जंगल पनपेंगे फिर भी ! किसान पैदा करेंगे फिर भी ! मौजूद रहेंगे शहर फिर भी ! आदमी लेंगे सांस फिर भी !

दैनिक समाचार

इस समय दुनिया में लगभग एक साथ वित्तीय पूंजी, बाजार पूंजी, कारपोरेट पूंजी व क्रोनी पूंजी- मचल और उफन रही हैं!

नव उदारवादी व्यवस्था से पहले यह स्थिति नहीं थी!

पिछले तीन दशक में भारत में आर्थिक असमानता काफी बढ़ी है और निरंतर बढ़ती जा रही है. आर्थिक असमानता के साथ-साथ बड़े पैमाने पर लूट और झूठ की संस्कृति फैली है.

हमारी इच्छाओं के जन्म और विकास में आज बाजार की कहीं अधिक भूमिका है.

देश में पहली बार कारपोरेट घरानों ने 2014 के लोकसभा चुनाव से दो-तीन वर्ष पहले नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री बनाने बनाये जाने की इच्छा प्रकट की थी. राजनीतिक दलों को कारपोरेट और औद्योगिक घरानों ने समय-समय पर जो चंदे दिये हैं, उनमें सबसे अधिक चंदा भाजपा को मिला है.

भाजपा ने इस चंदे का चुनाव आयोग को कोई ब्यौरा नहीं दिया है.

2014 के चुनाव में व्यवस्थित और सुनियोजित ढंग से टीवी चैनलों ने भाजपा और नरेंद्र मोदी का प्रचार-प्रसार किया था, जिसके कारण भाजपा की जीत संभव हुई. टीवी चैनल्स कारपोरेट घरानों के थे.

राजनीतिक दल और मीडिया वास्तविक रूप से कारपोरेट के नियंत्रण में हैं. रिलायंस, टाटा, एस्सार और इंफोसिस आदि वही युक्ति अपना रहे हैं, जैसी अमेरिका में “रॉकफेलर” और “फोर्ड फाउंडेशन” ने अपनाई थी.

अब चुनाव जीतने के बाद जिस भी पार्टी के केंद्र में सरकार बनती है, वह कारपोरेट की नीतियों को लागू करती है.

सत्तासीन राजनीतिक दलों की कारपोरेट और औद्योगिक घरानों और बड़े व्यापारियों पर निर्भरता कहीं अधिक है.

जनता से की जा रही यह विशाल धोखाधड़ी है!

इस रुझान को रोका नहीं जा रहा है.

अमेरिकी अर्थशास्त्री जेफरी सैक्श ने अपनी पुस्तक ‘द प्राइस ऑफ सिविलाइजेशन’ (2011) में अमेरिका का वर्णन कार्पोरेटोक्रैसी के रूप में किया है.

हिंदुत्व की राजनीति व संस्कृति को कारपोरेट से अलग करके नहीं देखा जाना चाहिए. “सांस्कृतिक राष्ट्रवाद” का “कारपोरेट जगत” से सीधा संबंध है.

“मनुवाद और ब्राह्मणवाद” को भी कारपोरेट से एकदम अलग करके नहीं देखा जा सकता.

संस्कृति मनुष्य की रचना है जिसका प्रत्यक्ष संबंध सृजन और श्रम से है. कारपोरेट जगत में सृजन और श्रम का, इससे जुड़े श्रमिकों और कामगारों का न कोई महत्व है, न कोई अर्थ है.

पूंजीवाद बाजार की संस्कृति पर टिकी है. बाजार का कारपोरेट से सीधा संबंध है. पूंजी अपने हित में एक भिन्न संस्कृति का निर्माण करती है.

मार्क्स ने पूंजीवाद को कलाओं का, विशेषकर कविता का दुश्मन कहा है.

कारपोरेट पूंजी अपने हित में जिस कारपोरेट संस्कृति को जन्म देती और विकास करती है, उसे आज कहीं अधिक समझने की जरूरत है.

यह प्रक्रिया धीमी लग सकती है, पर धीमी है नहीं.

आचार्य नरेंद्र देव ने संस्कृति को चित्त-भूमि की खेती कहा था और कृषि और खेती को लेकर सरकार ने जो कृषि कानून बनायी, वह किसी किसानों के हित में न होकर कारपोरेट के हित में थे.

अब ये दोनों, “चित्त-भूमि” और “कृषि” एक साथ खतरे में हैं.

इसका अर्थ उस संस्कृति को खतरे में होना है, जिसका मानवता से सीधा संबंध है!

पूंजी की संस्कृति, संस्कृति की पूंजी को निगल रही है.

संस्कृति और धर्म को पर्यायवाची समझकर, सांस्कृतिक राष्ट्रवाद आगे बढ़ रहा है.

संस्कृति धर्म से कहीं अधिक व्यापक है. धर्म उसका एक तत्व है, लेकिन एक मात्र नहीं. राजनीति और अर्थव्यवस्था दोनों मिलकर भारत की सामान्य जनता और संस्कृति पर प्रहार कर रही है.

आदिवासियों की संस्कृति का संस्कृतीकरण एक षड्यंत्र है. इसका सीधा अर्थ है, प्रभावशाली संस्कृति की अधीनता!

राजनीतिक गठजोड़ की बात करने वाले, हिंदुत्व और कारपोरेट के गठजोड़ और उससे उत्पन्न संस्कृति पर अधिक ध्यान नहीं देते.

ये दोनों मिलकर जिस संस्कृति का विकास करने में लगे हैं, वह जन संस्कृति के विरुद्ध है.

वासुदेव शरण अग्रवाल ने संस्कृति को जीवन के वृक्ष का संवर्धन करने वाला रस कहा है.

हकीकत यह है कि आज जीवन ही नहीं, पृथ्वी ही खतरे में है!

हमें जोंकों से लेकर अजगर तक की सही पहचान करनी होगी तथा जीवन और पृथ्वी को बचाने के लिए जन संस्कृति की ओर मुड़ना होगा.

कारपोरेट संस्कृति के विरुद्ध संघर्ष, इस समय ‘सांस लेने की तरह’ जरूरी है. इसी में शब्दों की, भाषाओं की, कलाओं की, जीवन शैली की, जल-जंगल-जमीन की, कर्म की, श्रम और सृजन की रक्षा संभव है! जान बची रहे, इसके लिए जन संस्कृति को बचाना जरूरी है.

साथियो, झारखंड में कारपोरेट आ चुके हैं. वे हमारी भाषा और संस्कृति को प्रभावित कर रहे हैं.

यह समय कारपोरेट संस्कृति के विरुद्ध जन संस्कृति को कहीं अधिक सक्रिय ढंग से गतिशील बनाने का समय है.
धन्यवाद !!!

—झारखंड जन संस्कृति मंच

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