‘सांस्कृतिक युद्ध’ ही मुक्ति का मार्ग —-
प्रो. श्रावण देवरे
आजकल ओबीसी जनगणना के मुद्दे पर कुछ राज्यों के नेता आक्रामक हुए हैं वहीं कुछ राज्यों के नेता सक्रिय होते हुए दिख रहे हैं।
2009 से 2011 के दरम्यान पार्लियामेंट इस मुद्दे पर आक्रामक हुई थी किन्तु अभी 2021-22 में इस मुद्दे पर पार्लियामेंट शांत की जा चुकी है।
सत्य दबाने के लिए एक रास्ता बंद करने पर दूसरी तरफ दस दरवाजे खुलते जाते हैं।
बिहार राज्य में ओबीसी जनगणना का मुद्दा राजनीतिक स्तर पर जोर पकड़ रहा है, केन्द्र व बिहार राज्य में सत्ताधारी भाजपा ने कई बार खुलकर ओबीसी जनगणना के विरोध में भूमिका अपनाई है।
बिहार भाजपा से तालमेल बिठाने के चक्कर में नीतीश कुमार ने अब तक ओबीसी जनगणना के मुद्दे पर सुविधाजनक भूमिका अपनाई है। अर्थात यदि किन्हीं कारणों से भाजपा उन्हें कहीं फंसा रही है तो उससे छुटकारा पाने के लिए भाजपा को अड़चन में लाना जरूरी हो जाता है, ऐसे समय में भाजपा को मात देने के लिए केवल राजनीतिक दांवपेंच के रूप में नीतीश कुमार ओबीसी जनगणना का मुद्दा इस्तेमाल कर रहे थे।
इसके पहले एक बार केवल चुनावी जुमला के रूप में उन्होंने ओबीसी जनगणना के मुद्दे का इस्तेमाल किया है।
ओबीसी जनगणना का मुद्दा संघ-भाजपा के लिए मृत्यु की खाईं में ढकेलने वाला “धक्का – प्वाइंट” होने के कारण वे कभी भी ओबीसी जनगणना का समर्थन नहीं करेंगे।
संघ-भाजपा वाले एक बार नीतीश सरकार को गिरा देंगे लेकिन ओबीसी जनगणना नहीं होने देंगे ,इसका विश्वास नीतीश कुमार को है। इसलिए वे अभी तक इस मुद्दे का राजनीतिक इस्तेमाल कर रहे थे।
किन्तु विरोधी पक्ष नेता तेजस्वी यादव द्वारा ओबीसी जनगणना के लिए बिहार से दिल्ली तक की संघर्ष यात्रा घोषित करते ही नीतीश कुमार हड़बड़ा कर जाग उठे और उन्हें इस मुद्दे पर आक्रामक होना पड़ा।
भाजपा सरकार न गिरा दे इसलिए वे तेजस्वी यादव से नजदीकी भी साध रहे हैं।
ओबीसी जनगणना का आक्रामक होकर विरोध करने वाली भाजपा नाक पर हाथ रखकर जनगणना को समर्थन दे रही है।
प्रमाणिक ओबीसी नेता आक्रामक हुए तो संघ- भाजपा जैसे कट्टर ब्राह्मण वादी भी नाक मुट्ठी में पकड़ कर शरणागत होने को मजबूर होते हैं। परंतु ओबीसी नेता का प्रमाणिक होना और उसका ओबीसी के मुद्दे पर आक्रामक होना ये बातें साधारणतया हो नहीं पातीं।
उसके लिए ओबीसी जनता व कार्यकर्ताओं का भी प्रमाणिक होना आवश्यक होता है।
इधर महाराष्ट्र में शरद पवार साहब ने भी ओबीसी जनगणना का मुद्दा पकड़ लिया है। राज्य में चल रही राजनीतिक लड़ाई में ओबीसी जनगणना को दांव पेंच के रूप में पवार साहब ने इस्तेमाल किया हो सकता है।
यदि ऐसा नहीं होता तो पवार साहब ने भी बिहार की ही तरह महाराष्ट्र में भी सर्वदलीय मीटिंग बुलाई होती।
ओबीसी जनगणना के मुद्दे पर महाराष्ट्र सरकार ने यदि सर्वदलीय मीटिंग बुलाई तो महाराष्ट्र भाजपा को नाक मुट्ठी में पकड़ कर उस मीटिंग में आना ही पड़ता और ओबीसी जनगणना को समर्थन करना ही पड़ता किन्तु ऐसा समय न आये इसके लिए भाजपा ने ताबड़तोड़ सीबीआई का अस्त्र निकाला है, ओबीसी जनगणना के मुद्दे पर छाछ भी फूंक कर पीने वाली संघ-भाजपा ने पवार साहब पर शिकंजा कसना शुरू कर दिया है।
ओबीसी जनगणना के मुद्दे पर पवार साहब की जबान बंद करने के लिए ही सीबीआई ने तुरंत ‘अविनाश भोंसले’ को गिरफ्तार कर लिया। कहते हैं कि नाक दबाने पर मुंह खुलता है पर यहां तो उल्टा ही हो रहा है मुंह बंद रखने के लिए नाक दबाई जा रही है।
ओबीसी के किसी भी सवाल को लेकर बिहार व तमिलनाडु के नेता जिस तरह आक्रामक होते हैं उसी प्रकार महाराष्ट्र व अन्य राज्यों में क्यों नहीं होते?
