धर्म का पूंजीवादी राजनीति में बढ़ता इस्तेमाल और कम्युनिस्ट

दैनिक समाचार

धर्म का पूंजीवादी राजनीति में बढ़ता इस्तेमाल और कम्युनिस्ट


मार्क्सवादी दर्शन के अनुसार प्रकृति व समाज को तथा उसमें घटने वाली घटनाओं को अलग-थलग एकांकी रूप में ही नहीं देखना चाहिए, बल्कि उसे समग्रता से देखना चाहिए ।

जैसे, राम मंदिर विवाद ——-क्या यह केवल आस्था व भक्ति से जुड़ा मामला है ? इसका संबंध क्या राजनीति व अर्थ से नहीं है ? बिल्कुल है । राम मंदिर का सवाल राजनीति से कैसे जुड़ा है, इसके लिए विपक्षी पार्टियों को यह कहना ही काफी है कि भाजपा को साढें चार साल सत्ता में रहते हुए राम की याद नहीं आयी। अब इसलिए आई की उसके पुराने वादे —गरीबों के खाते में 15 लाख रु०व 2करोड़ युवाओं को प्रतिवर्ष नौकरियां, कृषि उपज का डेढ़ 2 गुना दाम सब झूठे साबित हो गए हैं।

अत: धर्म व राम के नाम पर मुस्लिम विरोधी बहुसंख्यक हिंदू वोट के ध्रुवीकरण द्वारा वह चुनाव में विजय प्राप्त करके पुन: सत्ताशीन होना चाहती है । भाजपा आर.एस.एस. के बारे में कांग्रेस सहित विपक्षी दलों का ऐसा कहना है तो ठीक, लेकिन प्रश्न है कि कांग्रेस अध्यक्ष का मंदिर,मंदिर घूमना, जनेऊ धारण कर अपना जाति गोत्र बताना और कांग्रेसी नेताओं द्वारा यह हुंकार भरना कि भाजपा नहीं, मंदिर का ताला खुलवाने वाली कांग्रेस ही राम मंदिर का निर्माण करेगी —ऐसा कहना और कांग्रेस सहित लगभग सारे विपक्षी दलों का राम मंदिर निर्माण पर सहमति क्या उनकी धर्मनिरपेक्ष राजनीति का प्रदर्शन है ? नहीं । धर्म व संप्रदायवाद, सो भी हिंदूवादी संप्रदायिक राजनीति भाजपा, शिवसेना ही नहीं, विपक्षी दल भी कर रहे हैं। इसका मतलब यह हुआ कि कांग्रेस जैसे दलों का मुस्लिम सांप्रदायिक व जातिवादी (समाजिक न्याय वाले) वोटरों को लंबे छोड़कर हिंदूवाद व राम मंदिर की राजनीति को अपना लेना विपक्षी दलों पर भाजपा की (उसकी हिंदूवादी राजनीति की) नैतिक विजय है।

मतलब यह की जन समस्याओं पर बहुत कम, मुख्यत: जाति, धर्म, क्षेत्र आदि पर ही लगभग सभी पार्टियां राजनीति कर रही है । यदि जन समस्याएं उठाई भी जाती हैं तो सतही तौर पर जन समस्याओं का दोषी सरकार व पार्टियों को बता दिया जाता है, पूंजीपति वर्ग को नहीं है। आपको याद होगा कि अयोध्या विवाद तब परवान चढ़ा, जब नरसिम्हा राव की कांग्रेसी सरकार ने उदारीकरण,निजीकरण व वैश्वीकरण नई आर्थिक नीतियों को संसद में पेश किया। विपक्ष ने इसका हंगामेदार विरोध किया। उसी दौर में बाबरी मस्जिद ढायी गयी, फिर दंगे हुए, मौतें हुई, और फिर देश की इज्जत व आजादी का नाश करने वाली “नई आर्थिक” नीति विरोधी राजनीति को छोड़कर विपक्षी पार्टियां संप्रदायिकता बनाम धर्मनिरपेक्षता की राजनीति करने लगी। उसी बीच सांसद में “नई आर्थिक नीति” भी पास हो गयी।

