, कुछ ऐसे ही सच्चे तथ्यों पर अधारित है, संजय काक की दस्तावेज़ी फि़ल्म ‘जश्न-ए-आज़ादी’, जोकि 2007 में बनी थी।

यह फि़ल्म दिखाती है कि 1947 में भारत की आज़ादी और विभाजन के समय जम्मू-कश्मीर एक स्वतंत्र राज्य था। जब हिंदू जागीरदारों और राजशाही के ख़िलाफ़ मुस्लिम किसान संघर्ष लड़ रहे थे। इसके बाद ज़मीन हल चलाने वालों को मिली। शेख अब्दुल्ला द्वारा 1951 में किए गए भूमि सुधारों की हालाँकि सीधे तौर पर चर्चा नहीं आती, जिसे हो सकता है ज़्यादा विस्तार से बचने के लिए निर्देशक ने छोड़ दिया हो, वैसे कला में कुछ अनकही बातों के अस्पष्ट अर्थ होते हैं।

इस फि़ल्म के पहले दृश्य की शुरुआत श्रीनगर के ‘शहीदों की क़ब्रों’ से होती है, जिसमें 1989-1991 के दौरान फ़र्जी पुलिस मुठभेड़ों या तथाकथित आतंकवादियों और सेना के बीच मुठभेड़ों में मारे गए नौजवान/ लोग दफ़न हैं। वहीं, साथ ही फि़ल्म में 1989-1991 की घटनाओं के दृश्य चलते हैं जो भारतीय हुकूमत के प्रति कश्मीरी लोगों की नफ़रत को दर्शाते हैं। इस दौरान हुए बड़े-बड़े रोष-प्रदर्शनों और कश्मीरी लोगों की भारतीय राज्य-सत्ता से स्वतंत्रता की आकांक्षाओं और आशाओं को उसी रूप में प्रस्तुत किया गया है। इन प्रदर्शनों को सेना द्वारा ख़ून की नदियों में डुबाने के उदाहरण भी हैं। इसी तरह, 2003-2004 के दौरान पुलिस मुठभेड़ों वाली लाशें, जो कुपवाड़ा के एक क़ब्रिस्तान में आती हैं, उनका वर्णन एक खुदाई करने वाला लड़का करता है, जो दिल दहलाने वाला है; उनके मुताबिक़ यहाँ सिर्फ़ फ़र्जी पुलिस मुठभेड़ों की लाशें ही आती हैं, जो बुरी हालत में होती हैं और साल 2003 का जि़क्र करते हुए वह बताता है कि उस साल ऐसी 13 लाशें आई थीं। एक ही परिवार के तीन-तीन लड़के पुलिस मुठभेड़ में मारे जाते हैं। 1989-91 में कश्मीर का शायद ही कोई ऐसा गाँव होगा, जहाँ का कोई नौजवान सेना ने ना मारा हो। फि़ल्म में एक बूढ़ा आदमी अपने गाँव के 1989 से 2004 तक 42 लड़के पुलिस मुठभेड़ में मारे जाने के बारे में बताता है। माँओं का दिल टूट जाता है, बाप अपने बेटों की अर्थी को कंधा देते हैं। तेकीपुरा में दो तथाकथित आतंकियों के शक में सेना द्वारा पूरा मोहल्ला तबाह कर दिया जाता है, जो ग़रीबों का मोहल्ला है। दक्षिण कश्मीर में दो नागरिकों को सैनिक गोली मार देते हैं। तब भी कई घर तबाह हो जाते हैं। कश्मीर में अफ़स्पा के तहत कैसे सेना किसी भी नौजवान को उठाकर ले जाती है, उसे यातनाएँ देती है या मार देती है। इसका उदाहरण जम्मू-कश्मीर कोलेशन सोसायटी के सर्वेक्षण के एक उदाहरण से फि़ल्म दिखाती है कि कैसे बीएसएफ़ बांदीपोरा से एक नौजवान को उठाकर ले जाती है और गोली मार देती है। हालाँकि फि़ल्म में ऐसे दो उदाहरण हैं, लेकिन ये दो उदाहरण सत्ता द्वारा कश्मीर में निर्दोष लोगों के ख़ून की सेना द्वारा खेली गई होली की गवाही देते हैं।

कश्मीर का आधुनिक इतिहास ऐसे कई उदाहरणों से भरा पड़ा है। कश्मीर की ख़ूबसूरती संगीनों के नीचे गिड़गिड़ाती दिखाई देती है। हालाँकि कश्मीरी भारत और पाकिस्तान के शासकों की नापाक चालों का शिकार रहे हैं, लेकिन कश्मीर में सीधा सैन्य हस्तक्षेप, जो कि जघन्य है, होने से भारतीय सत्ता के प्रति ग़ुस्सा है, जो 1980 के दशक में विद्रोह के रूप में सामने आया है।

