पिछले कई बरसों से भगत सिंह, चंद्रशेखर आजाद, राजगुरु व सुखदेव इत्यादि के शहादत दिवस मनाने का रिवाज बढ़ रहा है । चंद्रशेखर का शहादत दिवस 27 फरवरी को और भगत सिंह, राजगुरु, सुखदेव का 23 मार्च को। ऐसा करना अच्छा है, करना भी चाहिए ।
परंतु उनके शहादत दिवस को मनाना क्या केवल इस हद तक सीमित हो कि उस दिन विभिन्न लोग इकट्ठे हो। चंद्र लोग उनकी बहादुरी त्याग, बलिदान के गीत व कविताएं गायें व दूसरे लोग नाटक करें, और चंद एक बुद्धिजीवी उनके त्याग — बलिदान के साथ-साथ उनके विचारों और सिद्धांतों की अपने भाषणों में चर्चा करें और ऐसा करके सब लोग प्रसन्नचित हों कि उन्होंने शहीदों का शहादत दिवस मनाकर एक महान कार्य किया है ?
क्या शहीदों का महत्व केवल उनकी याद करना गाने –गाना व भाषण देने तक ही सिमित होना चाहिए, अथवा इसका कुछ दूसरा महत्व भी होना चाहिए ? इस प्रश्न का सर्वाधिक न्यायोचित उत्तर उन शहीदों से ही मिल सकता है ।
कैसे ? उन्होंने अपने विचारों को केवल विचार जगत तक ही सीमित नहीं रखा था । केवल बहसे चर्चाएं नहीं की थी । केवल नाटक भाषण ही नहीं किए थे, बल्कि इसके एकदम विपरीत उन्होंने अपने विचारों को व्यवहारों में उतारा था।
उनके विचार व व्यवहार अलग-अलग या परस्पर विरोधी नहीं थे; बल्कि एक जैसे थे । आज हम उनके विचारों की चाहे जैसे भी आलोचनाएं अथवा प्रशंसायें कर ले, परंतु यह आलोचना कोई माई का लाल नहीं कर सकता कि उन्होंने अपने विचारों को व्यवहारों में नहीं उतारा था अथवा उनके विचारों व व्यवहारों में अन्तर्भेद था ।
उदाहरणर्थ : शहीदों में से कई एक शहीद अगर धार्मिक थे जैसे —राम प्रसाद बिस्मिल, रोशन सिंह, अशफाकउल्ला खान तो उन्होंने इसे कभी नहीं लुगाया छुपाया। दूसरी ओर यदि भगत सिंह इत्यादि गैर धार्मिक अधर्मी थे तो इसे भी उन्होंने खुलकर कहा और धार्मिक भावना वाले शहीदों की आलोचनाएं करते हुए उनके बहादुरी व बलिदानों की हिकभर प्रशंसायें की। उनमें कहीं कोई आपसी दुराव –मनमुटाव नहीं था, ऐसी दर्जनों उदाहरण मिलेंगे।
इसीलिए उन्हीं से सबक सीखते हुए हमें सोचना विचारणा चाहिए कि क्या हम उन शहीदों की याद में केवल नाटक करें ? केवल भाषण बहस करें, गायें बजाएं, चाहे भगत सिंह, चंद्रशेखर की याद में अथवा बिस्मिल, रोशन की याद में अथवा खुदीराम बोस, सूर्य सेन की याद में अथवा इनसे पहले के 1857 के स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों की याद में ?