मतलब यह कि मंदिर ——-मस्जिद विवाद जनविरोधी व राष्ट्रविरोधी “नई आर्थिक नीति” देश में लागू करने के काम आया। अब इस “नई आर्थिक नीति” व “डंकल प्रस्ताव” के लागू होने के बाद स्वभावत: छोटे मालिक उत्पादकों की टूटन, उनकी आत्महत्यायें, मजदूरों की भूखमरी आनी ही थी, ऐसे में यह स्वाभाविक था कि जनता वर्ग संघर्ष पर उतारू होती । अतः पूंजीवाद द्वारा आम जनता को वर्ग संघर्ष से रोकने, उसकी दिशा भटकाने के लिए जाति -धर्म को राजनीति में लाना ही था, जो “नई आर्थिक नीति” लागू होने के साथ ही आ गयी। तात्पर्य यह की जन समस्याओं को ना उठाना और समस्याओं के जनक पुंजीपति को छुपाना, इन सभी पार्टियों का काम है । इसीलिए ऐसी पार्टियों को पुंजीवादी पार्टियां कहां जाता है।

वैसे पूंजीवादी राजनीति खुद को कितना हूं धर्मनिरपेक्ष व जनतंत्रवादी कहें, लेकिन वह राजनीति में धर्म व जाति का इस्तेमाल किए बिना नहीं रह सकती । उदाहरण, महान धर्मनिरपेक्ष ही नहीं, बल्कि धर्म विरोधी और जनतंत्रवादी ही नहीं, बल्कि समाजवादी नेहरू ने केरल में मुस्लिम लींग व इसाई कांग्रेस से मोर्चा बनाकर नास्तिक कम्युनिस्टों के खिलाफ “धर्मयुद्ध” छेड़कर और “धरतीपुत्र” नैयर जाति को साथ लेकर वहां की वामपंथी सरकार को गिरा दिया था । फिर “समाजवादी” इंदिरा ने अल्पसंख्यकों व दलितों की रक्षा का नारा देकर जाति धर्म का इस्तेमाल किया । फिर पूंजीवादी राजनीति में मुसलमान दलित व पिछड़ावाद का नारा देकर अपना राज चलाया, और अब बहुसंख्य हिंदूवाद व राममंदिर निर्माण पूंजीवादी राजनीतिक के एजेंडे पर प्रभावी रूप में आ गया है‌। क्योंकि अधिकांश पार्टियां पुजवादी हैं अतः ऐसी सभी पार्टियां जनसमस्याओं को उठाने की जगह राम मंदिर निर्माण की पक्षधर बनी हुई है।

अब वामपंथ पर प्रश्न । आप वामपंथी भली-भांति जानते हैं कि भाजपा, शिवसेना, मुस्लिम लीग अकालीदल राजनीति में धर्म का खुलकर इस्तमाल करने वाली संप्रदायवादी पार्टीयां है। फिर भी आप कांग्रेस के विरुद्ध समय-समय पर मुस्लिमलीग, जनसंघ, अकालीदल और जातिवादी पार्टियों से मोर्चा बनाते रहे हैं। वी.पी. सिंह की जनतादल सरकार बनाने के लिए तो आप बामपंथी भाजपा के साथ अप्रत्यक्ष रूप से मोर्चाबद्भ थे । फिर जब भाजपा द्वारा मंदिर- माजिद विवाद बढ़ाया गया तो भाजपा की सम्प्रदायिकता और उसके उग्र हिंदूवाद का मुकाबला करने के लिए आप बामपंथी रामायण में, कबीर रहीम के साहित्य में प्रगतिशीलता ढूंढने लगे । स्थिति तक आ गई कि कथनी में ही सही, देश की जनता की शत्रु साम्राज्यवाद को मानने वाले बामपंथी संप्रदायवाद को (और वह भी भाजपा की हिंदू साम्प्रदायिकता को) जनता का मुख्य शत्रु मानने लगे । और आज मंदिर वादी कांग्रेस से मोर्चाबद्भ होकर अप्रत्यक्ष रूप से धर्म व राम मंदिर के समर्थन में आ गए हैं। जाति मतों के लालच में आपने मार्क्स के साथ अंबेडकर को जोड़ दिया है। तात्पर्य यह की रुसी सुधार बाद के बाद आप सुधरवादी बने। फिर वहां के बचे-खुचे समाजवाद को गिराया जाने के बाद पूंजीवाद की चढ़त़ के इस दौर में आप पूंजी वादी जाति धर्म की राजनीति के और उनकी राजनीति पार्टियों के पिछलग्गू बन गये है । जाति धर्म का राजनीति में इस्तमाल को लेकर पूंजीवादी पार्टियों की तरह कई एक वामपंथी भी कहने लगे हैं कि जनता जब राममंदिर व जातिवाद में लिप्त है तो हमें भी उसी अनुसार चलना होगा। ऐसे हैं “जनतावादी” “व्यवहारवादी” आज के बहुतेरे बामपंथी। शायद ऐसे ही जनतावादी वामपंथी वह समाजवादियों को देखकर मार्क्स को कहना पड़ा होगा कि —— “अपवित्र वह नहीं है जो भीड़ द्वारा पूजे गये देवताओं को नहीं मानता, बल्कि अपवित्र वह है जो भीड़ के अंधविश्वासों को मानता है”।

