द्वारा : आर. सी. यादव
मानव शरीर नश्वर है, यह जानते हुए भी मनुष्य पाप-पुण्य से बेखबर नैतिक-अनैतिक में लिप्त रहता है। मनुष्य को सुमार्ग पर चलना चाहिए। निरंतर प्रयत्नशील रहते हुए, जो व्यक्ति अपने कर्तव्य पथ पर अग्रसर होता है, वही व्यक्ति सफल होता है। श्रीमद्भागवत गीता को हिन्दू धार्मिक ग्रंथों में एक विशेष स्थान प्राप्त है। गीता को सभी धर्मग्रंथों में श्रेष्ठ ग्रंथ माना जाता है। श्रीमद्भागवत गीता में हजारों वर्षों पहले कहे गए ऐसे उपदेश हैं, जो मनुष्य को आज भी जीने का मार्ग प्रशस्त करते हैं। जीवन पथ पर चलते हुए मनुष्य जब दिग्भ्रमित हो जाता है तो गीता के उपदेश उसका मार्गदर्शन करते हैं। मनुष्य स्वभावत: अल्पज्ञ और नासमझ है, उसे सांसारिक मोहमाया का जाल जकड़कर रखता है। पारिवारिक रिश्तों में बंधा हुए मानव को मात्र अपने घर-परिवार और सुख-शांति की तलाश होती है; लिहाजा उसे ईश्वर के प्रति समर्पण का समय कम मिल पाता है। प्रत्येक व्यक्ति को अपने धर्म-कर्म में आस्था, श्रद्धा और विश्वास तो होता है; परंतु वह सांसारिक मोहमाया में फंसकर नियमित धर्म-कर्म करना भूल जाता है ।
गीता उपदेश के गूढ़ रहस्यों को समझने के लिए संपूर्ण मानव जाति को गीता के उपदेशों के प्रति आस्थावान होना जरूरी है। गीता संकलित शिक्षाओं को अंगिकार कर, जो व्यक्ति अपने जीवनकाल में उसके सद्गुणों को अपनाकर आगे बढ़ता है, वह व्यक्ति सांसारिक मोहमाया से मुक्ति पाकर भवसागर से पार हो जाता है। भगवान श्रीकृष्ण ने गीता में मानव शरीर को नश्वर बताया है और आत्मा को अजर-अमर और शाश्वत। आकाश, धरती, जल, पवन और अग्नि से बना मानव शरीर एक न एक दिन मिट जाएगा; लेकिन आत्मा का अस्तित्व कभी समाप्त नहीं होगा। धर्म-कर्म के प्रति आस्थावान होना ही मानव की आत्मा का परमात्मा से मिलन का मोक्ष मार्ग है। आत्मा अमरत्व प्राप्त है, इसलिए मनुष्य को चाहिए कि वह अपनी लोभी प्रवृत्ति को त्यागकर ईश्वर के बताए हुए मार्ग पर चले। शरीर और आत्मा को लेकर भगवान श्रीकृष्ण ने गीता में कहा है :
नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि
नैनं दहति पावकः।
न चैनं क्लेदयन्त्यापो
न शोषयति मारुतः ॥
अर्थात, आत्मा को न शस्त्र काट सकते हैं, न आग उसे जला सकती है। न पानी उसे भिगो सकता है, न हवा उसे सुखा सकती है। आत्मा अजर-अमर और शाश्वत है। सांसारिक मोहमाया में भटकते हुए मानव जाति के लिए भगवान श्रीकृष्ण ने कहा कि मनुष्य को ईश्वर में आस्था, श्रद्धा और विश्वास रखना चाहिए और पूरी भक्तिभाव से खुद का जीवन ईश्वर को समर्पित कर देना चाहिए। भगवान श्रीकृष्ण ने खुद को धरती की मधुर सुगंध, अग्नि की ऊष्मा, सभी जीवित प्राणियों का जीवन और संन्यासियों का आत्मसंयम बताया है ।
कर्म के प्रति आस्थावान होना मनुष्य का स्वाभाविक गुण होना चाहिए। मनुष्य के लिए कर्म ही पूजा। बिना कर्म किए इच्छित फल की प्राप्ति नहीं हो सकती। ईश्वर ने जन्म के समय ही सबके कर्म को निर्धारित कर दिया है। अपने कर्म के प्रति समर्पित होना ही ईश्वर की आराधना है। भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है कि कर्म का फल व्यक्ति को उसी तरह ढूंढ लेता है, जैसे कोई बछड़ा सैकड़ों गायों के बीच अपनी मां को ढूंढ लेता है। तात्पर्य यह है कि यदि मनुष्य अपने कर्म के प्रति आस्थावान है और पूरी तन्मयता और एकाग्रता से अपना निर्धारित कार्य करता है तो उसे इच्छित फल की प्राप्ति अवश्य होगी। कर्म को सर्वोपरि रखते हुए भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है :
कर्मण्येवाधिकारस्ते
मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भुर्मा ते संगोऽस्त्वकर्मणि॥
