ऐसी कहानियां सुनते सुनते मन मे ख्याल आया कि ‘राजा था” की जगह “राजा है” कहते हुए आज की कोई कहानी क्यों नहीं सुनाई जाती?
यह सवाल करने पर मेरी मझली दीदी प्रभाती ने बताया था-“अब राजा नहीं रह गये, अब तो प्रधानमंत्री होते हैं.”
अब राजा क्यों हटे, इस तरह की बात तब दिमाग मे नहीं आयी. प्रारंभिक शिक्षा मे इस बारे मे कोई विशेष जानकारी नहीं मिली. छठी और सातवीं क्लास काठमांडू मे जाकर पढ़नी पड़ी.
उस समय राजा महेन्द्र वीर विक्रम शाहदेव नेपाल के शासक थे.
तब राजतंत्र और राजतंत्र के अधीन नेपाल की आम जनता के दर्द को जानने का मौका मिला. राजा महेंद्र के पिता राजा त्रिभुवन की राणा शाही से हिफाजत भारत सरकार ने की थी.
नेपाल के बौद्धिक समाज मे समय समय पर चर्चा उठती थी कि क्या भारत मे नेपाल का विलय हो सकता है? स्वाभिमानी नेपाली कहते थे कि यह कैसे हो सकता है? हम तो कभी गुलाम नहीं रहे जबकि भारत ने तो 200 सालों तक अंग्रेजों की गुलामी की है!
गुलामी झेलने वाले की आजाद रहने वाले से क्या बराबरी?
इससे आहत भारत के बौद्धिक समाज की तरफ से जबाब मिलता-“गुलाम तो आप आज भी हैं, बस आपका देश गुलाम नहीं है; आपके यहाँ बस एक आदमी यानि राजा आजाद है, बाकि सब उसका हुक्म मानने को मजबूर हैं!”
उस समय मुझे समझ मे आया कि 26जनवरी 1950 का महत्व क्या था, राजाओं की समाप्ति कितनी जरूरी थी!
इस सदी ने नेपाल को राजा और राजतंत्र से मुक्ति का सफल संघर्ष देखा, लेकिन हमारे देश ने संघर्ष करके तख्त नहीं उछाले, ताज नहीं गिराये इसलिए राजाओं और राजतंत्र के प्रति विरोध भावना नहीं पनप सकी.
इसका नतीजा है कि आज राजाओं, बादशाहों की तारीफ करने की होड़ मची है!
उनको धर्म का संचालक मानते हुए “मेरा राजा वैरी गुड, तेरा राजा वैरी बैड” साबित करने की प्रक्रिया चल रही है.
जनवाद की लडाई से नहीं गुजरने के चलते हमारे अन्दर अभी भी जनतंत्र समा नहीं सका है.
राजाओं, बादशाह के बारे मे मुगलेआजम फिल्म मे एक विद्रोही फनकार के जरिए कहलवाया गया है कि
“शाही दरबार का मतलब वह जगह है, जहाँ बादशाह के मुंह से निकला हर लफ्ज़ इन्साफ कहलाता है”, जंग ए मैदान मे हजारों बेगुनाहों का खून और एक की फतह होती है, और सच बोलने का नतीजा होता है शाही हाथी के पैरों से कुचला जाना. बादशाहों के ईमान धर्म के बारे मे वह गाता है-
“ताज हूकुमत जिसका मजहब,
फिर उसका ईमान कहाँ!”
ऐसा ख्याल गायब क्यों किया जा रहा है ?
&Sanjiv Gupta*