कृपया ध्यान दें। आज के अवसरवाद, कायरतावाद के विपरीत 160/ 70 साल पहले, जबकि आज की अपेक्षा पिछड़ापन, फलत: धर्मवाद ज्यादा था, मार्क्स ने सीना तानकर कहा था कि “मैं दुनिया की दोनों पूजनीय शक्तियों के खिलाफ सदैव संघर्ष करता रहूंगा — एक है परमात्मा, दूसरा है बादशाह । जनता दोनों को पूजती थी, डरती थी, उनकी दास थी । अब आप ही बताएं —कहां मार्क्स और कहां आपने को मार्क्सवादी-लेनिनवादी कहने वाले आज के बामपंथी —-क्या दोनों मे कोई तुलना हो सकती है ? अप ही बताइए……….

इसके आगे अगले पोस्ट में । धन्यवाद ।

मार्क्सवादी दर्शन के अनुसार प्रकृति व समाज को तथा उसमें घटने वाली घटनाओं को अलग-थलग एकांकी रूप में ही नहीं देखना चाहिए, बल्कि उसे समग्रता से देखना चाहिए ।

जैसे, राम मंदिर विवाद ——-क्या यह केवल आस्था व भक्ति से जुड़ा मामला है ? इसका संबंध क्या राजनीति व अर्थ से नहीं है ? बिल्कुल है । राम मंदिर का सवाल राजनीति से कैसे जुड़ा है, इसके लिए विपक्षी पार्टियों को यह कहना ही काफी है कि भाजपा को साढें चार साल सत्ता में रहते हुए राम की याद नहीं आयी। अब इसलिए आई की उसके पुराने वादे —गरीबों के खाते में 15 लाख रु०व 2करोड़ युवाओं को प्रतिवर्ष नौकरियां, कृषि उपज का डेढ़ 2 गुना दाम सब झूठे साबित हो गए हैं।

अत: धर्म व राम के नाम पर मुस्लिम विरोधी बहुसंख्यक हिंदू वोट के ध्रुवीकरण द्वारा वह चुनाव में विजय प्राप्त करके पुन: सत्ताशीन होना चाहती है । भाजपा आर.एस.एस. के बारे में कांग्रेस सहित विपक्षी दलों का ऐसा कहना है तो ठीक, लेकिन प्रश्न है कि कांग्रेस अध्यक्ष का मंदिर,मंदिर घूमना, जनेऊ धारण कर अपना जाति गोत्र बताना और कांग्रेसी नेताओं द्वारा यह हुंकार भरना कि भाजपा नहीं, मंदिर का ताला खुलवाने वाली कांग्रेस ही राम मंदिर का निर्माण करेगी —ऐसा कहना और कांग्रेस सहित लगभग सारे विपक्षी दलों का राम मंदिर निर्माण पर सहमति क्या उनकी धर्मनिरपेक्ष राजनीति का प्रदर्शन है ? नहीं । धर्म व संप्रदायवाद, सो भी हिंदूवादी संप्रदायिक राजनीति भाजपा, शिवसेना ही नहीं, विपक्षी दल भी कर रहे हैं। इसका मतलब यह हुआ कि कांग्रेस जैसे दलों का मुस्लिम सांप्रदायिक व जातिवादी (समाजिक न्याय वाले) वोटरों को लंबे छोड़कर हिंदूवाद व राम मंदिर की राजनीति को अपना लेना विपक्षी दलों पर भाजपा की (उसकी हिंदूवादी राजनीति की) नैतिक विजय है।