ओबीसी का राजनीतिक आरक्षण हो या ओबीसी जनगणना, ओबीसी के ये विषय केवल व्यक्तव्य देने व एक दूसरे पर आरोप प्रत्यारोप करने के लिए ही इस्तेमाल किए जाते हैं, हल निकालने के लिए नहीं, ऐसा क्यों ?
इसका सीधा कारण है कि तुम जितनी ऊंगली टेढ़ी करोगे उतना ही घी निकलेगा।
राजनीति में कोई भी किसी को फुकट में कुछ नहीं देता।
लोकतंत्र में चुनाव का महत्व है और चुनाव में वोट बैंक का!
ये वोट बैंक संख्या व राजनीतिक जागृति के आधार पर बनते रहते हैं।
उत्तर भारत मुख्यत: बिहार, उत्तर प्रदेश दोनों बड़े राज्यों में मंडल आयोग की पार्श्वभूमि में ओबीसी वर्ग में बड़े स्तर पर जागृति आई। लालूजी और मुलायम जी जैसे समाजवादी नेताओं के नेतृत्व में उन राज्यों में ओबीसी बड़े पैमाने पर संगठित हुए फलस्वरूप वहां ओबीसी की पार्टियां स्थापित हुईं और वे सत्ता में भी आईं।
परंतु बिहार और उत्तर प्रदेश की यह ओबीसी जागृति केवल राजनीतिक जागृति थी, वह सांस्कृतिक आंदोलन के अभाव में एकसंघ नहीं हो सकी।
केवल राजनीतिक जागृति जाति व्यवस्था को मात नहीं दे सकती।
जाति व्यवस्था ने प्रत्येक जाति में ब्राह्मणी वर्चस्व का आधार कायम रखा और उसका फायदा भाजपा ने राममंदिर आंदोलन के द्वारा उठाया ।
लालू, मुलायम अपनी अपनी पार्टियों में अपने अपने परिवार का वर्चस्व बढ़ाने में लगे रहे।
यादव जाति की संख्या अधिक होने के कारण जीतकर आने वालों में यादव की संख्या अधिक होती गई।
लालू- मुलायम इन दोनों की राजनीतिक पार्टियां यादव जाति की पार्टियां हैं ऐसा दुष्प्रचार खूब किया गया।
फलत: बहुसंख्यक ओबीसी जाति और अल्पसंख्यक ओबीसी जाति ऐसा ध्रुवीकरण हुआ जितना यादव-यादवेतर ध्रुवीकरण हुआ उसी प्रकार बसपा पार्टी के कारण चमार-चमारेतर ऐसा ध्रुवीकरण दलित जातियों में हुआ,उसका भी फायदा भाजपा को मिला।
इस जातीय ध्रुवीकरण को राममंदिर के ब्राह्मणी सांस्कृतिक आंदोलन द्वारा फोड़ लिए जाने के कारण भाजपा की खिचड़ी पक पाई और वह सत्ता में आ गई।
सांस्कृतिक आंदोलन के कारण यह आंदोलन अटूट एवं अविभाज्य हो गया है इसलिए दलित ओबीसी पर अनेक अन्याय अत्याचार होने के बावजूद वहां भाजपा की ही सत्ता आती रहती है।
बिहार एवं उप्र ओबीसी बहुल होने के कारण वहीं से भाजपा के लिए दिल्ली की सत्ता की राह भी आसान हो जाती है।
इन सब चर्चाओं का निचोड़ एक ही है कि जो सांस्कृतिक युद्ध में विजयी होगा वही बहुसंख्यक होगा और वही सत्ताधारी भी होगा।
सांस्कृतिक संघर्ष से साढ़े तीन पर्सेंट ब्राह्मण बहुसंख्यक बनते हैं और लोकतांत्रिक मार्ग से सत्ता में आते हैं।
प्राचीनकाल में जब लोकतंत्र नहीं था तब भी उन्होंने यज्ञ केन्द्रित सांस्कृतिक वर्चस्व स्थापित किया था जिसके कारण वे वर्णव्यवस्था के नाम पर हमेशा सत्ता में रहे।
बुद्ध को यज्ञ केन्द्रित हिंसक संस्कृति के विरोध में युद्ध छेड़ना पड़ा , उस युद्ध में बौद्ध विजयी हुए इसीलिए ब्राह्मणों को 1000 वर्षों तक पराभूत जीवन जीना पड़ा ।
