Ashok Kumar
पूंजीवादी व्यवस्था की यह विशेषता है कि इसमें सामंती अवशेषों के रूप में जातियों का अस्तित्व तो रहता है, और पूंजीवादी व्यवस्था के मौजूद रहने तक रहेगा ही, लेकिन सामंती व्यवस्था की तुलना में, पूंजीवादी व्यवस्था के खुलेपन के कारण इस व्यवस्था में, कोई भी पूरी जाति शोषित नहीं रह जाती, और न ही कोई पूरी जाति शोषक ही रह जाती है.
इसीलिए पूंजीवादी व्यवस्था में, शोषित और पीड़ित जाति से संबंधित हो जाने मात्र से ही, कोई व्यक्ति या समूह क्रांतिकारी या कम्युनिस्ट नहीं हो जाता.
यही कारण है कि इस पूंजीवादी व्यवस्था में, क़रीब-क़रीब सभी दलित नेता और दलित बुद्धिजीवी, अपने निजी आर्थिक और राजनीतिक स्वार्थों की ख़ातिर, शासकवर्ग के साथ मिलकर, आम मेहनतकश दलितवर्ग के शोषण और दमन की प्रक्रिया में सहायक हो रहे हैं.
दूसरी ओर, अनेकों उच्चवर्णीय ब्राह्मण, आर्थिक और सामाजिक रूप से संपन्न होने के बावजूद, शोषण और दमन की पूंजीवादी प्रक्रिया के ख़िलाफ़ संघर्षों के नेतृत्व कर रहे हैं.
क्रांतिकारी विचारों का व्यक्ति वही हो सकता है, जो वर्गों के अस्तित्व को स्वीकार करता हो, जो जाति संघर्षों की बजाए वर्गसंघर्षों में यक़ीन करता हो, और वर्गहीन तथा जातिहीन समाजवादी समाज की स्थापना को अपने तमाम संघर्षों का आत्यंतिक लक्ष्य मानता हो.
इससे कोई फ़र्क नहीं पड़ता कि वह किसी दलित जाति से संबंधित है, या किसी उच्च जाति से.
कॉमरेड लेनिन की यह सीख कितनी सही है कि, “क्रांतिकारी विचार या क्रांतिकारी सिद्धांतों के बिना, न तो कोई व्यक्ति क्रांतिकारी हो सकता है, और न ही कोई क्रांतिकारी आंदोलन ही संभव हो सकता है.”
इसीलिए दमित और पीड़ित होने मात्र से ही कोई व्यक्ति या समूह क्रांतिकारी हो जाएगा,- यह एक भ्रांत धारणा है. अम्बेडकर एक अति उच्च शिक्षित और शूद्र वर्ण से संबंधित होने के बावजूद कोई क्रांतिकारी नेता नहीं थे. वे स्वयं ही ख़ुद को एक सुधारवादी दलित नेता ही मानते थे.
इसीलिए आज लगभग समूचा दलितवर्ग अम्बेडकर से प्रभावित होने के कारण, सुधारवाद की गहरी खाई-खड्ड में पड़ा हुआ है.
इसीलिए यह मानना कि दलितवर्ग पूरे तौर पर कोई क्रांतिकारी वर्ग है, सही नहीं होगा. हां, कुछ दलित जिन्होंने वर्गचेतन होकर वर्ग संघर्षो को समझ लिया हो, और जिन्होंने वर्गों के समूल उन्मूलन के सिद्धांत को आत्मसात करके, उसे अपने जीवन का लक्ष्य बना लिया हो, ज़रूर क्रांतिकारी की श्रेणी में शुमार हो गए हैं.
लेकिन उनके क्रांतिकारी होने का कारण केवल दलित होना नहीं है, बल्कि उनके क्रांतिकारी होने का मुख्य कारण उनके क्रांतिकारी विचारधारा और क्रांतिकारी सिद्धांतों से लैस होना है.
लेकिन क्रांतिकारी विचारधारा से लैस होकर कोई भी दलित, दलित नहीं रह जाता. यह पहली क्रांति स्वयं व्यक्ति के भीतर घटित होने लगती है, लेकिन फ़िलहाल दलितों में ऐसे लोगों की संख्या बहुत ही कम दिखाई देती है. इसीलिए अम्बेडकर और उनके सुधारवाद से मुक्त होने पर ही किसी दलित व्यक्ति या या दलित समूह के भीतर प्रगतिशील और क्रांतिकारी होने की संभावनाएं पैदा हो सकती है.
वर्गों में बंटे समाज में, सुधारवाद हमेशा ही शासकवर्ग की समर्थक और क्रांतिकारी विचारधारा की विरोधी धारा रही है.
क्रांतिकारिता हमेशा ही श्रम के शोषण और निजी संपत्ति के स्वामित्व पर आधारित व्यवस्था के समूल उन्मूलन पर ज़ोर देती है, और यही उसका आत्यंतिक लक्ष्य भी होता है, क्योंकि मनुष्य द्वारा मनुष्य के श्रम का शोषण और निजी संपत्ति का स्वामित्व पृथ्वी पर मौजूद सभी तरह के पापों, अपराधों के साथ-साथ वर्णव्यवस्था और जातिवाद जैसी अमानवीय, क्रूर, हिंसक और आतंकी संस्थाओं का भी मुख्य और मूल आधार रहे हैं.
इसके विपरीत, सुधारवाद एक ऐसी धारा रही है, जो शोषण और दमन के इन मूल आधारों को बरक़रार रखते हुए, उसमें सिर्फ़ आरक्षण जैसी छोटी-मोटी आर्थिक रियायतों और छुटपुट राजनीतिक सुख-सुविधाओं की ही मांग करते हुए संतुष्ट रहती है.
यह सुधारवादी धारा भारत में ही नहीं, बल्कि दुनिया के सभी देशों में पाई जाती है.
इस सुधारवादी धारा का मुख्य नारा रहा है, संघर्ष ही सब कुछ है, अंतिम लक्ष्य कुछ भी नहीं!
ऐसे सुधावादी आंदोलनों का हश्र, आंखों पर पट्टी बांधे कोल्हू के उस बैल की तरह होता है, जो चलता तो दिनरात है, लेकिन पहुंचता हुआ कहीं भी दिखाई नहीं पड़ता.
दूसरी ओर, क्रांतिकारिता, वर्ग संघर्षों के साथ-साथ, वर्गों के समस्त आधारों को समूल नष्ट कर देने को अपने समस्त संघर्षों का आत्यंतिक लक्ष्य घोषित करती है.
सुधारवाद और क्रांतिकारिता के बीच यही मुख्य फ़र्क़ है.