क्या हमारा यह कर्तव्य नहीं है कि हम भी अपने विचारों असूलों के अनुसार व्यवहारिक आचरण भी बनायें ? अपन से पूछें कि क्या हम उन शहीदों को मनाते हुए उनके विचारों व उद्देश्यों का समर्थन करते हैं तो क्या आज हम उनके विचारों व उद्देश्यों को लागू करते हैं ? अथवा उन्हें लागू करने हेतु प्रयासरत है ? अथवा ऐसे प्रश्नों को टालते टकराते रहते हैं ? शहीदों को याद करके केवल मौज मेला मनाते हैं, जैसे कई अन्य बड़े-बड़े राजनीतिक दलों के कार्यकर्ता करते रहते हैं जब वे नेहरू जयंती, लोहिया जयंती, गांधी जयंती, अंबेडकर जयंती मनाते हैं तथा रामलीला व कृष्ण लीला करने वाले नाटक करते हैं ? हमारा कर्तव्य है इस प्रश्न पर अवश्य सोचें ।
हम इसी संदर्भ में निम्नलिखित सुझाव या प्रश्न आपके सामने प्रस्तुत कर रहे हैं ।
सर्वप्रथम भगत सिंह, चंद्रशेखर, सुखदेव, दोहरा इत्यादि के “हिसप्रस” नामक संगठन के विचारों व उद्देश्यों को जान लें, ये निम्नलिखित थे ।
(1) ब्रिटिश साम्राज्यवाद के विदेशी शासन से हिंदुस्तान को स्वतंत्र करवाना और इस उद्देश्य के वास्ते निरंतर जुझारू संघर्ष करना।
(2) जब उन्होंने यह देखा कि स्वतंत्रता आंदोलन की अगुआ पार्टी —गांधी, नेहरू, पटेल की कांग्रेस हर आंदोलन के पश्चात अंग्रेजों से समझौता कर लेती है । आंदोलन वापस लेती है और जो समझौता होता है वो समझौता यहां के आम लोगों के हितों में नहीं होता केवल भारती पूजीपतियों के हितों में होता है तो भगत, चंद्रशेखर इत्यादि इत्यादि ने नया निर्णय करके नया उद्देश्य बनाया। वह यह था कि ऐसे समझौतों व समझौतावादियों का विरोध हो और इन्हें नंगा किया जाए । ब्रिटिश साम्राज्यवादियों का राज खत्म करने के साथ ही भारतीय पूंजी पतियों का भी विरोध हो अतः पूंजीवादी व्यवस्था का खात्मा कर दिया जायें।
(3) इसी संदर्भ में निर्णय हुआ कि पूंजीवादी व्यवस्था को उखाड़कर इसकी जगह समाजवादी व्यवस्था कायम जाय, जिसमें मजदूरों,किसानों का राज हो ।
(4) इस उद्देश्य के वास्ते मजदूर, किसान व मध्यम वर्गीय सतत् वर्ग संघर्ष चलायें जो त्याग व बलिदान की भावना से भरे हो ।
(5) उन्होंने यह भी देखा कि अंग्रेज शासक स्वतंत्रता आंदोलन को बांटने व तोड़ने के लिए हिंदुओं और मुसलमानों के बीच सांप्रदायिक झगड़े व तनाव पैदा करते रहते हैं। अफसोस यह है कि कई धर्मों पर आधारित भारती दल भी यही कार्य करते हैं, जैसे ——मुस्लिम लिंग, हिंदू महासभा, समाचार पत्र सांप्रदायिकता भड़काने रहते हैं । पूजीपति इसमें हाथ सेकते हैं ।
ऐसी स्थिति में स्वतंत्रता आंदोलन की एकता हेतु आवश्यक है कि संप्रदायवादी व धर्मवादी दलों व उसके नेताओं का विरोध हो। भड़काऊ समाचार पत्रों का विरोध हो। पूजीपतियों का विरोध हो। (भगत सिंह का संप्रदायिकता पर लिखे लेख देखिए )