बौद्धों के जागृति के केंद्र बौद्ध विहार, बौद्ध विद्यापीठ आदि राजनैतिक प्रतिक्रांति करके नष्ट करने के बाद ही ब्राह्मणों की विजयी घुड़दौड़ शुरू हुई।
उसके बाद रामायण – महाभारत व पुराणकथाओं के माध्यम से जो सांस्कृतिक युद्ध छेड़ा उसके द्वारा ही उन्होंने नई जाति व्यवस्था निर्माण करके अपनी ब्राह्मणी सत्ता को मजबूत किया।
आज का सांस्कृतिक संघर्ष यह इतिहास के पन्नों पर लड़ा जा रहा है,21 बार पृथ्वी को क्षत्रिय विहीन करनेवाला मां का गर्दन उड़ाने वाला पुरुष सत्ताक नराधम परशुराम यह उनकी ब्राह्मणी संस्कृति का प्रेरणादाई भगवान है, शूद्र शंबूक की हत्या करनेवाल राम उनका आदर्श है,कर्ण को शूद्र पुत्र कहकर अपमानित करनेवाला कृष्ण उनकी ब्राह्मणी संस्कृति का तारनहार है। बलीराजा को पाताल में गाड़ने वाला वामन उनके लिए अवतार पुरुष है।
उनके भगवान – आदर्श, अवतारों को उन्होंने सांस्कृतिक संघर्ष में विजयी घोषित किया और बलीराजा, शंबूक,कर्ण, रावण वगैरह अपने बहुजन योद्धाओं को पराभूत वर्णित किया जिसके कारण हमारी मानसिकता ही पराभूत मानसिकता निर्मित की गई।
इसीलिए हम संख्या में अधिक होने के बावजूद पराभूत जीवन जी रहे हैं। ब्राह्मणी अन्याय -अत्याचार के विरोध में लड़ने की प्रेरणा ही हम गंवा बैठे हैं।
लड़ने की यह प्रेरणा तुम्हें वापस पाना है तो इतिहास के पन्नों पर जाकर अपने पूरे ऐतिहासिक लड़ाकू पूर्वजों का जुझारू इतिहास जागृत करना पड़ेगा।
ब्राह्मणों द्वारा थोपे गए एकतरफी सांस्कृतिक युद्ध को अपने पक्ष में करने हेतु मुंह खोलना पड़ेगा।
उसकी शुरुआत तात्या साहेब महात्मा फुले व डा. अंबेडकर आदि कर ही चुके हैं।
इस लड़ाई में तात्या साहेब फुले ने बलीराजा दिया और बाबा साहेब ने शंबूक दिया है।
संघ- भाजपा के अन्याय अत्याचार के विरुद्ध लड़ने की प्रेरणा इसमें से ही मिलने वाली है।
तमिलनाडु की ओबीसी – बहुजन जनता ने स्वामी पेरियार के नेतृत्व में इसी प्रकार का “अब्राह्मणी – सांस्कृतिक ” संघर्ष किया जिसके कारण वहां संघ- भाजपा – कांग्रेस जैसी ब्राह्मणी शक्तियां पराभूत जीवन जी रही हैं और वहां के बहुजन बीते पचास सालों से सम्माननीय विजयी जीवन जी रहे हैं।
मुक्ति इसी पथ पर मिलने वाली है, अन्य मार्ग ही उपलब्ध नहीं है।
आजकल ओबीसी जनगणना के मुद्दे पर कुछ राज्यों के नेता आक्रामक हुए हैं वहीं कुछ राज्यों के नेता सक्रिय होते हुए दिख रहे हैं।
2009 से 2011 के दरम्यान पार्लियामेंट इस मुद्दे पर आक्रामक हुई थी किन्तु अभी 2021-22 में इस मुद्दे पर पार्लियामेंट शांत की जा चुकी है।
सत्य दबाने के लिए एक रास्ता बंद करने पर दूसरी तरफ दस दरवाजे खुलते जाते हैं।
बिहार राज्य में ओबीसी जनगणना का मुद्दा राजनीतिक स्तर पर जोर पकड़ रहा है, केन्द्र व बिहार राज्य में सत्ताधारी भाजपा ने कई बार खुलकर ओबीसी जनगणना के विरोध में भूमिका अपनाई है।
