पूँजीपति वर्ग नकली राजसत्ता के लिये सामान्यतः हर पाँचवें वर्ष चुनाव करवाता है, मगर यह चुनाव इसलिए नहीं करवाता कि वह जनता के अनुसार सरकार चलाना चाहता है, बल्कि वह इसलिये चुनाव करवाता है, ताकि जनमत को शासक वर्ग के अनुकूल बनाया जा सके। यह एक षड़यन्त्र है। ऐसा षड़यन्त्र वह इसलिए करता है, ताकि जनता के बीच अंधविश्वास बना रहे कि यह सरकार जनता द्वारा ही चुनी जाती है।
अंधविश्वास फैलाये बगैर वे मुट्ठी भर लोग बहुसंख्यक जनता को अपने वश में करके उनका शोषण नहीं कर सकते। यह पूंजीपति वर्ग की नयी खोज नहीं है।
प्राचीनकाल में भी राजनीतिक अंधविश्वास फैलाया जाता था, क्योंकि जनता को सच-सच बताकर मुट्ठी भर कामचोर शोषक वर्ग बहुसंख्यक मेहनतकश जनता को अनुशासित नहीं कर सकता।
जब दास प्रथा का दौर चल रहा था, तब भी मुट्ठी भर लोग ही दास मालिक थे और वे बहुसंख्यक लोगों को बलपूर्वक गुलाम बना लिये थे। खेती व पशुपालन के विस्तार के साथ-साथ गुलामों की संख्या भी बढ़ती जा रही थी। सिर्फ शारीरिक बल से गुलामों को नियंत्रित करना कठिन होता जा रहा था। तब दासों के बीच दास मालिकों को दिव्य शक्ति के रूप में प्रचारित किया गया। दास मालिकों को सूर्य पुत्र, इन्द्र पुत्र, अग्नि पुत्र या वायुपुत्र…. आदि बताकर दासों को उनका भय दिखाकर अनुशासित किया जाता था। दास वर्ग यह सोच कर भयभीत हो जाता था कि हमारा मालिक सूर्य का पुत्र है। अगर मालिक को कोई कष्ट होगा तो सूर्योदय नहीं होगा, रात बनी रहेगी, अंधेरा कायम रहेगा।
जिन दासों में यह अन्धविश्वास फैलाया गया था कि उनका मालिक अग्नि पुत्र है, उन दासों को यह डर होता था कि अगर दास मालिक को कोई दुःख पहुँचाया जायेगा तो कष्ट पहुंचाने वाले दासों को अग्नि देवता भस्म कर देंगे। जब तक दासों में यह अंधविश्वास बना रहा कि दास मालिक सूर्य का पुत्र है या दास मालिक अग्नि का पुत्र है, तब तक वे शक्तिशाली होते हुए भी दास मालिकों का अत्याचार चुप-चाप सहते रहे।
कालान्तर में जब खेतों का विस्तार हुआ। जमीन के बदले लगान वाली व्यवस्था लागू हुई। सामन्त वर्ग तमाम दास मालिकों को अपने अधीन बना लेता है। उसके खेतों का विस्तार सैकड़ों मीलों तक फैल जाता है। इस प्रकार उस दायरे में आने वाले सभी दास मालिकों का भी एक मालिक बन जाता है। तब इसी भौतिक आधार पर भाव जगत में भी सबका मालिक एक, अर्थात “ईश्वर” की कल्पना की गयी। जहाँ दास मालिक अग्नि, वायु, जल, पृथ्वी, आकाश…. आदि में से किसी एक ही शक्ति के स्वामी कहे जाते थे, वहीं अब राजा को सारी शक्तियों का स्वामी कहा जाने लगा। अर्थात राजा को ईश्वर का अवतार के रूप में प्रचारित किया गया।
इस झूठे प्रचार को अनपढ़ प्रजा ने आँखें मूंद कर विश्वास कर लिया और जब तक इस अंधविश्वास का खुमार जनता के सिर पर चढ़ा था, तब तक वह राजा के अत्याचारों को सहती रही। इस तरह का अंधविश्वास फैलाये बगैर राजा अपने दूर-दूर तक फैले राज्य को सिर्फ जेल, अदालत, सेना, पुलिस और नौकरशाही के बल पर नियंत्रित नहीं कर सकता था। प्रजा के बीच यह अंधविश्वास कि राजा ईश्वर पुत्र ईश्वर का प्रतिनिधि या ईश्वर का अवतार है, जितना मजबूत होता गया जनता उतनी ही आसानी से नियंत्रित होती गयी।
अंधविश्वास जितना मजबूत रहता है, शोषक वर्ग की राजसत्ता उतनी ही मजबूत होती है।
