अंबेडकर ने पूंजीवादी समाज की बढ़ती असमानता पर चिंता व्यक्त की है.हम उनकी इस चिंता के साझीदार हैं, लेकिन प्रश्न उठता है कि पूंजीवाद में जो लगातार वर्गों के बीच में आर्थिक असमानता गहराती जा रही है, चंद हाथों में पूंजी और साधनों का जो संकेंद्रण होता जा रहा है, फटेहाल और जीवन के साधनों से वंचित आबादी बढ़ती जा रही है, उससे निदान के लिए रास्ता क्या होगा?
अंबेडकर ने लिखा है,“हमें यह बात संज्ञान में लेते हुए ही बात शुरू करनी चाहिए कि भारतीय समाज में दो चीजों का सिरे से अभाव है.
इनमें से एक है समानता. सामाजिक स्तर पर, भारत में हम एक श्रेणीबद्ध असमानता के सिद्धांतों पर आधारित समाज में रहते हैं…इनमें से कुछ के पास अकूत संपदा है, दूसरी तरफ वे लोग हैं जो भीषण गरीबी में दिन गुजारते हैं.
26 जनवरी, 1950 से हम अंतर्विरोधों के एक युग में प्रवेश करने जा रहे हैं. राजनीति में हमारे पास समानता होगी, सामाजिक व आर्थिक जीवन में असमानता. राजनीति में हम ‘हर व्यक्ति एक मत’ और ‘हर मत एक मूल्य’ के सिद्धांत को मानेंगे.
अपनी सामाजिक और आर्थिक संरचनाओं के कारण हम सामाजिक और आर्थिक जीवन में एक व्यक्ति एक मूल्य के सिद्धांत को नकारना जारी रखेंगे.
अंतर्विरोधों भरे इस जीवन के साथ हम कब तक जिएंगे?”
(अम्बेडकर, स्पीच इन द कांस्टीट्युएंट असेंबली आन एडाॅप्शन ऑफ द काॅन्स्टिट्यूशन, 25 नवंबर, 1949; जोर लेखक का)
अंबेडकर ने शासक वर्गों की जमात में राष्ट्र के निर्माण की अवधारणा को पेश करते हुए असमानता को कम करने पर जोर दिया है.
यहां प्रश्न उठता है कि पूंजीवाद और पूंजीवादी लोकतंत्र के विकास के साथ क्या असमानता की खाई घटाई जा सकती है?
पिछले 200 वर्षों का जो अनुभव है, अमेरिका, यूरोप और जापान जैसे विकसित पूंजीवादी राष्ट्रों और लोकतंत्र के सामाजिक आर्थिक संरचना की जो तस्वीर है, वह हमें क्या बताता है ?
क्या विगत सदियों में इन समाजों में असमानता की खाई घटी है या बढ़ी है?
–इस प्रश्न पर विचार किया जाना चाहिए और पूंजीवाद के अंतर्विरोध को हल करने के लिए जिस वैचारिक और राजनीतिक क्रांति के रूप में, बाह्य रूप से हस्तक्षेप की जरूरत है, उस पर विचार करना चाहिए.
यह प्रश्न किया जाना चाहिए कि अंबेडकर इसके लिए बाहर से हस्तक्षेप और पूंजीवाद के इस अंतर्विरोध को हल करने के लिए किन सिद्धांतों को प्रतिपादित किया?
अंतर्विरोधों से भरे हमारे समाज में, पूंजी के शासन में मेहनतकश वर्ग पूंजी के मालिकों को सत्ता और साधनों के वर्चस्व से कैसे बेदखल करेगा, मूल प्रश्न यह है!
अंबेडकर इस प्रश्न को कैसे देखते हैं और इस प्रश्न को हम सबों को कैसे देखना चाहिए इस पर विचार होना चाहिए…
बुद्ध धम्म कोई विकल्प है तो बौद्ध देशों में इस दिशा में क्या हाल है?