बिहार भाजपा से तालमेल बिठाने के चक्कर में नीतीश कुमार ने अब तक ओबीसी जनगणना के मुद्दे पर सुविधाजनक भूमिका अपनाई है। अर्थात यदि किन्हीं कारणों से भाजपा उन्हें कहीं फंसा रही है तो उससे छुटकारा पाने के लिए भाजपा को अड़चन में लाना जरूरी हो जाता है, ऐसे समय में भाजपा को मात देने के लिए केवल राजनीतिक दांवपेंच के रूप में नीतीश कुमार ओबीसी जनगणना का मुद्दा इस्तेमाल कर रहे थे।
इसके पहले एक बार केवल चुनावी जुमला के रूप में उन्होंने ओबीसी जनगणना के मुद्दे का इस्तेमाल किया है।
ओबीसी जनगणना का मुद्दा संघ-भाजपा के लिए मृत्यु की खाईं में ढकेलने वाला “धक्का – प्वाइंट” होने के कारण वे कभी भी ओबीसी जनगणना का समर्थन नहीं करेंगे।
संघ-भाजपा वाले एक बार नीतीश सरकार को गिरा देंगे लेकिन ओबीसी जनगणना नहीं होने देंगे ,इसका विश्वास नीतीश कुमार को है। इसलिए वे अभी तक इस मुद्दे का राजनीतिक इस्तेमाल कर रहे थे।
किन्तु विरोधी पक्ष नेता तेजस्वी यादव द्वारा ओबीसी जनगणना के लिए बिहार से दिल्ली तक की संघर्ष यात्रा घोषित करते ही नीतीश कुमार हड़बड़ा कर जाग उठे और उन्हें इस मुद्दे पर आक्रामक होना पड़ा।
भाजपा सरकार न गिरा दे इसलिए वे तेजस्वी यादव से नजदीकी भी साध रहे हैं।
ओबीसी जनगणना का आक्रामक होकर विरोध करने वाली भाजपा नाक पर हाथ रखकर जनगणना को समर्थन दे रही है।
प्रमाणिक ओबीसी नेता आक्रामक हुए तो संघ- भाजपा जैसे कट्टर ब्राह्मण वादी भी नाक मुट्ठी में पकड़ कर शरणागत होने को मजबूर होते हैं। परंतु ओबीसी नेता का प्रमाणिक होना और उसका ओबीसी के मुद्दे पर आक्रामक होना ये बातें साधारणतया हो नहीं पातीं।
उसके लिए ओबीसी जनता व कार्यकर्ताओं का भी प्रमाणिक होना आवश्यक होता है।
इधर महाराष्ट्र में शरद पवार साहब ने भी ओबीसी जनगणना का मुद्दा पकड़ लिया है। राज्य में चल रही राजनीतिक लड़ाई में ओबीसी जनगणना को दांव पेंच के रूप में पवार साहब ने इस्तेमाल किया हो सकता है।
यदि ऐसा नहीं होता तो पवार साहब ने भी बिहार की ही तरह महाराष्ट्र में भी सर्वदलीय मीटिंग बुलाई होती।
ओबीसी जनगणना के मुद्दे पर महाराष्ट्र सरकार ने यदि सर्वदलीय मीटिंग बुलाई तो महाराष्ट्र भाजपा को नाक मुट्ठी में पकड़ कर उस मीटिंग में आना ही पड़ता और ओबीसी जनगणना को समर्थन करना ही पड़ता किन्तु ऐसा समय न आये इसके लिए भाजपा ने ताबड़तोड़ सीबीआई का अस्त्र निकाला है, ओबीसी जनगणना के मुद्दे पर छाछ भी फूंक कर पीने वाली संघ-भाजपा ने पवार साहब पर शिकंजा कसना शुरू कर दिया है।
ओबीसी जनगणना के मुद्दे पर पवार साहब की जबान बंद करने के लिए ही सीबीआई ने तुरंत ‘अविनाश भोंसले’ को गिरफ्तार कर लिया। कहते हैं कि नाक दबाने पर मुंह खुलता है पर यहां तो उल्टा ही हो रहा है मुंह बंद रखने के लिए नाक दबाई जा रही है।
ओबीसी के किसी भी सवाल को लेकर बिहार व तमिलनाडु के नेता जिस तरह आक्रामक होते हैं उसी प्रकार महाराष्ट्र व अन्य राज्यों में क्यों नहीं होते?