अर्थात्, मनुष्य का अधिकार उसके अपने कर्म पर ही है, कर्म के फलों में नहीं। इसलिए कर्म को फल के लिए मत करो और न ही काम करने में तुम्हारी आसक्ति हो। भगवान श्रीकृष्ण का श्रीमद्भागवत गीता में दिया गया यह उपदेश मानव के कर्मयोग दर्शन का मूल आधार है ।
जीवन है तो सुख-दुख का आना जाना भी निश्चित है। पृथ्वी में जिस प्रकार मौसम में परिवर्तन आता है, उसी प्रकार जीवन में भी सुख-दुख आता जाता रहता है। मानव जाति की प्रवृत्ति यह है कि जरा-सा सुख-संपत्ति आते ही वह अपना विवेक खो देता है और उन्मादी हो जाता है। दुख आने पर यही व्यक्ति घोर निराशा और अवसाद से घिर जाता है। यह मानव के लिए अत्यंत हानिकारक है। मानव को चाहिए की विषम परिस्थितियों के आने पर वह शांत व गंभीर रहे और खुद को ईश्वर के प्रति समर्पित कर दे। ईश्वर के प्रति आस्था और विश्वास से मनुष्य का हर कष्ट दूर हो जाता है।
मानव, जगत का सबसे श्रेष्ठ और समझदार प्राणी है। उसके हृदय में परोपकार और संवेदना है। श्रेष्ठजन मानव जाति के कल्याण के लिए समर्पित रहते हैं। समाज को जागरूक, सक्रिय और उन्नतशील बनाने के लिए बुद्धिमान व्यक्ति को समाज के कल्याण के लिए बिना आशक्ति के काम करने चाहिए। प्रबुद्ध व्यक्ति सिवाय ईश्वर के किसी और पर निर्भर नही रहता है। जैसा कि श्रीकृष्ण ने गीता में कहा है :
यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जनः।
स यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते॥
अर्थात्, श्रेष्ठ पुरुष जैसा आचरण और व्यवहार करते हैं, दूसरे मनुष्य भी वैसा ही आचरण और व्यवहार करते हैं। श्रेष्ठ पुरुष जो प्रमाण या उदाहरण प्रस्तुत करता है, समस्त मानव-समुदाय उसी का अनुसरण करने लग जाते हैं। इसलिए श्रेष्ठजन को चाहिए कि वे अपने विचारों और कार्यों से समाज में एक मिसाल कायम करें, जिस पर समाज अन्य मनुष्य उससे लाभान्वित हो।
समय परिवर्तनशील है। मनुष्य को बीते हुए कल और आने वाले कल की चिंता नहीं करनी चाहिए; क्योंकि जो होना है, वही होगा और जो होता है, अच्छा ही होता है। जो हुआ, वह अच्छे के लिए हुआ है, जो हो रहा है, वह भी अच्छे के लिए ही हो रहा है और जो होगा, वह भी अच्छे के लिए ही होगा। जीवन न तो भविष्य में है, न अतीत में; जीवन तो बस इस पल में है। इसलिए मनुष्य को अपने वर्तमान का आनंद लेना चाहिए।
ईश्वर के प्रति आस्थावान और सर्वस्व समर्पण से मनुष्य ईश्वर के स्वरूपों का दर्शन कर पाता है। जो मनुष्य ईश्वर की उत्कृष्ट जन्म और गतिविधियों को समझता है, वह शरीर त्यागने के बाद पुनः जन्म नहीं लेता; बल्कि ईश्वर के धाम को प्राप्त होता है। श्रीकृष्ण ने कहा है कि भगवान प्रत्येक वस्तु में है और सबके ऊपर भी। सांसारिक जीवन में मनुष्य को अनेकों प्रकार की समस्याओं का सामना करना पड़ता है, उसे हर्ष और विषाद से गुजरना पड़ता है। ऐसी परिस्थिति में कोई भी निर्णय लेते समय न ज्यादा खुश हों, न ज्यादा दुखी हों; ये दोनों परिस्थितियाँ मनुष्य को सही निर्णय लेने नहीं देती।
भगवान श्रीकृष्ण ने मनुष्य के कर्म को निर्धारित करते हुए कहा है कि जो सदा मुझसे जुड़े रहते हैं और जो मुझसे प्रेम करते हैं, मैं उन्हें एक ज्ञान देता हूं। कभी भी अपने कर्तव्यों से विमुख न हों, अपने कार्य को पूरी तन्मयता और एकाग्रता से करें; कभी भी अनुचित और अनैतिक कार्य न ही स्वयं करें और नाही ऐसा करने में दूसरों का सहयोग करें। जीवन में सदा सुमार्ग अपनाएं और कुमार्गगामी होने से बचें। अप्राकृतिक कर्म बहुत तनाव पैदा करता है। हर व्यक्ति का विश्वास उसकी प्रकृति के अनुसार होता है। सीधा-सीधा, संस्कार से परिपूर्ण और नैतिकता पूर्ण जीवन सांसारिक मोहमाया से मुक्ति दिलाने का माध्यम है। ईश्वर में आस्था, श्रद्धा और विश्वास में ही मानव जाति का कल्याण निहित है।