आप हमारे चेहरे पर दाढ़ी नहीं देख सकते.
आप हमारे सर पर टोपी नहीं देख सकते.
आपको हमारी प्लेट में पड़े उस खाने से भी दिक़्क़त है.
आपको बुर्क़ा और हिजाब से भी परेशानी है.
आपको मस्जिद के उस लाऊड स्पीकर से भी परेशानी है जिससे आज़ान की आवाज़ आती है.
आपको परेशानी क़ुरबानी करने से भी है..
आप जमात के लोग और क़ाफ़िले से भी चिढ़ते हैं.
आपको हमारे इज्तेमा से भी बेहद परेशानी है.
लेकिन
हमें आपके ऋषि मुनियों से लेकर मंदिर के महंत और शंकराचार्य की दाढ़ी से दिक़्क़त नहीं.
हमें आपके माथे पर लगे उस तिलक से भी परेशानी नहीं.
हमें आपके शराब खाने पीने और परोसने पर भी आपत्ति नहीं.
हमें उस पंडाल और उस माता की चौकी से भी दिक़्क़त नहीं जिससे भजन कीर्तन की आवाज़ आती हैं.
हमें उस घूँघट प्रथा से भी रत्ती भर परेशानी नहीं जो आपकी माता बहने गांव में करतीं हैं.
और न हमें उस बलि प्रथा से दिक़्क़त है जो आप काली माता को भेंट करते हो..?
हमें आपके कांवड़िया बंधुओं से भी कोई परेशानी नहीं.
हमें आपके समागमों से भी कोई बाधा नहीं।
जानते हैं क्यों.?
क्योंकि हमारा इस्लाम जितनी इज़्ज़त अपने लिए करने को कहता है, उतनी ही दूसरे मज़हबों का सम्मान देने का हुक़्म देता है.
और हाँ आपकी बातों से यही लगता है कि आपको उपरोक्त बातों से नहीं, बल्कि इस्लाम से दिक़्क़त है,
लेकिन जान लीजिए इस्लाम आपकी मुख़ालफ़त के बाद भी बढ़ रहा है और बढ़ता ही जा रहा है और इंशाअल्लाह बढ़ता ही जाएगा।
(साभार)