कर्मण्येवाधिकारस्ते: कर्म ही श्रेष्ठ है

धार्मिक/जातीय विषय

द्वारा : आर. सी. यादव

                कर्म मनुष्य का सर्वश्रेष्ठ गुण है। कर्म के बल पर वह अपने प्रतिकूल परिस्थितियों को अपने पक्ष में मोड़ने में सफल होता है। मनुष्य की कर्मशीलता ही उसे सभी प्राणियों अलग करती है। मनुष्य का कर्मवीर होना सामाजिक स्थिति की सुदृढता के लिए जरूरी है। सृष्टि की रचना के साथ ही ईश्वर ने सभी जड़-चेतन की योग्यता और उपयोगिता के अनुसार उनके कर्म निश्चित कर दिये हैं। फलस्वरूप संपूर्ण जगत के सभी प्राणी अपने निर्धारित कार्यों के प्रति कर्मरति और क्रियाशील हैं। ऊषाकाल से रात्रि पहर तक अपने-अपने कर्मों में लीन जड़-चेतन प्रकृति की स्थिरता को कायम रखने में अपना योगदान दे रहे हैं। कुछ जड़-चेतन तो ऐसे भी हैं, जो निष्काम भाव से अपने अनमोल जीवन का एक बड़ा हिस्सा परहित में समर्पित कर रहे हैं। सबके अपने-अपने कर्म निश्चित और फलदाई हैं।

                महाभारत के युद्ध में भगवान श्रीकृष्ण ने कर्म और कर्मवीरता को लेकर मोहमाया की जाल में उलझे अर्जुन को गीता का उपदेश दिया। जिसके संज्ञान से धनुर्धर अर्जुन ने महाभारत का युद्ध लड़ने को तैयार हुए। भगवान श्रीकृष्ण को भविष्य में होने वाले अनावश्यक घटनाओं के बारे में पहले से ही बोध था; जिसके जरिए उन्होंने अर्जुन को माध्यम बनाकर सभी मानव जाति के कल्याण के लिए उपदेश दिया था। गीता के इन उपदेशों के जरिए कोई भी व्यक्ति अपने जीवन की सारी मुश्किलों को दूर कर सकता है। कर्म की उपयोगिता और सार्थकता को लेकर भगवान श्रीकृष्ण ने गीता में बड़ा ही अच्छा उपदेश दिया है:

कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।

मा कर्मफलहेतुर्भुर्मा ते संगोऽस्त्वकर्मणि॥

                अर्थात् मनुष्य का अधिकार मात्र कर्म‌ में ही है, उसके फल में नहीं। मनुष्य को अपने भविष्य की चिंता किए बिना अपना निर्धारित कार्य समय के साथ कर रहे हैं, पूरी दृढ़ता से करते रहना चाहिए। अगर मनुष्य वर्तमान समय में पूरी मेहनत और लगन के साथ अपना कर्म करेगा तो उसका भविष्य अवश्य बेहतर होगा। कर्म हमारी व्यवहारिक सोच है, जबकि कर्म का फल हमारी परिकल्पना है। हमें क्या करना है और क्या नहीं करना है, सोच-समझ सकते हैं, परंतु कर्म के फल की इच्छा नहीं कर सकते।

                संपूर्ण जगत को प्रकाशित करने वाला सूर्य प्रतिदिन नियत समय पर पूर्व में उदय होकर सांध्यकाल में अत्यंत मोहक लालिमा के साथ पश्चिम में अस्त हो जाता है। इस अवधि के दौरान सूर्य सभी जड़-चेतन को अपनी ऊर्जा प्रदान कर उनका जीवन अस्तित्व कायम रखता है। कर्म को श्रेष्ठ बताते हुए कहा है:

कर्मणो ह्यपि बोद्धव्यं

बोद्धव्यं च विकर्मणः।

अकर्मणश्च बोद्धव्यं गहना

कर्मणो गतिः॥

                अर्थात् मनुष्य को कर्म का मूल स्वरुप जानना चाहिए। अकर्म का और विकर्म का स्वरुप भी जानना चाहिए; क्योंकि कर्म की गति अति गहन है, जबकि अकर्म की गति स्थिर और निष्प्रभावी है।

यो न हृष्यति न द्वेष्टि न शोचति न काङ्क्षति।

शुभाशुभपरित्यागी भक्तिमान्यः स मे प्रियः॥

                नदियां और फलदाई वृक्ष बिना किसी इच्छा के परोपकार में लगे हुए हैं। “वृक्ष कबहू नहिं फल है भखै नदी न संचय नीर” अर्थात् नदियां अपना जल खुद नहीं पीती और वृक्ष अपना फल खुद नहीं खाते। इसके बाद वह अपना कर्म निर्बाध रूप से कर रहे हैं।