मतलब यह की जन समस्याओं पर बहुत कम, मुख्यत: जाति, धर्म, क्षेत्र आदि पर ही लगभग सभी पार्टियां राजनीति कर रही है । यदि जन समस्याएं उठाई भी जाती हैं तो सतही तौर पर जन समस्याओं का दोषी सरकार व पार्टियों को बता दिया जाता है, पूंजीपति वर्ग को नहीं है। आपको याद होगा कि अयोध्या विवाद तब परवान चढ़ा, जब नरसिम्हा राव की कांग्रेसी सरकार ने उदारीकरण,निजीकरण व वैश्वीकरण नई आर्थिक नीतियों को संसद में पेश किया। विपक्ष ने इसका हंगामेदार विरोध किया। उसी दौर में बाबरी मस्जिद ढायी गयी, फिर दंगे हुए, मौतें हुई, और फिर देश की इज्जत व आजादी का नाश करने वाली “नई आर्थिक” नीति विरोधी राजनीति को छोड़कर विपक्षी पार्टियां संप्रदायिकता बनाम धर्मनिरपेक्षता की राजनीति करने लगी। उसी बीच सांसद में “नई आर्थिक नीति” भी पास हो गयी।

मतलब यह कि मंदिर ——-मस्जिद विवाद जनविरोधी व राष्ट्रविरोधी “नई आर्थिक नीति” देश में लागू करने के काम आया। अब इस “नई आर्थिक नीति” व “डंकल प्रस्ताव” के लागू होने के बाद स्वभावत: छोटे मालिक उत्पादकों की टूटन, उनकी आत्महत्यायें, मजदूरों की भूखमरी आनी ही थी, ऐसे में यह स्वाभाविक था कि जनता वर्ग संघर्ष पर उतारू होती । अतः पूंजीवाद द्वारा आम जनता को वर्ग संघर्ष से रोकने, उसकी दिशा भटकाने के लिए जाति -धर्म को राजनीति में लाना ही था, जो “नई आर्थिक नीति” लागू होने के साथ ही आ गयी। तात्पर्य यह की जन समस्याओं को ना उठाना और समस्याओं के जनक पुंजीपति को छुपाना, इन सभी पार्टियों का काम है । इसीलिए ऐसी पार्टियों को पुंजीवादी पार्टियां कहां जाता है।

वैसे पूंजीवादी राजनीति खुद को कितना हूं धर्मनिरपेक्ष व जनतंत्रवादी कहें, लेकिन वह राजनीति में धर्म व जाति का इस्तेमाल किए बिना नहीं रह सकती । उदाहरण, महान धर्मनिरपेक्ष ही नहीं, बल्कि धर्म विरोधी और जनतंत्रवादी ही नहीं, बल्कि समाजवादी नेहरू ने केरल में मुस्लिम लींग व इसाई कांग्रेस से मोर्चा बनाकर नास्तिक कम्युनिस्टों के खिलाफ “धर्मयुद्ध” छेड़कर और “धरतीपुत्र” नैयर जाति को साथ लेकर वहां की वामपंथी सरकार को गिरा दिया था । फिर “समाजवादी” इंदिरा ने अल्पसंख्यकों व दलितों की रक्षा का नारा देकर जाति धर्म का इस्तेमाल किया । फिर पूंजीवादी राजनीति में मुसलमान दलित व पिछड़ावाद का नारा देकर अपना राज चलाया, और अब बहुसंख्य हिंदूवाद व राममंदिर निर्माण पूंजीवादी राजनीतिक के एजेंडे पर प्रभावी रूप में आ गया है‌। क्योंकि अधिकांश पार्टियां पुजवादी हैं अतः ऐसी सभी पार्टियां जनसमस्याओं को उठाने की जगह राम मंदिर निर्माण की पक्षधर बनी हुई है।