ओबीसी का राजनीतिक आरक्षण हो या ओबीसी जनगणना, ओबीसी के ये विषय केवल व्यक्तव्य देने व एक दूसरे पर आरोप प्रत्यारोप करने के लिए ही इस्तेमाल किए जाते हैं, हल निकालने के लिए नहीं, ऐसा क्यों ?
इसका सीधा कारण है कि तुम जितनी ऊंगली टेढ़ी करोगे उतना ही घी निकलेगा।
राजनीति में कोई भी किसी को फुकट में कुछ नहीं देता।
लोकतंत्र में चुनाव का महत्व है और चुनाव में वोट बैंक का!
ये वोट बैंक संख्या व राजनीतिक जागृति के आधार पर बनते रहते हैं।
उत्तर भारत मुख्यत: बिहार, उत्तर प्रदेश दोनों बड़े राज्यों में मंडल आयोग की पार्श्वभूमि में ओबीसी वर्ग में बड़े स्तर पर जागृति आई। लालूजी और मुलायम जी जैसे समाजवादी नेताओं के नेतृत्व में उन राज्यों में ओबीसी बड़े पैमाने पर संगठित हुए फलस्वरूप वहां ओबीसी की पार्टियां स्थापित हुईं और वे सत्ता में भी आईं।
परंतु बिहार और उत्तर प्रदेश की यह ओबीसी जागृति केवल राजनीतिक जागृति थी, वह सांस्कृतिक आंदोलन के अभाव में एकसंघ नहीं हो सकी।
केवल राजनीतिक जागृति जाति व्यवस्था को मात नहीं दे सकती।
जाति व्यवस्था ने प्रत्येक जाति में ब्राह्मणी वर्चस्व का आधार कायम रखा और उसका फायदा भाजपा ने राममंदिर आंदोलन के द्वारा उठाया ।
लालू, मुलायम अपनी अपनी पार्टियों में अपने अपने परिवार का वर्चस्व बढ़ाने में लगे रहे।
यादव जाति की संख्या अधिक होने के कारण जीतकर आने वालों में यादव की संख्या अधिक होती गई।
लालू- मुलायम इन दोनों की राजनीतिक पार्टियां यादव जाति की पार्टियां हैं ऐसा दुष्प्रचार खूब किया गया।
फलत: बहुसंख्यक ओबीसी जाति और अल्पसंख्यक ओबीसी जाति ऐसा ध्रुवीकरण हुआ जितना यादव-यादवेतर ध्रुवीकरण हुआ उसी प्रकार बसपा पार्टी के कारण चमार-चमारेतर ऐसा ध्रुवीकरण दलित जातियों में हुआ,उसका भी फायदा भाजपा को मिला।
इस जातीय ध्रुवीकरण को राममंदिर के ब्राह्मणी सांस्कृतिक आंदोलन द्वारा फोड़ लिए जाने के कारण भाजपा की खिचड़ी पक पाई और वह सत्ता में आ गई।
सांस्कृतिक आंदोलन के कारण यह आंदोलन अटूट एवं अविभाज्य हो गया है इसलिए दलित ओबीसी पर अनेक अन्याय अत्याचार होने के बावजूद वहां भाजपा की ही सत्ता आती रहती है।
बिहार एवं उप्र ओबीसी बहुल होने के कारण वहीं से भाजपा के लिए दिल्ली की सत्ता की राह भी आसान हो जाती है।
इन सब चर्चाओं का निचोड़ एक ही है कि जो सांस्कृतिक युद्ध में विजयी होगा वही बहुसंख्यक होगा और वही सत्ताधारी भी होगा।
सांस्कृतिक संघर्ष से साढ़े तीन पर्सेंट ब्राह्मण बहुसंख्यक बनते हैं और लोकतांत्रिक मार्ग से सत्ता में आते हैं।
