व्यंग्य : राजेंद्र शर्मा
योगी जी ने छ: साल में यूपी को सचमुच पहले उत्तम और अब उत्सव प्रदेश बना दिया है। अगर थोड़ी-बहुत कसर रह भी गयी हो तो उसे, ‘‘मिट्टी में मिला देंगे’’ उत्सव ने पूरा कर दिया होगा। मर्डर के गवाह के, मर्डर के आरोपियों के मर्डर का जो उत्सव योगी राज ने मना कर दिखाया है, उसका मुकाबला कोई और उत्सव क्या कर सकता है? और इस धमाके से तो शुरूआत हुई है। बल्कि अभी तो अतीक अहमद वाला एपीसोड भी पूरा कहां हुआ है। सरकारी-गैरसरकारी मिलाकर अभी तो कुल छ: एन्काउंटर हुए हैं। लिस्ट में कटने को तो अभी भी तीन-चार और नाम बाकी हैं। और अगर तमाशबीनों के हाजमे की कमजोरी को देखते हुए, बाकी नामों का छोडऩा भी पड़ गया और ये वाला एपीसोड छ: नामों पर खत्म ही करना पड़ गया, तब भी क्या? अतीक एपीसोड के बाद मिट्टी में मिलाने के एपीसोड खत्म थोड़े ही हो जाएंगे। आएंगे, आएंगे, एक एपीसोड के खत्म होते ही दूसरे-तीसरे-चौथे आदि-आदि एपीसोड भी आएंगे। योगी जी अपने गद्दी पर रहते, उत्सव प्रदेश में उत्सव रुकने नहीं देंगे। हां! बीच-बीच में इंटरवल में स्वाद बदलने के लिए कभी बनारस का कॉरीडोर, तो कभी अयोध्या में मंदिर और कभी मथुरा में अब तक मस्जिद के कैप्सूल भी पेश किए जाएंगे। बस मीडिया के जरिए पब्लिक तालियां बजाती रहे, योगी जी एन्काउंटर उत्सव की सप्लाई कम नहीं होने देंगे।
फिर भी न जाने क्यों कुछ लोगों को लगता है कि उत्सव प्रदेश की छवि के लिए बुलडोजर ही बेहतर है। माना कि मिट्टी में मिलाने का जो काम एन्काउंटर करता है, वही काम बुलडोजर भी कर सकता है। बुलडोजर चलाकर मिट्टी में मिलाने पर भी, मीडिया के जरिए पब्लिक की उतनी ही तालियां मिलती हैं, जितनी एन्काउंटर करा के मिट्टी में मिलाने में मिलती हैं। उल्टे बुलडोजर से मिट्टी में मिलाने के, एन्काउंटर कराने के मुकाबले दो-दो एक्स्ट्रा फायदे भी हैं। पहला तो यह एन्काउंटर के मुकाबले, बुलडोजर चलाने में मिट्टी में मिलाने का काम, काफी कम खून-खराबे में सध जाता है। कानपुर की मां-बेटी जैसे मामले बहुत कम ही होते हैं, जहां झोंपड़ी पर चलने से बुलडोजर को रोकने के लिए, मां-बेटी आग में जल मरीं! वर्ना ज्यादातर तो बुलडोजर वाले मामले में सिर-विर फूटने में, हवालात-जेल भेजने में ही काम चल जाता है। आखिर, यह गांधी का देश है। यहां जितनी कम हिंसा-विंसा में काम चल जाए, उतना ही अच्छा! पब्लिक की हिंसा की बर्दाश्त धीरे-धीरे बढ़ेगी, तब तक एन्काउंटर की हार्डकोर हिंसा की जगह, बुलडोजर की हल्की-फुल्की हिंसा ही भली। पब्लिक तालियां बजाना भूलकर, हिंसा से डरने ही लग गयी तो?
दूसरा, एक्स्ट्रा एडवांटेज यह है कि बुलडोजर को आसानी से चुनावी निशाना बनाया जा सकता है। बुलडोजर पर सवार होकर चुनाव में वोट मांगने के लिए पब्लिक के बीच जाया जा सकता है। यहां तक कि अपना उपनाम बदलवाकर बुलडोजर बाबा कराया जा सकता है। पर एन्काउंटर बाबा नाम रखाया जा सकता है क्या? और मान लो देस में नाम तो रखा भी लें, पर ऐसा नाम लेकर विदेशी निवेश को न्यौतने जाया जा सकता है क्या? पर एन्काउंटर के भी तो अपने फायदे हैं। एन्काउंटर की तरह बुलडोजर से हमेशा-हमेशा के लिए किसी को मिट्टी में मिलाया जा सकता है क्या? फिर बुलडोजर से एन्काउंटर वाला डर भी तो नहीं फैलाया जा सकता है। वर्नात माफिया-वाफिया भी बुलडोजर का ही इस्तेमाल नहीं करने लग जाते!
इसलिए, न बुलडोजर छोटा, न एन्काउंटर बड़ा। न बुलडोजर भला, न एन्काउंटर बुरा। दोनों के अपने-अपने फायदे हैं। इसीलिए, बाबाजी ने दोनों हाथों लड्डू रखे हुए हैं — बुलडोजर बाबा कहो तो, एन्काउंटर बाबा कहो तो; मिट्टी में मिलाने का उत्सव चलता रहेगा। उस पार वालों के मुस्लिम पाकिस्तान के जवाब में, हमारा हिंदू पाकिस्तान बनता रहेगा।
(व्यंग्यकार वरिष्ठ पत्रकार और साप्ताहिक ‘लोकलहर’ के संपादक है।)