कबूतर

दैनिक समाचार

पहले धरा नहीं थी
जल ही जल था
मछलियाँ तैरती थीं
वैसे उनसे पहले
कीट पतंगे पानी वाले
स्वछंद तैरते थे।

देखा जाये तो
उन पतंगों से पहले भी
कुछ नहीं था
बस जल ही जल था।

सुना जाता, पढ़ा जाता है
पृथ्वी का अचानक
हुआ प्रादुर्भाव
फिर जीव जन्तु
फिर स्वेदज, जलचर, नभचर, थलचर
जो उत्थान कर
परिवर्तन नीति द्वारा
धीरे धीरे बने ‘मानव’।

मानव – वैसे
पैदा हुआ मन से
जो करता है मन की
इसलिये उसे कहते हैं मानव
प्रवत्ति चाहे रही
राक्षस की या देवता की।

दोनों में युद्ध होता रहा
सही गलत में – फिर!!

धरती का विकास
जल से बाहर हुआ
या कहें जल से धरती बनी
मानव ने अपने अपने
हिस्से बाँट लिये
और करने लगे राज।

सदियाँ गुजर गयीं
कल्प दर कल्प
युगों का भी कार्यकाल
बदलता चला गया
युद्ध होते रहे !!

मगर

मानव का पेट नहीं भरा
सभ्यताओं ने भी लिया जन्म
सभ्यताओं ने “धर्म” नाम की
गढ़ी, बनायी, प्रचलित की कहानी
मानव बँट गया
फिर हुआ युध्द !!

वर्तमान में, जिसे देखा गया
जाना गया, भुगता गया
मानव बँटता चला गया
राजा, प्रजा, धरती, देशों में।

” धर्म ” के मानव बनने लगे
एक दूसरे पर प्रभाव जमाने लगे
फिर—– हुये युद्ध !!

धीरे धीरे वर्तमान बना भूत
भूत हो गया भविष्य
भविष्य फिर लौट
बन गया वर्तमान ।

वर्तमान आज का —
धरती के बड़े चबूतरे पर
कबूतर दाना चुग रहे थे
फुदक फुदक—-पर

कहीं से एक पत्थर ” धर्म ” का
फेंका किसी मानव ने
कबूतर गुटरगूँ कर भागे
अलग अलग
पत्थरों पर बैठ चबूतरे के चिल्लाए –ये मेरा है, ये मेरा है ।

न्याय हुआ या किया गया
पत्थरों वाले कबूतर बाँट दिये —
कबूतर फिर मस्त हो
चुगने लगे दाना।

मानव ने फिर
-बँटे कबूतरों पर
फेंका पत्थर
कबूतर उड़े नहीं ,डटे रहे
दावा अपना, अपने पत्थर का
बात न्याय की करने लगे
आपस में युद्ध कर
बहाने लगे खून !!

सत्ता –पत्थर मानव की
हँसने लगी ठहाका मारकर
” धर्म ” सभ्यता की दुहायी दे —

वर्तमान में
कबूतर मर रहे हैं
भूखे, असहाय, बेबस
और
पत्थर मानव —हँस रहा है ।।

“रवीन्द्र शर्मा”
धरती

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