कुछ दिन पहले मैंने एक लेख ब्राह्मणों से वैदिक रीति से शादी करवाना अपराध है लिखा था, जो काफी चर्चित रहा। उस विषय पर सोसल मीडिया का इन्टरव्यू भी गूगल पर चर्चित है। उसी कड़ी में शादी को लेकर और भी बहुत सी विडम्बनाएं है। जिस पर प्रकाश डालना उचित समझता हूं।
कुछ लोगों की ऐसी प्रतिक्रिया भी है कि आप शूद्रो को कलंकित करने वाली छिपी बुराइयों से पर्दा हटाकर और भी कलंकित कर दे रहे हैं। कुछ हद तक आप का सोचना सही भी हो सकता है। लेकिन मेरा मक़सद भी यही बताना है कि एक पीढ़ी का अत्याचार, दूसरी-तीसरी पीढ़ी के लिए आस्था और परम्परा बनती चली आ रही है।
हमारी उम्र के लोगों या उससे ज्यादा उम्र वालों को याद दिलाना चाहता हूं या कम उम्र वाले अपने दादा परदादा से पूछ सकते हैं।
40-50 साल पहले या उसके आसपास तक जब हमारी बहन बेटियां ससुराल के लिए बिदाई होती थी तो, राग अलापते हूए ऐसी दर्दनाक, हृदयविह्वल रुलाई रोती थी कि, पूरा माहौल रोने लगता था। मैं खुद ऐसी परिस्थिति से गुजर चुका हूं और यही नहीं, मुझे उस समय बहुत बुरा भी लगता था। यह सोचकर कि जिस खुशहाली के लिए बाप के दुल्हा ढूंढ़ने में चप्पल जूते घिस जाते थे। घर-दुवार बिक जाता था। ऐसी खुशहाली में यह मातम की रूलाई क्यों?
यह रुलाई अपने बुजुर्ग माता या दादी से सुन सकते हैं—
माई-रे-माई–, काहें कोखिया में जन्मवली रे माई—
जन्मवते काहें न गलवा दबाई देहली रे माई—
————काहे न जहरवा देयि देहली रे माई—
इदिन काहें के देखें देहली रे माई—
माई-रे-माई, कांंहे कोखिया में जन्मवली रे माई—
—–काहे न कुंववा में फेक देहली रे माई—
—- कांहे कोखिया में जन्मवली रे माई— आदि ऐसी—–
आज धीरे-धीरे लड़कियों के शिक्षित होने पर ऐसी परंपरावादी रुलाइयां बंन्द होती जा रही है।
आप को जानकर आश्चर्य होगा, ऐसी पारम्परिक रुलाई के पीछे, सदियों से चली आ रही ब्राह्मणवादी ऐयाशी अत्याचार था।
हिंदू वैदिक रीति से शादी 12-15 की उम्र में ही हो जाया करती थी। शुद्धिकरण के लिए, दुल्हन पहले दुल्हे के घर न जाकर, ब्राह्मण पुरोहित के यहां तीन दिन तक के लिए जाती थी। पुरोहितों की उम्र में 70 की है या 80Kg, उसकी सेवा करना उस नयी नवेली दुल्हन की मजबूरी होती थी।
विदाई के समय हृदयविह्वल रुलाई का कारण यही था कि वह भाज्ञ और भगवान द्वारा बनाईं गई परम्परा के अनुसार किसी जल्लाद के यहां जा रही थी। चोथे दिन जब दुल्हन अपने ससुराल पति के यहां जाती थी, तभी दुल्हन का भाई या पिता चौथे दिन उसकी तबीयत या दयनीय हालात जानने के लिए चौथी (कुछ मिठाई या साज-समान) साथ लेकर जाता था। आज भी परम्परा चालू है। फिर उनको देखते ही वही दिल को दहला देने वाली रुलाई का सामना बाप या भाई को करना पड़ता था। अंग्रेजों ने 1819 में ऐक्ट7 कानून बनाकर इस प्रथा को बन्द करा दिया था।
यह भी एक मुख्य कारण था कि शूद्रों के पहले पुत्र को गंगा-दान रीति रिवाज के अनुसार गंगा में जिन्दा फेंकवा दिया जाता था। अंग्रेजों ने इस प्रथा को 1835 में कानून बनाकर बन्द करवाया।
बाबा साहेब अंबेडकर ने भी अपनी पुस्तक डा० अम्बेडकर वोल्यूम-17 में लिखा है कि ऐसी प्रथा को हिंदू लोग अपनी इज्जत और भाज्ञ समझते थे। यहां तक कि राजा लोग भी अपनी रानियों का कौमार्य भंग करने या शुद्धिकरण करने के लिए ब्राह्मण को अपने महलों में निमंत्रण देकर बुलाते थे।
कन्या-दान के कारण ही आज देवदासी प्रथा आप के सामने है।
इस दोहे पर जरा गौर फरमाएं!
सालंकारा च भोग्या च सर्वस्त्रां सुन्दरी प्रियांम्।
यो द दाति च विप्राय चंद्रलोके महीवते।।
(देवी भागवत 9/30)
(जो भोग करने योग्य सुन्दर कुंवारी कन्या को आभूषणों सहित दान करेगा, वह चंद्रलोक पहुंच जाएगा)
कुछ और प्रमाण देखिए—
शादी के समय पढ़ा जानें वाला मंत्र भी देख लीजिए।
ॐ श्री गणदिपत गणपति गुंगवा महे, गणतुआ गुंगवा महे, वर कन्यायाम गुंगवा महे!
पणतुआ वसहु मम जान, गर्भधम्रांतु इदम कन्यादेव अर्पण सक्षमेव,गर्भाधिम इति वरं समर्पयामि।।
सामान्य हिन्दी भाषा में अर्थ:-
घर का मुखिया गूंगा-बहरा है,
इसके रिश्तेदार गूंगे-बहरे हैं।
वर-कन्या भी गूंगे-बहरे हैं।
प्राणों के प्रिय तुम मेरे मन मे बसी हो मुझे जानो, मैं कन्या को गर्भवती करने में सक्षम हूं।
इस कन्या को मुझे अर्पण कर दो मैं इसे गर्भवती कर के वर को समर्पित कर दूंगा।
पुरोहित:- बोलो- स्वाहा (स्व-आ-हा) यानि लडकी के माता-पिता से जो मांगा गया है, वह दो।
कन्या का पिता कहता है- स्वहा (स्व-हा), मेरी-हां यानि जो ब्राह्मण द्वारा मांगा गया उसे दे दिया।
इतना जानने के बाद भी कुछ मूर्ख हमें ही अपशब्द बोलते हुए अपने बाप दादा की चली आ रही परंपरा की दुहाई देते मिल जाएंगे।
उन्हें भी शुक्रिया व धन्यवाद!
आप के समान दर्द का हमदर्द साथी!
(गूगल या यूट्यूब पर सर्च कर सकते हैं)
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गर्व से कहो हम शूद्र हैं
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