(6) उन्होंने यह भी देखा कि इस देश की सदियों पुरानी ऊंच-नीच व छुआछूत जैसे भेदभाव करने वाली जातिवादी व्यवस्था समाज को भीतर से बांटे रहती है । निचली जातियों का ऊंची जातियों द्वारा शोषण दोहन होता है । इस जातिवाद का अंत करना भी क्रांतिकारियों ने अपना एक उद्देश्य बनाया। इस संदर्भ में उन्होंने खुलकर यह भी कहा कि हमें उन जातिवादी नेताओं से अलग व दूर रहना चाहिए जो जातिवादी दूर करने के नाम पर इसका राजनीतिक इस्तेमाल कर रहे हैं।
संक्षेप में उपरोक्त 6 विचार व उद्देश्य उनके पूरे चारित्रिक गुणों को दर्शाते हैं । अब प्रश्न है क्या आज हम उन विचारों व उद्देश्यों को सत्य, सही व प्रासंगिक मानते हैं ? कहने के नाम पर चारों ओर से एक ही उत्तर आता है । सभी का कहना है कि वे उनके विचारों का पूर्णतया समर्थन करते हैं तथा इन्हें प्रसांगिक भी मानते हैं । तब प्रश्न होगा कि क्या हम उन्हें अपने जीवन के व्यवहारों व विचारों में लागूं करते हैं ? अथवा —बहसों में तो मानते हैं, परन्तु जीवन में लागू नहीं करते ।
उदाहरणार्थ, उपरोक्त विचारों के संदर्भ में हम आपके सामने निम्नलिखित प्रश्न रखते हैं —
(1) क्या हम धार्मिक रूढ़ियों व रूढ़िवादी रीति-रिवाजों और परंपराओं का विरोध करते हैं ? अथवा किसी न किसी बहाने स्वयं भी उससे भागीदार हुए रहते हैं ? जैसे —नाना प्रकार के वहमों से भरे हुए पूजा-पाठ कर्मकांड के रीति रिवाज आदि ।
इस संदर्भ में अगला राजनीतिक व सामाजिक प्रश्न —क्या हम भगत सिंह इत्यादि की तरह धार्मिक व सांप्रदायिकतावादी पार्टियों व दलों और उनके नेताओं का विरोध करते हैं ? अथवा कथनी व भाषण चर्चा में तो करते हैं, परंतु मौका आते ही अपने स्वार्थ वंश या किसी दबाववश संप्रदायवादी पार्टियों व नेताओं से तालमेल, समझौतों या परस्पर प्रेम करते रहते हैं ? सो भी अपनी मजबूरियों का बहाना बनाकर ?
(2) क्या हम जातिवादी छुआछूत व अन्य भेदभाव का विरोध करते हैं ? अथवा करते तो हैं परंतु जब अपने से छोटी व निकली जातियों से भाईचारे व बराबरी करने का व्यवहारिक मौका आता है तो हम उनसे भेदभाव करने लग जाते हैं और केवल अपने से ऊंची जातियों के ही भेदभाव का विरोध करते हैं, जिससे हम खुद प्रताड़ित होते हैं ? इसकी दूसरी उदाहरण भी है
—- एक ओर धार्मिक कर्मकांडोंं का तो विरोध करना परंतु दूसरी ओर पैसा, कुर्सी सरकारी या गैर सरकारी पद प्रतिष्ठा मिलने पर अपनी उच्चता का दिखावा करने हेतु उन्हीं धार्मिक कर्मकांडों को करना व करवाना जिनका विरोध हम वैचारिक जगत में करते हैं । ऐसे दोहरे पन वाले चरित्र केवल ऊंची जातियों के लोगों में ही नहीं है, मध्य जातियों के कुनवीयों, यादव, कोइरियों से लेकर पढ़े-लिखे हरिजनों में भी फैलतें जा रहे हैं । ये लोग भी अपने से निचली जातियों के लोगों से अन्तर्भेद बनाते रहते हैं और अपने से ऊंची जातियों के लोगों के साथ परस्पर प्रेम व ताल मेल बढ़ाते रहते हैं ताकि उन्हें भी दिखने की श्रेष्ठता मिलें।
क्या ऐसे लोगों को भगत सिंह इत्यादि के शहादत दिवस मनाने चाहिए ?
