द्वारा : हरीश चंद्र गुप्ता
घटना तो सच्ची है लेकिन हम जगह का नाम नहीं दे रहे हैं।
एक विश्वविद्यालय के दो छात्र हाॅस्टल आमने-सामने थे, बीच में कुछ पार्क टाइप की जगह थी! हास्टल लाइफ़ में कोई मनोरंजन और एक्टिविटी होती रहती है। उन दोनों हाॅस्टल्स की ये काॅमन एक्टिविटी थी कि जब कभी रात में बिजली गई तो छात्र अपने कमरों से निकल कर अपने-अपने हाॅस्टल के सामने इकट्ठा हो गये और फिर ‘प्रोग्राम’ शुरू कर दिया! चीख़-चीख़ कर दूसरे हाॅस्टल वालों को ललकारना, धमकियां भी दे देना, ये कर देंगे, वो कर देंगे, हलकी-फुलकी गालियां भी दे देना। जब तक बिजली नहीं आती थी, ये प्रोग्राम चलता रहता था। होता ज़बानी था, कोई झगड़ा नहीं, अंधकार का टाइम-पास या मनोरंजन काल होता था। हर हाॅस्टल में वार्डन का रूम भी हुआ करता था। वार्डन कोई लेक्चरर हुआ करते थे।
वार्डन ऐसे मौक़े पर अपने कमरे में बैठे रहते थे। कुछ शरीफ़ और सीरियस छात्र भी इस हुड़दंग से दूर रहते थे। जैसे ही बिजली आती थी, फ़ौरन ख़ामोशी छा जाती थी और सारे के सारे हुड़दंगी छलांगें लगा के अपने-अपने कमरों में।
एक हाॅस्टल का दृष्टि से दिव्यांग (नेत्रहीन) एक छात्र भी इस ‘एक्टिविटी’ में शामिल हो जाया करता था। एक रात बिजली जाने के बाद यही सब चल रहा था कि बिजली आ गई और छात्र तुरंत अपने कमरों में घुस गये। उस दिव्यांग छात्र को कुछ इतना जोश चढ़ा हुआ था कि अपनी चीख़-पुकार में उसे पता ही नहीं चला कि बिजली आ गई है, ख़ामोशी छा गई है और दोनों होस्टल के छात्र अपने कमरों में जा चुके हैं। वह अकेला बाहर खड़ा चीख़े जा रहा था। वार्डन बाहर निकल कर आए और उसके कंधे को थपथपा कर कहने लगे कि बिजली आगई है, अब जाओ अपने रूम में !
अंधेरा काटे न कटे तो हुड़दंग भी होता है।