अब वामपंथ पर प्रश्न । आप वामपंथी भली-भांति जानते हैं कि भाजपा, शिवसेना, मुस्लिम लीग अकालीदल राजनीति में धर्म का खुलकर इस्तमाल करने वाली संप्रदायवादी पार्टीयां है। फिर भी आप कांग्रेस के विरुद्ध समय-समय पर मुस्लिमलीग, जनसंघ, अकालीदल और जातिवादी पार्टियों से मोर्चा बनाते रहे हैं। वी.पी. सिंह की जनतादल सरकार बनाने के लिए तो आप बामपंथी भाजपा के साथ अप्रत्यक्ष रूप से मोर्चाबद्भ थे । फिर जब भाजपा द्वारा मंदिर- माजिद विवाद बढ़ाया गया तो भाजपा की सम्प्रदायिकता और उसके उग्र हिंदूवाद का मुकाबला करने के लिए आप बामपंथी रामायण में, कबीर रहीम के साहित्य में प्रगतिशीलता ढूंढने लगे । स्थिति तक आ गई कि कथनी में ही सही, देश की जनता की शत्रु साम्राज्यवाद को मानने वाले बामपंथी संप्रदायवाद को (और वह भी भाजपा की हिंदू साम्प्रदायिकता को) जनता का मुख्य शत्रु मानने लगे । और आज मंदिर वादी कांग्रेस से मोर्चाबद्भ होकर अप्रत्यक्ष रूप से धर्म व राम मंदिर के समर्थन में आ गए हैं। जाति मतों के लालच में आपने मार्क्स के साथ अंबेडकर को जोड़ दिया है। तात्पर्य यह की रुसी सुधार बाद के बाद आप सुधरवादी बने। फिर वहां के बचे-खुचे समाजवाद को गिराया जाने के बाद पूंजीवाद की चढ़त़ के इस दौर में आप पूंजी वादी जाति धर्म की राजनीति के और उनकी राजनीति पार्टियों के पिछलग्गू बन गये है । जाति धर्म का राजनीति में इस्तमाल को लेकर पूंजीवादी पार्टियों की तरह कई एक वामपंथी भी कहने लगे हैं कि जनता जब राममंदिर व जातिवाद में लिप्त है तो हमें भी उसी अनुसार चलना होगा। ऐसे हैं “जनतावादी” “व्यवहारवादी” आज के बहुतेरे बामपंथी। शायद ऐसे ही जनतावादी वामपंथी वह समाजवादियों को देखकर मार्क्स को कहना पड़ा होगा कि —— “अपवित्र वह नहीं है जो भीड़ द्वारा पूजे गये देवताओं को नहीं मानता, बल्कि अपवित्र वह है जो भीड़ के अंधविश्वासों को मानता है”।

कृपया ध्यान दें। आज के अवसरवाद, कायरतावाद के विपरीत 160/ 70 साल पहले, जबकि आज की अपेक्षा पिछड़ापन, फलत: धर्मवाद ज्यादा था, मार्क्स ने सीना तानकर कहा था कि “मैं दुनिया की दोनों पूजनीय शक्तियों के खिलाफ सदैव संघर्ष करता रहूंगा — एक है परमात्मा, दूसरा है बादशाह । जनता दोनों को पूजती थी, डरती थी, उनकी दास थी । अब आप ही बताएं —कहां मार्क्स और कहां आपने को मार्क्सवादी-लेनिनवादी कहने वाले आज के बामपंथी —-क्या दोनों मे कोई तुलना हो सकती है ? अप ही बताइए……….

इसके आगे अगले पोस्ट में । धन्यवाद ।

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