(3) भगत सिंह इत्यादि का उद्देश्य था —विदेशी साम्राज्यवाद के साथ साथ भारती पूंजीवाद के विरोध में वर्ग संघर्ष चलाना ताकि पूंजीवादी व्यवस्था का अंत हो और मजदूर, किसान राज कायम हो। क्या हम इस विचार व उद्देश्य को अपने निजी व संगठनिक जीवन में लागू करते हैं ? इस प्रश्न का उत्तर व्यवहारिक उदाहरण से सोचें ।
पूंजीवाद का मतलब है —-एक ऐसी समाज व्यवस्था जो पैसे पूजी पर तथा पैसे-पूजी से मालों सामानों की खरीद बिक्री पर आधारित हो, और जिसमें मजदूरों, किसानों व मध्य वर्गी श्रमिक जनता का शोषण दोहन होता हो, और उसी शोषण दोहन से पूंजी बनती व बढ़ती हो, खरीद बिक्री के बाजार में मानवीय बौद्धिक व शारीरिक श्रम भी वैसे ही खरीदा बेचा जाता हो जैसे कि बेजान माल व समान खरीदे व बेचे जाते हैं।
अत: इसका परिणाम यह हो कि जिसके पास जितना अधिक पैसा-पूजी हो वह उतना ही अधिक मजदूरों, किसानों के शोषण दोहन से बड़ा धनी बने , बड़ा पूंजीपति बने और जिनके पास कुछ नहीं हो वह मजदूरी वेतन पाने हेतु अपना शोषण दोहन करवायें। इसके विपरीत जिसके पास जितना अधिक नगदी व गैर नगदी पैसा पूंजी हो चाहे चोरी चकारी या सरकारी व गैर सरकारी नौकरी पेशे से कमाया हों उस पैसे से उतने ही ज्यादा बाजारों से उपभोक्ता सामान खरीदें, अथवा खेती करने के लागत मूल्य के सामान जैसे, बीज, खाद, ट्रैक्टर, थ्रेसर, आदि आदि खरीद के बढ़िया खेती करें। अतः ज्यादा पैसे से अपने खेती अच्छी करें । बाजारों से उपभोग के मालों सामानों को खरीदकर अपनी निजी जीवन में उपयोग करें ।
आजकल आपके पिछड़े हुए देहातों में औद्योगिक नगरों के बने हुए केवल ट्रैक्टर, थेशर, पंम्सेट इत्यादि जैसे समान ही नहीं आए जो देहातों में बनाए नहीं जा सकते बल्कि इनके साथ ही ऐसे उपभोग के समान भी देहातों में आ गए हैं जो मूलत पैदा तो हुए थे देहातों में परंतु उन्हें औद्योगिक नगरों में ले जाकर उनसे औद्योगिक सामान बनाए गए फिर उन्हें देहातों में बेचने हेतु भेजे गए हैं । जैसे, बंद दूध के डिब्बे, तिलहन के तेल, वनस्पति घी, तथा यहां तक कि देसी घी, सूती कपड़े, बेसन, आटा, सत्तू, मिठाइयां, मिर्च, मसाले इत्यादि और इनके साथ ही पश्चिमी देशों से आया हुआ फ़ूहड़ गीत-संगीत व नाच गान का प्रचलन देहातों में भी बढ़ रहा है। परिणाम क्या है ?
जिस व्यक्ति के पास जितना पैसा होगा वह उतना ही ज्यादा इन सामानों को खरीदकर अपनी उपभोग श्रेष्ठता का दिखावा कर सकता है ।
इसके चलते पड़ोसियों में ही नहीं भाइयों में व कहीं कहीं तो मां बाप के साथ भी भेदभाव होने लगे हैं । आपसी तनाव उभर आए हैं। नाना प्रकार के खर्चों व कर्जो से खेतिया टूट रही हैं। बेकारी बढ़ रही है । तों भी उपभोग के सामान खरीदने की भूख लालसा व आपसी होड़-दौड़ भी रहीं हैं । तिलक दहेज लेने के रिवाज भी बढ़ते जा रहे हैं । ऊपर की जातियों से लेकर निचली जातियों तक में ये रिवाज बढ़ रहें हैं।
इतना ही नहीं शादी विवाह इत्यादि में अब भोजन व नाश्ता बनाने वाले ठेकेदार कस्बों व शहरों से पैसे से बुलाए जाते हैं । पैसे के ये इस्तेमाल जैसे शहरों में वैसे पिछड़े हुए देहातो में भी आपसी संबंधों को तोड़ रहा है । भाइयों व पड़ोसियों के संबंध अब पैसे व मालों पर आधारित होते जा रहे हैं । देहाती समाज और उपभोक्तावादी समाज बनता जा रहा है। इससे केवल ऊंची जाति के ही नहीं मध्य व निचली जातियों के लोग भी शामिल होते जा रहे हैं, विशेषकर पढ़े-लिखे लोग। क्योंकि पूंजीवादी उपभोक्ता बाजार की एक ही कसौटी व शर्त होती है —यह कि जिस व्यक्ति को माल सामान खरीदना हो उसके पास पैसे-पूजी होना चाहिए, चाहे वह व्यक्ति किसी जाति धर्म क्षेत्र का हो। इसी कारण जातिवादी व धार्मिक विभाजन कम होते हुए भी पैसे-पूजी पर आधारित सामाजिक विभाजन निरंतर बढ़ रहा है । जैसे शहरों में वैसे देहातों में पड़ोसियों भाइयों व पाटीदारों में, पैसे का नया पूंजीवादी भेदभाव पैदा हो रहा है।
आज की ऐसी ही परिस्थितियों में प्रश्न है कि आज जब हम भगत सिंह, चंद्रशेखर इत्यादि के शहादत दिवस मनाते हैं अथवा राम प्रसाद बिस्मिल को रोशन, अशफाक का शहादत दिवस मनाते हैं और इसे मनाते हुए शहीदों के पूंजीवाद के विरोधी विचारों का समर्थन करते हैं तो क्या हम स्वयं पूंजीवाद विरोधी विचारों को मानते हैं ? अगर मानते हैं तो क्या हम ऐसे विचारों को अपने व्यवहारिक जीवन में लागू करते हैं —व्यक्तिगत जीवन में, सामाजिक जीवन में, परिवारिक या ग्रामीण जीवन में, अथवा शहरी जीवन में ?