पूँजीवादी लोकतंत्र नये जमाने का अंधविश्वास : आज की शिक्षित पीढ़ी के बीच पूंजीपति वर्ग उस पुराने विश्वास को बनाये नहीं रख सकता। वह अपने को ईश्वर का अवतार घोषित करेगा तो सभी धर्मों-त्यों के लोग उसे मान्यता नहीं देंगे। इसलिये वह धर्मनिरपेक्षता का चोला ओढ़ लेता है। पूँजीवादी लोकतन्त्र की स्थापना के लिये “एक वोट का अधिकार देता है” और कल-बल-छल से अपने काले धन के प्रभाव से उस वोट को अपने पक्ष में करवा लेता है और घोषित करता है कि “जो व्यक्ति चुनाव जीतता है, वह जनता का प्रतिनिधि होता है।” परन्तु जिस तरह राजा ईश्वर का प्रतिनिधि नहीं होता, उसी तरह पूंजीपति वर्ग के लोकतंत्र में चुना गया व्यक्ति जनता का प्रतिनिधि नहीं होता। उन्हें जनता का प्रतिनिधि मानना राजनीतिक अंधविश्वास है।
पूँजीवादी राजसता की ताकत उसकी सेना व पुलिस की बन्दूक की नलियों से होकर निकल रही है, परन्तु पूंजीवादी राजसत्ता सिर्फ बन्दूक के भरोसे नहीं चलायी जा सकती। इसलिये बन्दूक के साथ-साथ जनता में अंधविश्वास भी फैलाना पड़ता है, वरना पूंजीवादी राजसत्ता को जनता ध्वस्त कर सकती है।
दलितों में अंधविश्वास को बढ़ावा देने के लिये शासकवर्ग प्रचार कर रहा है कि तुम्हारे बाबा साहब ने एक वोट का अधिकार दिया है। अब राजा रानी के पेट से नहीं पैदा होगा, बल्कि मतपेटी से पैदा होगा। इस तरीके से बहुसंख्यक दलित वर्ग अपने बल पर सत्ता पर कब्जा कर सकता है।
मगर सच्चाई यह है कि चुनाव द्वारा जनता को राजसत्ता तो क्या; कोई भी अधिकार नहीं मिलता। पूँजीवादी लोकतंत्र की मजबूती के लिए मुख्यतः चार तरह का अंधविश्वास फैलाया जाता है –
पूंजीवादी लोकतंत्र द्वारा चुना गया व्यक्ति पूंजीपति वर्ग का प्रतिनिधि होता है, मगर बताया जाता है कि वह जनता का प्रतिनिधि होता है।
पूंजीपतियों के धनबल से उनकी सरकारें बनती है, मगर बताया जाता है कि जनता वोट देती है, तभी सरकारें बनती है या
जनता पूंजीपतियों के प्रतिनिधियों को चुनाव में वोट देने के लिए बाध्य होती है, मगर बताया जाता है कि अपना प्रतिनिधि चुनने के लिये स्वतंत्र है।
चुना गया व्यक्ति पूंजीपति वर्ग के लिए काम करता है। वह पूंजीपति वर्ग का ही प्रतिनिधि होता है, मगर बताया जाता है कि वह अमुक जाति, धर्म या नस्ल का प्रतिनिधित्व करता है।
जब तक यह अंधविश्वास कायम रहेगा, तब तक पूँजीवादी राजसत्ता को उखाड़ा नहीं जा सकता। जब तक पूँजीवादी राजसत्ता को उखाड़ा नहीं जायेगा, तब तक बेरोजगारी महंगाई, भ्रष्टाचार, गरीबी आदि समस्याओं का खात्मा नहीं होगा। अतः लोकतंत्र का वर्तमान पूँजीवादी स्वरूप एक भयानक अंधविश्वास है। इस विश्वास के रहते भारत में किसी भी समस्या का समाधान नहीं हो सकता। यह अवविश्वास जितना ही बढ़ेगा, समस्यायें उतनी ही बढ़ेगी और मेहनतकश जनता की गुलामी की बेड़ियाँ उतनी ही मजबूत होगी।
अतः जब शासक वर्ग लोकतंत्र को मजबूत करने की बात करता है तो स्पष्ट रूप से समझ लेना चाहिए कि वह राजनीतिक अंधविश्वास को मजबूत करना चाहता है। अर्थात मेहनतकश जनता की गुलामी की बेड़ियों को मजबूत करना चाहता है।
क्रमशः जारी…. भाग- 15
रजनीश भारती
राष्ट्रीय जनवादी मोर्चा
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