1989-91 में जो आंदोलन उठे फि़ल्म उनको बख़ूबी पेश करती है। हर वक़्त निगरानी, तलाशी, मुठभेड़, फ़र्जी मुठभेड़ में बेहाल कश्मीरी अवाम। 1992-93 में मुजाहिदीन के जनाज़ों पर लोगों की भीड़ भारतीय सत्ता के प्रति लोगों की नफ़रत को दर्शाती है।

इसी तरह निशांत ज़बर, पाटान ऑपरेशन, गुर्जरपट्टी, करहमूर, बांगरगुंड आदि सैन्य अभियानों में मारे गए बेगुनाहों/आतंकवादियों की भी चर्चा है, जिसमें आम जनता संगीनों की नोकों तले कैसे पिस रही है, उसको बख़ूबी पेश किया गया है। शहीदों के अंतिम संस्कार में स्वतंत्रता के नारे भारतीय शासन से स्वतंत्रता की दृढ़ इच्छाओं का प्रतिनिधित्व करते हैं। ऐसा ही माहौल हमें 2016 में हिजबुल्लाह के कमांडर बुहरान वानी की मौत के बाद देखने को मिला था। फि़ल्म में जे.के.एल.एफ़. के नेता यासीन मलिक का एक भाषण भी है, जो दमनकारी भारतीय सत्ता के प्रति घृणा को दर्शाता है। 1978 में अपनी स्थापना के बाद से जे.के.एल.एफ़. एक धर्मनिरपेक्ष संगठन था, जो दोनों कश्मीरों को भारत और पाकिस्तान से स्वतंत्रत करवाना चाहता था, लेकिन 1984 में इसके नेता मक़बूल भट्ट को फाँसी लगाने पर यासीन मलिक के कई साल जेल में रहने के बाद इसका सुर नरम पड़ा है। कवि ज़रीफ़ जैसे कवियों की कविताओं में कश्मीरी लोगों के दर्द की गहराई का वर्णन किया गया है।

भारतीय सेना द्वारा मुट्ठी-भर अनाथ बच्चों के “पालने-पोसने” के ड्रामे को भी फि़ल्म में दिखाया गया है। जो ऐसे है, जैसे कोई आपके माता-पिता को मार डाले और आपकी देखभाल की जि़म्मेदारी उठा ले। वास्तव में, सत्ता के ऐसे क़दम गै़र-सरकारी संगठनों के माध्यम से यह प्रभाव बनाने के लिए उठाए जाते हैं कि भारतीय सेना कश्मीरियों के “भले” के लिए काम कर रही है, लेकिन ये कश्मीरी हैं जो सेना के ख़िलाफ़ बंदूकें़ लेकर चलते हैं। इस डर के साए में रहकर कई कश्मीरी लोग/बच्चे मानसिक रोगों (पोस्ट ट्रॉमेटिक स्ट्रेस डिसऑर्डर) के शिकार हैं, जिसका जि़क्र फि़ल्म में एक मनोरोग अस्पताल के दृश्य से किया गया है।

जिसमें एक बच्ची अपने पिता के ख़ून से लथपथ लाश को देखकर डिप्रेशन में चली गई। इनमें से कुछ मामलों में कुछ बच्चों को विज्ञापन के लिए भाड़े के “मोटीवेशनल ट्रेनरों” द्वारा व्याख्यान दिए जाते हैं। फि़ल्म में भारतीय कूपमंडूकों की मध्यवर्गीय मानसिकता को भी पेश किया गया है, जो मोटे पेट पर लेज़ का पैकेट रखकर रिपब्लिकन ब्रांड टीवी चैनलों से अपना “ज्ञान” हासिल करते हैं। ये सभी मानते है कि कश्मीर एक स्वर्ग है, लेकिन साथ ही कोई कहता है, “लेकिन इन बेवक़ूफ़ (कश्मीरियों) लोगों ने इसे बर्बाद कर दिया है”। “कश्मीर फ़ाइल्स” जैसी फि़ल्में जो कश्मीरियों को आतंकवादी के रूप में पेश करती हैं, के बजाय, यह दस्तावेज़ी फि़ल्म सच्चे तथ्यों पर आधारित है। निर्देशक/लेखक ने कोई मिथ्या वृतांत नहीं रचा, जो उनके दिमाग़ की उपज हो। बल्कि, ये वही तथ्य हैं जो कि कश्मीरियों ने अब तक सहा है और अब भी सह रहे हैं। वो तथ्य जो सत्ता के कश्मीर में किए बंद दरवाज़ों के सुराख़ों से किसी तरीके़ से बहादुर पत्रकार और लोग बाहर ले आते हैं।