                मनुष्य के जीवन की सफलता उसके कर्म पर ही केंद्रित है। कार्य की सफलता के लिए लगनशील,‌ परिश्रमी और संघर्षरत होना आवश्यक है। कोई भी ऐच्छिक कार्य के सफल होने पर ज्यादा उत्साहित नहीं होना चाहिए। ऐसा करने से गलती के होने की आशंका बढ़ जाती है। इसके साथ ही हमें किसी दूसरे से जलन की भावना भी नहीं रखनी चाहिए; क्योंकि कर्म के प्रति सबकी अपनी-अपनी भूमिका और उपयोगिता है। कर्म की उपयोगिता को लेकर कहा गया है।

न हि कश्चित्क्षणमपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृत्।

कार्यते ह्यवशः कर्म सर्वः प्रकृतिजैर्गुणैः॥

                अर्थात् मानव को कोई न कोई कार्य अवश्य करते रहना चाहिए; जिसे वह करने के लिए बाध्य है। हर व्यक्ति में में कोई न कोई नैसर्गिक प्रतिभा अवश्य होती है। बस जरूरत होती है, अपने अंदर छिपी हुई प्रतिभा को पहचानने की; जिसके हिसाब से वह व्यक्ति काम कर सके।

                कर्म का विधान यह भी है कि उसका श्रेय खुद को न लेकर ईश्वर को समर्पित कर देना चाहिए और इसके लिए ईश्वर को धन्यवाद भी देना चाहिए कि उस सर्वशक्तिमान ने उस कर्म के लिए आपको चुना है। कर्म ही मनुष्य की श्रेष्ठता की पहचान है। कर्म के आधार पर ही मनुष्य की योग्यता और उपयोगिता निर्धारित होती है। आप कितने ही शिक्षित और कुशल क्यों न हों; यदि कर्म के प्रति आपकी कार्यक्षमता और निपुणता निष्प्रभावी है तो आपका शिक्षित और कुशल होना व्यर्थ है। कर्म को संपादित करने में सबसे पहला कदम कर्म के प्रति आस्थावान और समग्र समर्पित होना है। कर्म में लीन हो जाना ही निर्धारित कार्य की सफलता है। निष्काम भाव और इमानदारी से किया गया कार्य वांछित सफलता प्राप्त करने में सक्षम है।

                भगवान श्रीकृष्ण ने भी गीता के उपदेश में यही कहा है कि कर्म करते समय मनुष्य को चाहिए कि वह खुद को इतना तल्लीन कर ले कि उसे आसपास घटित घटनाओं का आभास भी न हो। जब मनुष्य पूरी तन्मयता और निष्ठा से कार्य करता है तो वह सफल होता है। अपने कर्म के प्रति आस्थावान और निष्ठावान व्यक्ति ईश्वर के सबसे करीब होता है। ईश्वर हर ऐसे व्यक्ति को सुख-समृद्धि प्रदान करता है, जो ईश्वर द्वारा निर्धारित कार्य समय और लगन से करते हैं। जरा विचार कीजिए अगर समय रहते बारिश न हो तो धरती की उपजाऊ मिट्टी बंजर भूमि में तब्दील हो जाएगी और उसकी मिट्टी में कोई भी फसल उगा पाना असम्भव हो जायेगा। पवन का बहना बंद हो जाए तो जगत में प्राणवायु के लिए हाहाकार मच जाएगा और यदि सूर्य उगना बंद कर दें तो संपूर्ण जगत अंधेरे में विलीन हो जाएगा।

                यह सभी ईश्वर द्वारा निर्धारित अपना कार्य समय पर और पूरी तन्मयता से कर रहे हैं तो मनुष्य तो जगत का सबसे श्रेष्ठ और समझदार प्राणी है। इसलिए मनुष्य को चाहिए कि वह अपने जीवन में ऐसे कार्यों का संपादन करें, जिससे मानव जाति का कल्याण हो। मनुष्य के जीवन का उद्देश्य निश्चित होना चाहिए। अपने अंदर छिपी नैसर्गिक प्रतिभा को निखारने के लिए मानव को प्रतिदिन जीवनोपयोगी कार्य करना चाहिए, जो दूसरों के लिए लाभकारी और सुखद अनुभूति प्रदान करने वाला हो। यही कर्म की सच्ची उपयोगिता और सार्थकता है।

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