प्राचीनकाल में जब लोकतंत्र नहीं था तब भी उन्होंने यज्ञ केन्द्रित सांस्कृतिक वर्चस्व स्थापित किया था जिसके कारण वे वर्णव्यवस्था के नाम पर हमेशा सत्ता में रहे।
बुद्ध को यज्ञ केन्द्रित हिंसक संस्कृति के विरोध में युद्ध छेड़ना पड़ा , उस युद्ध में बौद्ध विजयी हुए इसीलिए ब्राह्मणों को 1000 वर्षों तक पराभूत जीवन जीना पड़ा ।
बौद्धों के जागृति के केंद्र बौद्ध विहार, बौद्ध विद्यापीठ आदि राजनैतिक प्रतिक्रांति करके नष्ट करने के बाद ही ब्राह्मणों की विजयी घुड़दौड़ शुरू हुई।
उसके बाद रामायण – महाभारत व पुराणकथाओं के माध्यम से जो सांस्कृतिक युद्ध छेड़ा उसके द्वारा ही उन्होंने नई जाति व्यवस्था निर्माण करके अपनी ब्राह्मणी सत्ता को मजबूत किया।
आज का सांस्कृतिक संघर्ष यह इतिहास के पन्नों पर लड़ा जा रहा है,21 बार पृथ्वी को क्षत्रिय विहीन करनेवाला मां का गर्दन उड़ाने वाला पुरुष सत्ताक नराधम परशुराम यह उनकी ब्राह्मणी संस्कृति का प्रेरणादाई भगवान है, शूद्र शंबूक की हत्या करनेवाल राम उनका आदर्श है,कर्ण को शूद्र पुत्र कहकर अपमानित करनेवाला कृष्ण उनकी ब्राह्मणी संस्कृति का तारनहार है। बलीराजा को पाताल में गाड़ने वाला वामन उनके लिए अवतार पुरुष है।
उनके भगवान – आदर्श, अवतारों को उन्होंने सांस्कृतिक संघर्ष में विजयी घोषित किया और बलीराजा, शंबूक,कर्ण, रावण वगैरह अपने बहुजन योद्धाओं को पराभूत वर्णित किया जिसके कारण हमारी मानसिकता ही पराभूत मानसिकता निर्मित की गई।
इसीलिए हम संख्या में अधिक होने के बावजूद पराभूत जीवन जी रहे हैं। ब्राह्मणी अन्याय -अत्याचार के विरोध में लड़ने की प्रेरणा ही हम गंवा बैठे हैं।
लड़ने की यह प्रेरणा तुम्हें वापस पाना है तो इतिहास के पन्नों पर जाकर अपने पूरे ऐतिहासिक लड़ाकू पूर्वजों का जुझारू इतिहास जागृत करना पड़ेगा।
ब्राह्मणों द्वारा थोपे गए एकतरफी सांस्कृतिक युद्ध को अपने पक्ष में करने हेतु मुंह खोलना पड़ेगा।
उसकी शुरुआत तात्या साहेब महात्मा फुले व डा. अंबेडकर आदि कर ही चुके हैं।
इस लड़ाई में तात्या साहेब फुले ने बलीराजा दिया और बाबा साहेब ने शंबूक दिया है।
संघ- भाजपा के अन्याय अत्याचार के विरुद्ध लड़ने की प्रेरणा इसमें से ही मिलने वाली है।
तमिलनाडु की ओबीसी – बहुजन जनता ने स्वामी पेरियार के नेतृत्व में इसी प्रकार का “अब्राह्मणी – सांस्कृतिक ” संघर्ष किया जिसके कारण वहां संघ- भाजपा – कांग्रेस जैसी ब्राह्मणी शक्तियां पराभूत जीवन जी रही हैं और वहां के बहुजन बीते पचास सालों से सम्माननीय विजयी जीवन जी रहे हैं।
मुक्ति इसी पथ पर मिलने वाली है, अन्य मार्ग ही उपलब्ध नहीं है।