अगस्त के आरम्भ में जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में छात्रों के एक समूह द्वारा संसद भवन को सूअरबाड़ा प्रचारित करने पर विभिन्न प्रकार के राष्ट्रवादी विरोध में चीखे।

दैनिक समाचार

● प्रकृति के एक अंश के तौर पर अपनी पहचान से मानव किस कदर जुदा हो गये हैं इसका अन्दाजा आज छाये सफेद अन्धेरे से लगाया जा सकता है।

अंश द्वारा अन्य अंशों से सामंजस्य, सम्पूर्ण से सामंजस्य की मानव प्रवृति के टूटने-बिखरने ने उस त्रासदी को जन्म दिया जिसके शिकार अन्य जीव योनियों तथा पृथ्वी (व अन्तरिक्ष) के संग स्वयं हम मनुष्य हुये हैं। संग्रह-संचय और उनके आकार-प्रकार कब मानव योनि को विनाश की राह पर ले आये यह धुंधलके में है परन्तु संग्रह-संचय की बढती हवस के अनन्त ताण्डव से अनभिज्ञ आज शायद ही कोई हो। सम्पूर्ण विनाश की कगार …

“अनजाने” सामंजस्य के दीर्घ काल में मानव योनि का अन्य योनियों के साथ-साथ स्वयं पृथ्वी के संग सहअस्तित्व रहा। उस दौरान व्यक्ति और समुदाय के बीच भी सामंजस्य था। इन पाँच-सात हजार वर्ष में ही संग्रह-संचय तथा इन से जुड़ा दोहन उल्लेखनीय और फिर सर्वग्रासी बने हैं। गाय को पालतू बनाने जैसा अन्य जीवों का आरम्भिक दोहन-शोषण अपने संग मानव समुदायों में स्वामी व दास के सम्बन्ध लाया, समुदाय की टूटन लाया। खेती जैसा पृथ्वी का आरम्भिक दोहन-शोषण अपने संग राजे-रजवाड़ों वाली ऊँच-नीच लाया। पृथ्वी का बढता दोहन-शोषण, अन्य जीव योनियों व वनस्पतियों का बढता दोहन-शोषण, स्वयं मनुष्यों का बढता दोहन-शोषण आज मानव निर्मित प्रदूषण को अन्तरिक्ष तक पहुँचा कर सम्पूर्ण विनाश की कगार …

जीव के लिये मृत्यु स्वाभाविक है। समुदाय की टूटन ने मनुष्यों के लिये इस स्वाभाविक को, मृत्यु को असहनीय बनाया। पुरुष-प्रधानता की विकृतियों के संग-संग अमरत्व की अति इच्छा (अमृतों की तलाश) और मोक्ष-मुक्ति की अति पीड़ा (जन्म ही शाप) के अनेक धर्म-दर्शन उभरे। सब योनियों में मानव योनि को श्रेष्ठ घोषित करते, स्वयं को श्रेष्ठ घोषित करते हम मनुष्य अन्य योनियों के नामों व कथित अवगुणों का प्रयोग आपस में गाली देने, अपमान करने में करते आये हैं। मानवों में पुरुष-प्रधानता ने स्वाभाविक स्त्री-पुरुष सम्बन्धों पर अनेकानेक बन्धन जकड़ कर, अधिकतर स्त्री-पुरुष सम्बन्धों को पाप करार दिया। नारी को पाप की मूर्ति घोषित करने के संग-संग स्त्री शब्द और महिलाओं के कथित अवगुणों का प्रयोग पुरुष आपस में गाली देने, अपमान करने में करते आये हैं। व्यवहार के विपरीत, प्रतीक के तौर पर, विगत के अवशेष के तौर पर सूर्य की पूजा, सर्प की पूजा, गाय की पूजा, नारी की पूजा …

दास, भूदास, किसान-दस्तकार, मजदूर के रूप में पुरुष के पीड़ित होने पर भी पुरुष-प्रधानता के रंग में रंगे होना अतिरिक्त समस्यायें लिये है (हावी आचार-विचार के चलते स्त्रियों का पुरुष-प्रधानता के रंग में रंगे होना भी इसी श्रेणी में है)। अन्य योनियों व पृथ्वी-अन्तरिक्ष के सम्बन्ध में स्त्री-पुरुष एकमत-से रहे हैं। इधर मजदूर लगा कर मण्डी के लिये उत्पादन ने पुरुष-प्रधानता की इकाई, परिवार को बिखराव के चरण में ला दिया है। और, स्त्री तथा पुरुष, दोनों अधिकाधिक गौण …

“कुछ नहीं हो सकता”, असहायता का अहसास बहुत व्यापक है परन्तु विनाश के कगार से लौटने के आचार-विचार हम मनुष्यों के लिये सर्वोपरि महत्व के हैं। इस सन्दर्भ में, हमारे विचार से, नये समुदायों के लिये प्रयास, अन्य योनियों तथा पृथ्वी-अन्तरिक्ष के संग सामंजस्य की कोशिशें हम मानवों के लिये प्रस्थान बिन्दू हैं।

मण्डी-मुद्रा के दबदबे के इस दौर में दमन-शोषण पर पर्दा डालती संसद का पर्दाफाश करना प्राथमिक आवश्यकताओं में है। इस सन्दर्भ में हमारे अनुकरणीय पूर्वजों ने संसद को बकवासघर और सूअरबाड़ा कहा है। इधर कुटिल चाणक्य के वारिस प्रतिनिधि-नुमाइन्दा प्रणाली के व्यापक प्रसार के जरिये भ्रष्टाचार का विकेन्द्रीकरण कर हमारी रग-रग को प्रदूषित करने में जुटे हैं, सफेद अन्धेरे को फैलाने में लगे हैं। ऐसे में संसद के प्रति, प्रतिनिधि-प्रणाली के प्रति आक्रोश का विगत से बहुत अधिक होना बनता है। इसके लिये, हमारे विचार से, नई भाषा की आवश्यकता है।

— सूअर जंगलों में कन्द-मूल खाते और शीतलता के लिये साफ-सुथरी गीली मिट्टी में लोटते हैं। पालतु बना और शहरों में ला कर हम ने सूअर को गन्दगी का पर्याय बना दिया है। लेकिन सूअर के तन के संग हम अपने मन को देखें तो मनुष्यों से अधिक मैली कोई चीज आज शायद ही हो। (मजदूर समाचार के दिसम्बर 2003 अंक में “जीवन बनाम काम-पैसा-काम-पैसा” से)

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