वैसे तो मुक्ति संग्राम के कई अंकों में कश्मीर समस्या और उसके इतिहास के बारे में लिखा गया है। लेकिन हम यहाँ भी संक्षेप में दुबारा दोहराते हैं। 1947 के बाद जब गिलगिट पर पाकिस्तान के कहने पर क़बीलों ने क़ब्ज़ा कर लिया और पाकिस्तान ने वहाँ सेना भेजी, जिसके जवाब में भारत ने कश्मीर में सेना भेजी। तब से, कश्मीरी लोग भारत-पाकिस्तानी शासकों के हितों की चक्की में पिस रहे हैं। पाकिस्तानी क़ब्जे़ के बहाने, भारत सरकार ने कश्मीरी लोगों के साथ जनमत संग्रह कराने के अपने वादे से मुकर गई। पाकिस्तान के क़ब्जे़ वाले कश्मीर पर पाकिस्तान के क़ब्जे़ के बाद, कश्मीर के राजा हरि सिंह कुछ शर्तों – मुद्रा, विदेशी मामले, आदि – के तहत भारत में शामिल हुए थे, जिसमें कश्मीर में जनमत संग्रह करवाना भी शामिल था। लेकिन पाकिस्तानी क़ब्जे़ के बहाने नेहरू ने भी कश्मीर में सेना भेजी और जनमत संग्रह से मुकर गया। 1951 से लेकर 1981 तक, कश्मीरी लोग अपने अस्तित्व की लड़ाई, आत्मनिर्णय के अधिकार के लिए शांतिपूर्वक संघर्ष करते रहे, जो भारतीय राज्यसत्ता द्वारा बेरहमी से कुचल दिए गए। शांतिपूर्ण रोष प्रदर्शनों पर हुई गोलीबारी में सैकड़ों कश्मीरी मारे गए। 1980-81 में जे.के.एल.एफ़. जैसे धर्मनिरपेक्ष संगठनों सहित कश्मीरियों पर बर्बर दमन के बाद ही कश्मीरियों ने हथियार उठाए। 1984 में जे.के.एल.एफ़. के मक़बूल भट्ट को फाँसी दी गई थी। इसके बाद ही कश्मीर के ख़ूनी इतिहास की शुरुआत होती है। बेशक, पाकिस्तान भी कश्मीरियों की भारत से अंतरविरोध का फ़ायदा उठाकर हिज़बुल्लाह जैसे कई आतंकवादियों को कश्मीर भेजता है, जो गै़र-मुस्लिम कश्मीरियों को धमकाते और मारते हैं। यह ऐसे है जैसे कि भारत बलोचिस्तानियों के राष्ट्रीय संघर्ष में उनकी मदद करता है। लेकिन ऐसी “मदद” शासक वर्ग के हित के अनुसार होती है, जिनका लोगों या जन आंदोलनों से कोई लेना-देना नहीं होता। उसी समय कश्मीरी पंडितों का पलायन शुरू हो जाता है, जो भारतीय हुकूमत की बनाई गई योजना के तहत हुआ था। भारत सरकार के गवर्नर उस वक़्त जगमोहन था, जिसने गै़र-कश्मीरियों और कश्मीरी पंडितों को सुरक्षा देने के बजाय, उन्हें कश्मीर से निष्कासन का आदेश दिया और उनके कश्मीर छोड़ने की व्यवस्था की। ताकि कश्मीरी पंडितों के नाम पर राजनीति की जा सके, दूसरा उन्हें निकालकर कश्मीरियों का क़त्लेआम आसान हो सके। कश्मीरी पंडितों पर राजनीति करने वाली केंद्र की हुकूमत और संघ ने कभी भी कश्मीरी पंडितों के लिए कुछ नहीं किया, सिवाए इस मुद्दे पर राजनीतिक रोटियाँ सेंकने के। हिंदुत्व के नाम पर राजनीति करने वाले संघ का दलितों, मज़दूरों, महिलाओं, आदिवासियों आदि के साथ वैसे ही कोई लेना-देना नहीं, जैसे कश्मीरी मुसलमानों सहित भारत के सभी मुसलमानों के साथ। दरअसल संघ हिंदुत्वी फासीवाद साम्राज्यवादियों और पूँजीपतियों की ज़ंजीर से बँधा कुत्ता है, जो उनके इशारे पर भौंकता है।

– कुलदीप बठिंडा

मुक्ति संग्राम – बुलेटिन 17 ♦ अप्रैल 2022 में प्रकाशित

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