सरकार बदलती है तो कुछ लोगों का ईमान बदल जाता है

दैनिक समाचार

द्वारा : इं. एस. के. वर्मा

सरकार बदलती है तो ईमान इसलिए बदल जाते हैं क्योंकि सत्ता बदलने पर ऐसे लोगों के दिलों में अपना स्वार्थ सिद्ध करने का लालच छिपा होता है।
आम आदमी को जाति या नाम के आधार पर भी पार्टी विशेष का तमगा देना भी ऐसी ही प्रवृत्ति का कारण है।
जबकि आम आदमी के पास यह भी सबूत नहीं होता है कि उसने वोट किसको दिया है!
बहुत से लोग ऐसे ही समुदाय से आते हैं जो न तो हिन्दू बन पाते और न ही मुसलमान, न ही दलित और न ही सवर्ण।
बसपा वाले सत्ता में आने पर उन्हे कहते हैं कि आपने तो बीजेपी को वोट दिया होगा?
सपा वाले सत्ता में आते हैं तो कहते हैं कि आप तो बसपा के सपोर्टर है?
और बीजेपी वाले भी यही कहते हैं कि आपने तो सपा या बसपा को ही वोट दिया होगा?
ऐसे लोगों की सबसे बड़ी मजबूरी होती है कि वो अपनी निष्ठा कैसे साबित करें? और कैसे यह सिद्ध करें कि फलां पार्टी को वोट दिया है?
क्योंकि वोट देते समय उनको न तो मोबाइल ले जाने की अनुमति होती और न ही ऐसा कोई साक्ष्य दिया जाता है!
इसलिए सभी ऐसे बहिष्कृत समुदाय भले ही वो पिछड़े वर्ग में आते हों या एससीएसटी में अथवा मुस्लिम हो या सिख!
अब अपनी अपनी पार्टी बनाने के लिए मजबूर और तत्पर है। क्योंकि सत्ता में आने पर भी सत्ता की मलाई केवल वही लोग खाते हैं उन्हीं का काम भी होता है जिनके समाज का मुख्यमंत्री बनता है और पार्टी पर उनका अपना मालिकाना हक जैसा होता है।
यही सबसे बड़ा कारण है कि सपा, बसपा और कांग्रेस अब कौड़ी के तीन बन चुके हैं, क्योंकि केवल ईवीएम पर ही हार का ठीकरा फोड़कर शांति से बैठ जाना इसका समाधान नहीं है।
बल्कि ऐसे वंचित समुदायों के लोगो को साथ न रखने का खामियाजा भुगत रही है ऐसी पार्टियां जिनको कभी अपनी जीत का गुमान केवल जाति आधारित वोट बैंक पर हुआ करता था।
कहावत है कि दुश्मन का दुश्मन भी दोस्त जैसा ही होता है।
बीजेपी के बार बार जीतने के कारणों में एक मुख्य कारण यह भी है क्योंकि बीजेपी ने ऐसे समुदायो की पहचान करके उनके प्रतिनिधियों को टिकट देकर जिताने मे भी पुरजोर कोशिश की है तथा जीतने पर अपने वरिष्ठ कार्यकर्ताओं और नेताओं को मंत्री पद न देकर ऐसे समाज के लोगो को मंत्री बनाने की रणनीति अपनाई है।
लेकिन कोई भी हारी हुई पार्टी इस ओर अपना ध्यान बिल्कुल भी नहीं दे रही है कि जब वो सत्ता में आती थी तो ऐसे समाज के लोगो को हेय दृष्टि से देखने और बहिष्कृत करने जैसा कार्य करके, जीत का सारा श्रेय अपने विशेष समाज को ही देकर खुश हो जाती थी।
लेकिन अफसोस कि लगातार इतनी करारी हार के बाद भी समीक्षा करते समय इस बिन्दु पर बिल्कुल भी ध्यान नहीं देती है कि विभीषण आपने खुद पैदा किये है, इसलिए बार बार हाल का मुँह देखना पड़ रहा है!
गलतियों का पश्चाताप करने में भले ही जल्दी की जाए किन्तु तरकश से निकला तीर और पार्टी से मोह भंग हुआ समाज जल्दी लौटकर नहीं आता है।
यही कारण है कि बीजेपी की तानशाही नीतियां होने के बावजूद भी बार-२ जीत हासिल होना आसान बन चुका है।
जबतक शाह और मोदी की जोड़ी सलामत है तब तक तो दूसरी कोई पार्टी आनी असंभव है क्योंकि यें अपने झूठे अहम के कारण, जातिवाद के मोह और हकीकत को नहीं पहचान रही है।
