राम अयोध्या सिहं की दो साल पुरानी एक पोस्ट

दैनिक समाचार

द्वारा : रईश ख़ान

संघ, भाजपा और मोदी सरकार का यह फासीवादी कारवां कश्मीर में अनिश्चिरतकालीन कर्फ्यू , कश्मीरियों की पुलिस, सेना और अर्धसैनिक बलों के 9 लाख जवानों द्वारा घेराबंदी, सामूहिक संवाद के सारे साधनों (समाचारपत्र, टीवी, इंटरनेट और मोबाइल सेवा) पर प्रतिबंध से शुरू होकर असम से होते हुए सीएए, एनआरसी और एनपीआर के माध्यम से शाहीनबाग और दिल्ली दंगों के बाद कोरोनावायरस की आड़ में पूरे भारत में भारतीयों को कैद कर चुप रहने को मजबूर किया गया है, और मुसलमानों के साथ ही मजदूरों पर आकर खत्म हुआ। इन सबके बीच मानवाधिकारवादियों और मजदूरों के लिए आवाज उठाने वालों को अर्बन नक्सली कहकर जेलों में बंद करने की कवायद पूरी कर ली गई है। आज पूरे भारत में सरकार की जनविरोधी नीतियों, निर्णयों और कार्ययोजनाओं के खिलाफ न कोई आवाज उठ रही है, न विरोध और प्रतिरोध करने के लिए जनसंघर्ष और जनांदोलन का कहीं अता-पता है, बुद्धिजीवियों, समाचारपत्रों और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के बीच से बहुसंख्यक मेहनतकश अवाम के संबंध में सारे विमर्श गायब हैं। कोरोनावायरस से उत्पन्न संकट में भी मोदी सरकार सांप्रदायिक राजनीति की योजना को अमलीजामा पहनाने में प्राणपण से जुटी हुई है। कभी कोरोनावायरस के प्रसार के लिए मुसलमानों को जिम्मेवार ठहराने की कोशिश हो रही है, तो कभी दिल्ली दंगों के लिए मुसलमानों को जिम्मेवार ठहराकर उनकी धरपकड़ तेज हो गई है।

        किसी को भी यह नहीं पता कि यह लाकडाउन कब तक चलेगा, और इसका दूरगामी परिणाम क्या होगा ? फिर भी इतना तो तय है कि भारत कोरोनावायरस के संकट के बाद भी वह नहीं रहेगा, जो पहले था। इस बीच सरकार अपनी शक्तियों को मजबूत करने और अपनी असफलताओं को उपलब्धियों के बतौर प्रचारित-प्रसारित करने में जुटी हुई है। इस संकट ने और कुछ भी किया हो या न किया हो मोदी सरकार का चेहरा बेनकाब जरूर कर दिया है। समझदार लोगों को तो पहले भी आशंका नहीं थी, पर अब सबको पता चल गया है कि मोदी सरकार सिर्फ और सिर्फ पूंजीपतियों के लिए ही है। भारत की बहुसंख्यक मेहनतकश अवाम या निम्न मध्यम वर्ग के लिए इसके पास न कोई नीति है, न नियत साफ है, और न ही इनके कल्याण के लिए कोई ठोस योजना ही है। इस अघोषित आपातकाल में नागरिकों के सारे संवैधानिक अधिकार स्थगित कर दिए गए हैं, सरकार को ही सुप्रीम कोर्ट ने भी राष्ट्र मान लिया है, और सरकार के विरोध को राष्ट्रविरोधी मानकर विरोध करने वालों को यूपीसीए के तहत जेलों में कैद किया जा रहा है। मजदूरों के सारे अधिकार समाप्त कर दिए गए हैं, उनके काम के घंटों को आठ से बढ़ाकर चौदह घंटे तक कर दिया गया है, स्थायी नियुक्ति अब सिर्फ सपना रह गया है, आउटसोर्सिंग के द्वारा ही ठेकेदारों द्वारा उद्योगों और कल-कारखानों के मालिकों को मजदूर उपलब्ध कराए जाएंगे, पारिश्रमिक के लिए मोल-तोल का अधिकार खत्म कर दिया गया है, ओवरटाइम खत्म, हड़ताल खत्म, बिना पूर्व सूचना के भी मालिक मजदूरों को नौकरी से निकाल सकता है, कोई यूनियन नहीं, और जो भी यूनियन जैसे कामों में लिप्त पाए जाएंगे, उन्हें बर्खास्त कर दिया जाएगा। कहने का मतलब सिर्फ इतना ही है कि अब मजदूरों को बंधुआ मजदूर या गुलाम बना दिया गया है, जिन्हें सिर्फ जीने के लिए दो जुन भरपेट खाना मिल जाए,यही गनीमत है। 

      कोरोनावायरस से उत्पन्न विषम परिस्थितियों में भी मजदूरों के साथ जिस तरह का व्यवहार किया जा रहा है, और जिन कठिन स्थितियों में उनकी जिंदगी गुजर रही है, उसे देखकर मानवता शर्मशार हो रही है। पर, तब भी यदि किसी को शर्म नहीं आती, तो वह मोदी सरकार और दूसरे राज्यों की भाजपाई सरकारें हैं। बिना पूर्व सूचना और बिना किसी तैयारी के लाकडाउन की घोषणा ने प्रवासी मजदूरों को अपने गांव-घर पहुंचने का भी मौका नहीं दिया, और वे जहां थे, वहीं पर अनाथ, लाचार और बेबस की तरह भगवान भरोसे और दूसरे साथियों की सहायता से जिंदा रहे। उद्योगों और कल-कारखानों, कंपनियों और दुकान मालिकों ने उन्हें बिना मेहनताना या आर्थिक सहायता दिए ही काम से हटा दिया, दड़बेनुमा घरों के मालिकों ने उन्हें घर से बाहर का रास्ता दिखा दिया, और राशन दुकानदारों ने आवश्यक राशन सामग्रियों को उधार देने से इंकार कर दिया। उनकी मदद के लिए न तो केन्द्र सरकार थी, और न ही वे राज्य, जहां वे काम करने गए थे। सैंकड़ों-हजारों किलोमीटर दूर अपने घर पहुंचने के लिए  लाखों मजदूर पैदल ही परिवार, बच्चों और जीवनयापन के थोड़े-से सामानों का बोझ ढोते निकल पड़े। रास्ते में पुलिस वालों ने हजारों मजदूरों को बेरहमी से पीटाई भी की, उनकी बहन-बेटियों के साथ बुरा सलूक किया गया, और कहीं-कहीं उनसे उठक-बैठक भी कराया गया। सैंकडों मजदूरों ने रास्ते में ही दम तोड़ दिया। कोई कहीं भी खोज-खबर लेने वाला नहीं। सारी सरकारों ने अपना पल्ला झाड़ लिया। अंततः उनकी दयनीय दशा का विदेशी समाचारपत्रों में छपी ख़बरों से अपनी फजीहत होते देख केन्द्र सरकार ने उन मजदूरों को घर वापसी की इजाजत दे दी। पर, सवाल यह था कि दाने-दाने को मोहताज वे लाखों मजदूर जाएंगे कैसे ? सरकार ने सिर्फ घर जाने की इजाजत दी, कैसे पर फिर चुप लगा गई। इस पर मचे बवाल के कारण केन्द्र सरकार ने ट्रेन और राज्य सरकारों ने बसों से मजदूरों को लाने का वादा किया। पर, फिर वही शैतानी हरकत। बसों से आनेवाले मजदूरों को रास्ते में रोका गया, और कुछ बसों को तो पुनः वहीं भेज दिया गया, जहां से वे चले थे। बसों और ट्रेनों में उनसे सामान्य दर से भी अधिक किराया लिया गया। सोनिया गांधी के इस वक्तव्य के बाद कि कांग्रेस पार्टी मजदूरों की घर वापसी के लिए ट्रेनों का किराया अपने तरफ से देगी, केन्द्र सरकार और भाजपा ने भी अपनी इज्जत बचाने के लिए हां में हां मिलाना शुरू कर दिया। लेकिन, हकीकत यही है कि अब भी मजदूरों को किराया अपनी जेब से भरना पड़ रहा है। सरकारों की नृशंसता की हद तो तब हो गई,जब कर्नाटक और गोवा की सरकारों ने इन प्रवासी मजदूरों को बिल्डर लाबी के दबाव में घर जाने के लिए ट्रेनों को निरस्त करने की मांग केन्द्र सरकार से कर डाली। क्या भारत में व्याप्त इस स्थिति को सामान्य स्थिति कही जा सकती है ? क्या आपातकाल इससे अलग भी कुछ होता है? क्या पूरे भारत को जेलखाने में तब्दील नहीं कर दिया गया है ? क्या सचमुच हम आजाद देश के आजाद नागरिक होने का दंभ भर सकते हैं? संविधान और लोकतंत्र अब सिर्फ सुनने के लिए ही रह गए हैं। उनकी अहमियत और अस्मिता खत्म हो चुकी है। 

       सुप्रीम कोर्ट ने भी यह स्वीकार कर लिया है कि आज की परिस्थितियों में सरकार ही सर्वेसर्वा है, और सरकार के आदेश का पालन करना ही राष्ट्रभक्ति है, जिसे देश के सभी नागरिकों को निभाना होगा। कोरोनावायरस से बचने, उसकी जांच और उचित इलाज की अबतक भी कोई मुकम्मल व्यवस्था सरकार नहीं कर सकी है। सिर्फ लोगों को घरों में कैद कर सोशल डिस्टेंस की बात कर रही है,या फिर ताली, थाली, शंख और नगाड़ा बजाने और दीपक जलाने को कह रही है। अस्पतालों और क्लिनिकों में डाक्टरों, नर्सों और स्वास्थ्यकर्मियों के लिए भी आवश्यक और समुचित व्यवस्था अबतक भी नहीं की गई है, और न ही इतनी विशाल आबादी की जांच के लिए जांच किटों की ही व्यवस्था हो सकी है, इलाज रामभरोसे ही चल रहा है, और इस वायरस के नाम पर बाकी सारे रोगों का इलाज ठप्प है। जनवरी में ही इसकी जानकारी मिलने के बाद भी सरकार सोती रही, और अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के साथ दोस्ती बढ़ाने के लिए उनका स्वागत के लिए  अहमदाबाद में दुनिया के सबसे बड़े स्टेडियम मोटेरा में लाखों लोगों की भीड़ जुटाई गई, उन्हें आगरा और दिल्ली की यात्रा कराई गई, और आज यही तीनों स्थल कोरोनावायरस के सबसे हाट स्पाट बने हुए हैं। अपने ही देश के नागरिकों को गुलाम बनाना यदि फासीवाद नहीं है, तो और क्या है ?

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