*भारत में परंपरावादी राजनीतिबहुजन संगठनों की राजनीति * और दलित राजनीत**

दैनिक समाचार


यद्यपि दुनिया के लिए भारत एक कृषि प्रधान देश रहा है, परंतु वास्तव में, व्यवहार में, सामाजिक और आर्थिक व्यवस्था में, यह धर्म प्रधान ही देश रहा है।
भारत में चाहे वह धर्म व्यवस्था हो ,चाहे जाति व्यवस्था , इसके वास्तविक स्वरूप में ही एक वर्गीय अर्थव्यवस्था है। जिनका धर्म पर कब्जा, उन्हीं का संपत्ति पर कब्जा। जो जाति व्यवस्था जिस स्तर पर है, उसी स्तर पर अर्थव्यवस्था भी है, अर्थात जिसकी जाति ऊची, उसकी आर्थिक स्थिति ऊंची। जितनी छोटी जातियां उतनी संपत साधन शिक्षा स्वास्थ्य रोजगार से वंचित.
अब हमारे देश में संविधान बन गया, हम यह कहते हैं कि हमारा देश लोकतंत्रात्मक गणराज्य है, परंतु क्या धार्मिक सामाजिक और आर्थिक स्थिति में कोई बदलाव है जो अतीत में आजादी से पहले था?हां बदलाव इतना अवश्य है कि हर जाति में एक वर्ग बन गया है, धर्म में भी एक वर्ग बन गया और यह कट्टर वर्ग है जो एक साथ है चाहे वह ऊंची आति हो और चाहे वह नीची जाती हो। यही विडंबना है इस देश की राजनीति की इसीलिए परंपरा वादियों के अधिकार क्षेत्र में ही धर्म है संपत्ति है और शासन व्यवस्था भी है, सामाजिक व्यवस्था भी है।
परंतु एक सवाल भी है कि जब लोकतंत्र है और संविधान है तब यह व्यवस्था क्यों बनी हुई है,? जो परंपरा वादी है औरभी मजबूत होती जा रही है? इसका उत्तर भी है। परंपरागत जो सवर्ण वर्ग था, जो हमेशा सदियों से विदेशी लुटेरों के साथ रहा, मुगलों के साथ रहा, अंग्रेजों के साथ रहा, उसी ने अंग्रेजों से समझौता करके सत्ता पर कब्जा कर लिया और जब संविधान निर्माण की प्रक्रिया शुरू हुई तो इसने मतदान का अधिकार भी अपने पास ही रख लिया( 1931 की जनगणना में मतदान का अधिकार किसको होगा यह तय हुआ था) शिक्षा संपत्ति और कर जाता यह मानव के मतदाता के अधिकार के। 1946 में संविधान सभा का चुनाव हुआ तब इसी आधार पर इनडायरेक्ट चुनाव हुआः इसमें 296 सदस्य चुनकर आए थे।इनमें प्रचंड बहुमत हिंदू धर्म के कट्टर हिंदुओं का बहुमत था ,इन्हीं की जातियों का बहुमत था और सवर्ण वर्ग का बहुमत था। वर्णाश्रम धर्म व्यवस्था के अनुसार इन्हीं के पास शक्ति के स्रोत थे( धर्म संपत्ति और शिक्षा व्यवस्था) ।कांग्रेस पार्टी का बहुमत था जिसमें भी यही लोग थे। 93 नामित सदस्य राजे रजवाड़ों के थे जो अथाह संपत्ति के मालिक भी थे। मैंने भी अपनी संपत्ति और है श्वेत बचानी थी वह समाधान के रास्ते से।
इन सभी 389 सदस्य( इन्हीं में एक बाबा साहब डॉक्टर अंबेडकर भी थे)थे।
इस वर्ग विशेष ने अपने शासन के लिए संविधान और संवैधानिक संस्थाएं बना ले और आज जो चाहे सो करते रहते हैं कोई कार्यवाही नहीं होती है क्योंकि संविधान के तीनों अंगों विधायिका कार्यपालिका और न्यायपालिका पर इन्हीं का कब्जा है और सारे संवैधानिक संस्थाएं भी इन्हीं के अधिकार क्षेत्र में है। यद्यपि यह वर्ग अल्पसंख्यक है, परंतु जिस प्रकार से अतीत में इनके ऊपर अपना अधिकार जमाया था उसी प्रकार आज भी इसी का कब्जा है बहुजन के ऊपर पर और बहुसंख्यक बहुजन वर्ग जातियों में, धर्मों में बटा हुआ है, आपस में लड़ रहा है, उसे चेतना की आवश्यकता है ।
अफसोस की बात तो यह है कि जितने भी संगठन है बहुजन समाज के संविधान की पाठशाला आए,,बेबीनार चला रहे हैं वह भी बहुजन समाज के एक वर्ग विशेष के लोग ही चला रहे हैं, इसमें बाबा साहब की तारीफ कर रहे हैं उनको संविधान का निर्माता घोषित कर रहे हैं, दुनिया का सबसे श्रेष्ठ संविधान बता रहे हैं और यह भी कह रहे हैं कि उन्हें सब कुछ मिल गया है संविधान के द्वारा जब उनसे पूछा जाता है कि कौन सा अनुच्छेद है मूल अधिकारों में तब कहते हैं कि यह तो आर एस एस के लोग हैं वास्तव में यह आर एस एस के लोग ही हैं जो दूसरों को आर एस एस का कहते हैं जो चाहते नहीं है कि संविधान की सच्चाई जनता के सामने आए, जो परंपरा वादी व्यवस्था के साथ हैं लेकिन जाति के नाम पर अपने लोगों का ही भावनात्मक शोषण कर रहे हैं। इसी बात की समझने की आवश्यकता है ।मुसलमानों को अब किनारे करने का अभियान चल रहा है,जबकि बहुजन समाज के बहुसंख्यक वर्ग

को, दलितों को पहले से ही किनारे कर दिया गया है, संवैधानिक रास्ते से कमजोर बना दिया गया है। यही सब समझने की बहुत आवश्यकता है, यह बहु संख्यक वर्ग है, इसको समझना चाहिए और अपने मुद्दों के अनुसार इकट्ठा होना चाहिए संवैधानिक लड़ाई लड़नी चाहिए।
अगर हमारा संविधान परंपरावादी नहीं होता तो धर्म को संविधान के मूल अधिकारों में इस स्तर पर कभी नहीं रखा जाता परंतु बहुजन समाज के संगठन यह समझने का प्रयास ही नहीं करते।
मीडिया चर्चा करेगा परंतु संविधान की चर्चा नहीं करेगा?
डॉ राजाराम
9412258831
वंचित वर्ग संगठन

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