और जनता अब इतनी बेवकूफ नहीं रही है जितनी कि आज से तीस चालीस साल पहले राजनीति में आने बाद सत्ता की मलाई खाने से अनजान हुआ करती थी!
दूसरा कारण अशिक्षा और अज्ञान भी था, लोग राजनीति को शाही परिवार की धऱोहर समझकर उन्ही को वोट देते रहते थे।
आज हर आदमी जानने लगा है कि एक सामान्य से समाजसेवी नेता से विधायक और मंत्री बनते ही अपार संपत्ति कैसे इकट्ठा हो जाती है!
इसलिए हर तीसरा व्यक्ति खुद को नेता घोषित करने पर आमादा है और हर दसवां युवा नेता और मंत्री बनने की दौड़ में शामिल हैं।
क्योंकि दस पंद्रह साल के संघर्ष के बाद भी यदि एकबार भी विधायक या सांसद अथवा मंत्री बनने का सौभाग्य मिला तो वो पिछला सारा हिसाब मय ब्याज के दस से पचास या सौगुणा भी इकट्ठा कर लेगा, नाम रोशन होगा वो अलग से!
इसलिए यह मत सोचिए कि जो नेता बन रहा है वो जनता या देश की भलाई करने के लिए नेता और समाजसेवी बन रहा है। बल्कि उसका लक्ष्य आम शिक्षा प्राप्त करने वाले छात्रों, इंजीनियर और डाक्टर तथा प्रोफेसर और वकील से भी बहुत बड़ा है।
यें लोग जितना धन जिंदगी भर में कमाकर बचा नहीं पाते है, देश के हरामखोर नेता एक या दो साल अथवा पांच साल में ही करोडपति और अरबपति बन जाते हैं।
सच मानिए तो देश के सबसे बड़े लूटेरे और डाकू यदि कोई हैं तो केवल और केवल देश के राजनेता हैं।
जो समाजसेवा के नाम पर जनता के टैक्स का पैसा और देश के संसाधनों का पैसा अपनी निजी संपत्ति बढाने के लिए राजनीति में आते हैं। (अपवाद छोड़कर) हालांकि अपवाद भी ऊंगलियो पर ही गिने जा सकते है, लेकिन ऐसे नेताओं का नाम बताना भी बड़ा मुश्किल होगा, क्योंकि आय से अधिक संपत्ति जिसके पास न हो, शायद दो चार मंत्री और विधायक बामुश्किल ही मिलेंगे।
सबसे खास बात है कि इन राजनेताओं की पेंशन खत्म की जाए, किस बात की पेंशन मिलती है समझ नहीं आता?
जबकि पैरामिलिट्री फोर्स व सरकारी नौकरी करने वालों तक को भी पेंशन नहीं मिलती है। तो समाजसेवा करने वाले जनसेवकों को पेंशन किस बात की और क्यों दी जाती है?
दूसरी अहम बात कि यदि सरकारी कोष से इनको भी वेतन और सुविधाएं तथा पेंशन मिलती है तो आयकर क्यों नहीं देते?
जिसदिन आयकर के दायरे में आए उस दिन नेतागिरी और राजनीति करने वालों की संख्या बहुत कम हो जाएगी।
बिना योग्यता के भी जब नेता बनने पर आइएएस और पीसीएस जैसे अधिकारियों से अधिक ठाठबाट मिले और हड़काने की शक्ति भी तथा जितनी संपत्ति ये लोग ज़िन्दगी भर में जमा नहीं कर पाते हैं उससे कई गुना अधिक दो चार या छः सालों में ही राजनेताओं द्वारा अर्जित कर ली जाए तो राजनीति से बेहतर नौकरी और व्यवसाय दूसरा कौन सा होगा?
इसलिए इन सबकी पेंशन बंद होनी चाहिए तथा आयकर के दायरे में लाकर इनकी भी संपत्ति की जांच अवश्य ही करायी जानी चाहिए।
वरना तो जनता की गाढी कमाई पर टैक्स के पैसे और देश के संसाधनों का पैसा लूटने वाले कोई और नहीं बल्कि बिना बंदूक वाले लूटेरे नेता पैदा लगातार होते रहेंगे।
नोट- किसी पार्टी विशेष के नेता को समर्पित नहीं है न ही द्वेष भावना से ग्रसित होकर लिखा गया है। केवल देश हित और जनहित की भावना से अनुभव के आधार पर लिखा गया है।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *