आलेख : राजेन्द्र शर्मा
राजधानी दिल्ली के प्रशासनिक तंत्र और खासतौर पर नौकरशाही के ढांचे पर अपना सीधा नियंत्रण बनाए रखने के लिए, मोदी सरकार द्वारा शुक्रवार को जारी किए गए अध्यादेश के खिलाफ शब्दश: पूरा विपक्ष अगर एकजुट न हो, तो ही हैरानी की बात होगी। बेशक, मोदी राज के लिए, इस विधेयक के लिए इससे खराब समय दूसरा शायद ही हो सकता था। यह अध्यादेश ठीक उस समय आया है, जब कर्नाटक के विधानसभाई चुनाव में सीधे मुकाबले में भाजपा की करारी हार और खासतौर पर प्रधानमंत्री के नेतृत्व में संघ-भाजपा के अपनी सरकार बचाने के लिए अपनी पूरी ताकत झोंक देने और अपने सारे हथियार आजमा लेने के बावजूद, उसकी कांग्रेस पार्टी के हाथों जबर्दस्त हार से, आने वाले चुनावों तथा विशेष रूप से 2024 के आम चुनाव में उसे हरा सकने की संभावनाओं को लेकर, विपक्षी कतारों में एक नया जोश पैदा हुआ है। और इस जोश ने, मोदी राज के खिलाफ विपक्ष के एकजुट होने के विचार के प्रति एक नयी गर्मी पैदा की है। इस पृष्ठïभूमि में मोदी राज के इस साफ तौर पर संघीय व्यवस्था विरोधी और तानाशाहाना केंद्रीयकरणवादी हमले से, विपक्ष की एकजुटता नहीं बढ़े, तो ही हैरानी की बात होगी।
बेशक, नेशनल कैपीटल सिविल सर्विस अथॅारिटी अध्यादेश की ऐसी टाइमिंग, मोदी सरकार ने अपनी मर्जी से नहीं चुनी है। यह टाइमिंग तो एक प्रकार से उसके ऊपर, सुप्रीम कोर्ट के 11 मई के उस दो-टूक निर्णय के जरिए आ पड़ी है, जिसके जरिए उसने राजधानी दिल्ली की चुनी हुई सरकार को, अपनी नौकरशाही पर नियंत्रण फिर से दिला दिया था। इस महत्वपूर्ण फैसले के जरिए, सुप्रीम कोर्ट की पांच सदस्यीय संविधान पीठ ने, 2016 से अपने सामने विचाराधीन इस मुद्दे का निर्णायक तरीके से फैसला कर दिया था कि राजधानी में नौकरशाही में जिम्मेदारियां देने, तबादले करने तथा अधिकारियों पर नियंत्रण का अधिकार, दिल्ली की चुनी हुई सरकार तथा उसके जरिए, दिल्ली की जनता का है। केंद्र सरकार, दिल्ली की जनता की चुनी हुई सरकार से इस अधिकार को सिर्फ इसलिए छीन नहीं सकती है, यहां राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र है।
सात साल लंबे इंतजार के बाद आए इस निर्णय में तथा इस निर्णय तक पहुंचने के क्रम में हुई बहस में देश की संवैधानिक बैंच ने यह स्पष्ट किया था कि 1991 के जिस कानून के अंतर्गत, राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र की इस विधानसभा तथा सरकार के गठन की व्यवस्था की गयी थी, उसमें ही उसके राष्ट्रीय राजधानी होने के तकाजों को देखते हुए, यहां पुलिस, भूमि तथा कानून व व्यवस्था के विषयों को, दिल्ली की सरकार के दायरे से बाहर, केंद्र के लिए सुरक्षित रखा गया था। लेकिन, केंद्र को भी अपने नियंत्रण को इससे आगे फैलाने की कोशिश नहीं करनी चाहिए। वर्ना इस राजधानी क्षेत्र के लिए, निर्वाचित विधानसभा के होने का कोई अर्थ ही नहीं रह जाएगा। संविधान पीठ द्वारा एक से ज्यादा मौकों पर केंद्र सरकार के तर्कों को प्रश्नांकित करते हुए कहा गया था कि इन तर्कों को मान लिया जाए तो, चुनाव के जरिए दिल्ली विधानसभा के गठन की कोई जरूरत ही नहीं रह जाएगी।
जाहिर है कि संविधान पीठ के इसी संवैधानिक व्यवस्थागत निर्णय को पलटने के लिए, मोदी सरकार इस निर्णय के एक हफ्ते में ही यह अध्यादेश ले आयी है। यह अध्यादेश, राजधानी की तमाम नौकरशाही में महत्वपूर्ण अधिकारियों को पदस्थापित करने आदि का निर्णय, एक तीन सदस्यीय अॅथारिटी को सौंपने के नाम पर, वास्तव में इन निर्णयों के मामले में फिर से व्यावहारिक मानों में राजधानी के उप-राज्यपाल तथा उसके जरिए केंद्र सरकार की ही सर्वोच्चता को बहाल करने और इस तरह, संविधान पीठ के निर्णय को ही पलटने की कोशिश करता है। बेशक, इसके लिए दिल्ली में निर्वाचित सरकार के गठन के मूल कानून में छूट गयी, संविधान पीठ द्वारा इंगित की गयी, इसकी किंचित अस्पष्टता को बहाना बनाया गया है कि राजधानी में नौकरशाही पर नियंत्रण किस के हाथ में होगा।
लेकिन, शीर्ष अदालत के विपरीत, जिसने जनतंत्र के तर्क के आधार पर, इस प्रश्न का निपटारा, केंद्र के लिए सुरक्षित रखे गए क्षेत्रों को छोड़कर, अन्य सभी क्षेत्रों में निर्वाचित दिल्ली सरकार को यह नियंत्रण सौंपने के पक्ष में किया है, मोदी सरकार का अध्यादेश यह नियंत्रण केंद्र के पक्ष में छीन लेने की जनतंत्र विरोधी कोशिश करता है। यह सुनिश्चित करने के लिए ही, प्रस्तावित प्राधिकार की अध्यक्षता रस्मी तौर पर निर्वाचित मुख्यमंत्री को सौंपे जाने के बावजूद, तीन सदस्यीय समिति में दो केंद्रीय शीर्ष नौकरशाहों को जोड़ते हुए, सभी निर्णय बहुमत से लिए जाने का प्रावधान करने के जरिए, केंद्र की मर्जी के हिसाब से सभी निर्णय होना सुनिश्चित किया गया है। उसके ऊपर से, इस प्राधिकार के सभी निर्णयों पर, उप-राज्यपाल को अंतिम अधिकार दिया गया है। हैरानी की बात नहीं है कि अनेक टीकाकारों ने, संविधान के अंतर्गत केंद्र के पास ऐसा कोई अध्यादेश जारी करने का अधिकार होने के तथ्य को स्वीकार करने के बावजूद, इस अध्यादेश के जरिए संविधान पीठ के फैसले को सीधे-सीधे पलटे जाने की, मोदी सरकार की जनतंत्र विरोधी दीदादिलेरी की ओर इशारा जरूर किया है।
कहने की जरूरत नहीं है कि राजधानी में दिल्ली में शीर्ष पदों को संभालने वाले नौकरशाहों पर सीधे केंद्र सरकार का नियंत्रण स्थापित करने की मोदी राज की यह कोशिश, कोई नौकरशाहों पर नियंत्रण हासिल करने तक सीमित कोशिश नहीं है। प्रशासन में महत्वपूर्ण पदों पर बैठे नौकरशाहों पर सीधे नियंत्रण हासिल करने का मकसद साफ तौर पर, राजधानी क्षेत्र की निर्वाचित सरकार को पूरी तरह से अधिकारहीन बनाकर, सारी सत्ता सीधे केंद्र सरकार के हाथों में केंद्रित करना है। यह किसी से छुपा हुआ नहीं है कि 2014 के आम चुनाव में मोदी की जीत के बाद, मौजूदा निजाम को पहला तगड़ा झटका 2015 की फरवरी में दिल्ली में हुए चुनाव में ही लगा था, जिसमें आम आदमी पार्टी ने सत्ता में जोरदार वापसी की थी, जबकि मोदी के विजय रथ के सहारे दिल्ली में लंबे अंतराल के बाद दोबारा सत्ता में आने की उम्मीद लगाए भाजपा, सत्तर सदस्यीय विधानसभा में तीन सीटों पर ही सिमट गयी थी। जाहिर है कि यह हार, जिसे 2020 की फरवरी के चुनाव में एक बार फिर दिल्ली की जनता ने दोहरा दिया और फिर, पिछले साल के आखिर में दिल्ली नगर निगम के चुनाव में भाजपा को हरा कर, इस पराजय को और पुख्ता कर दिया गया, मोदी राज को कभी हजम नहीं हुई।
दिल्ली की चुनी हुई सरकार के अधिकारों तथा शक्तियों का, उप-राज्यपाल के पद का सहारा लेकर अपहरण करने जो लड़ाई मोदी राज के पहले सालों में छेड़ी गयी थी, उसी के संदर्भ में शीर्ष नौकरशाही पर नियंत्रण का मुद्दा उठा था, जिस पर संविधान पीठ के फैसले को पलटने के लिए ही, अब यह अध्यादेश लाया गया है। वास्तव में इससे पहले भी, उप-राज्यपाल के जरिए दिल्ली सरकार के हाथ-पांव पूरी तरह से बांधे जाने की कोशिशों पर लगातार जारी विवादों का, सुप्रीम कोर्ट की पांच सदस्यीय संविधान पीठ ने ही 4 जुलाई 2018 के अपने एक निर्णय के जरिए अंत करने की कोशिश की थी। संविधान पीठ ने बुनियादी जनतांत्रिक सिद्घांत के आधार पर, उप-राज्यपाल के सर्वोच्चता के दावों को खारिज करते हुए, यह फैसला दिया था कि वह, निर्वाचित मंत्रिमंडल की सहायता तथा परामर्श से ही और उसके अनुसार ही काम करने के लिए बाध्य है। लेकिन, मोदी राज ने संविधान पीठ के उक्त निर्णय को भी अंतत: पलटने की कोशिश करने का ही रुख अपनाया था। कोविड की विनाशकारी डेल्टा लहर के बीचों-बीच, 2021 में मोदी सरकार ने राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र कानून में ही संशोधन कर, संविधान पीठ के निर्णय को उलटते हुए, उप-राज्यपाल को एक बार फिर निर्वाचित सरकार के सिर पर बैठाने की कोशिश की थी। एक प्रकार से, उसी खेल को दोबारा दोहराया जा रहा है।
दिल्ली के उदाहरण से साफ है कि मोदी राज का सहकारी संघवाद का नारा, वास्तव में उसके संघवाद विरोधी, केंद्रीयकरणकारी चरित्र को ढांपने की लफ्फाजी का ही साधन है। हालांकि, इस प्रवृत्ति के दायरे से स्वयं कथित डबल इंजन सरकारें भी पूरी तरह से बाहर नहीं हैं, फिर भी जाहिर है कि विपक्षी सरकारों के खिलाफ यह प्रवृत्ति और उग्र-शत्रुता का रूप ले लेती है। विपक्ष-शासित राज्यों में राज्यपाल-उपराज्यपाल, इस लड़ाई में नंगई से मोदी सरकार के हथियारों में तब्दील कर दिए गए हैं। इस प्रवृत्ति के खिलाफ विपक्ष को पूरी तरह से एकजुट होना ही चाहिए। लेकिन, याद रखना चाहिए कि यह इस या उस विपक्षी सरकार तक ही सीमित, मामला नहीं है। यह संघवाद विरोधी केंद्रीयता की प्रवृत्ति, तानाशाही की प्रवृत्ति का ही एक पहलू है। उम्मीद है कि आम आदमी पार्टी कम-से-कम अब इस सचाई को समझेगी। वर्ना मोदी राज के दूसरे कार्यकाल की शुरूआत में ही, जिस तरह जम्मू-कश्मीर के खिलाफ तख्तापलट किया गया था, उसका तो मोदी सरकार की तानाशाही से अपने सारे विरोध के बावजूद, आप पार्टी ने बाकायदा संसद में और संसद के बाहर भी समर्थन ही किया था। आशा की जानी चाहिए कि आप ही नहीं, बीजद तथा वाइएसआरसीपी जैसी फैंस पर बैठी, गैर-भाजपा पार्टियां भी इससे सबक लेंगी। वर्ना तानाशाही का यह हमला दूसरों तक ही सीमित नहीं रहेगा। एक दिन उनका भी तो नंबर आ सकता है।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और साप्ताहिक पत्रिका ‘लोकलहर’ के संपादक हैं।)