कहीं ऐसा तो नहीं, कि विचारों में तो हम पूंजीवाद साम्राज्यवाद के विरोधी हो परंतु व्यवहार में अपने लालच स्वार्थ के चलते पूंजीवाद की बहती हुई नदी में खुद भी बहते हो ? ऊंचे धन्नाढ़ों की तरह अपने पैसों से धार्मिक रीति रिवाज करवाते हो, तिलक दहेज लेते हो, साथ ही उपभोक्ता बाजार का आनंद लेते हो, तथा हर प्रकार की जातिवादी, धर्मवादी सत्ताधारी पार्टियों व उनके नेताओं से तालमेल करते हो ? इधर उधर से पैसा-पूजी की कमाइयां करके तरह तरह के उपभोग के सामान खरीदते हो ? इससे अपनी उच्चता श्रेष्ठता का दिखावा करते हो, और अपने से कम पैसे वाले लोगों का तिरस्कार या अवहेलना करते हो, भले ही कोई भाई-बंधु हो या ऊंची-नीची जाति धर्म नस्ल कोई व्यक्ति हो ?
अगर हम स्वयं इसी तरह के पूंजीवादी लालच स्वार्थ में बहतें रहे हो तो प्रश्न है कि क्या हम पूंजीवाद का विरोध कर सकते हैं ? यदि नहीं कर सकते हो तो क्या हमें भगत चंद्रशेखर इत्यादि के शहादत दिवस मनाने चाहिए ? क्या इधर उनके शहादत दिवस मनाना और उधर पूंजीवाद का पिछलग्गू बनना, यह शहीदों का अपमान करना नहीं होगा ? उनका अपने जीवन में स्वार्थी दुरुपयोग करना नहीं होगा, जैसे कि अन्य दल व संगठन करते हैं, चाहे वे गांधीवादी, लोहियावादी, अंबेडकरवादी या रविदासवादी या सिक्खवादी, या मुस्लिमवादी, हिंदूवादी हो अथवा कई एक प्रकार कि वामपंथी ?
उपरोक्त गम्भीर प्रश्नों पर विचार करने हेतु किसी विशिष्ट या उच्च ज्ञान व प्रबुद्धता की आवश्यकता नहीं है, बल्कि आवश्यकता है —–जिसे कहाना तो आसान है, परंतु व्यवहारत: लागू करना अति कठिन है । अपने भीतर टटोलना, खोजना व खुद को कुरेदना कि क्या हम ऐसे विचारों को अपने व्यवहारिक जीवन में लागू करते हैं अथवा कर सकते हैं जिन विचारों को हम बहुसंख्यक समाज के हितेषी विचार मानते हैं और जिनके लिए अनेकों शहीदों ने शहादत दी थी ?
शहीदों के उपरोक्त गिनाए गए सिद्धांतों के अनुसार हमने उपरोक्त जो 6 विचारणीय प्रश्न खड़े किए हैं कि हम उनमें से कौन-कौन विचारों को अपने जीवन में लागू कर सकते हैं इन्हीं प्रश्नों पर आप खुद भी विचार करें।
संगठन के साथी , बृज इन्क्लेव सुन्दरपुर वाराणसी । धन्यवाद ।