ज़्यादा लिखने का मन नहीं करता आजकल इसलिए नहीं लिखती, पर ये लिख्नना ज़रुरी था. बस कुछ नुख्ते गिनाने हैं:
अचानक से देशभक्त भारतीयों का खून खोल रहा है और उन्हें इल्हाम हो रहा है कि कश्मीरी पंडितों के साथ कितना ज़ुल्म हुआ है! थोड़ा पड़-लिख लेते तो पूरी कश्मीर समस्या जान जाते! ये भी जान जाते कि भारतीय राज्य कश्मीर में क्या गुल खिला रहा है!
ज़ुल्म. बिलकुल हुआ है. इससे बड़ा ज़ुल्म क्या हो सकता है कि आप अपनी ज़मीन से ही कट जाएं. इससे बड़ा ज़ुल्म क्या हो सकता है कि कश्मीरी पंडितों और मुसलमानों की पीढियां एक दूसरे की दुश्मन बन गई है. इससे ज़्यादा ज़ुल्म क्या हो सकता है कि कश्मीरियत की मौत हो जाए.
हिंसा. हुई. और बेहिसाब हुई. गिरिजा टिकू का बलात्कार करके उसे आरा मशीन में दो टुकड़ों में काट दिया गया. सड़कों-मस्जिदों से ऐसे नारे लगे जो दिल दहलाने वाले थे. हमारे खुद के घर में millitants घुसे थे. मैं सिर्फ़ छह साल की थी जब रात के 2 बजे हमने हमेशा के लिए कश्मीर छोड़ दिया. पिछले अक्टूबर में 32 साल बाद मैं एक टूरिस्ट बनकर वहां गई. भारत में रहने वाला कोई इसे कभी महसूस नहीं कर सकता. खैर, कश्मीरी पंडितों पर हुई हिंसा को काल्पनिक बताने वालों को पहले तो थोड़ा पढ़ लेना चाहिए. यही वजह है कि ऐसे लोगों की कोई credibility नहीं रहती. और यही वजह है कि संघियों को मौका मिल जाता है बार-बार इस मुद्दे को भुनाने का.
एक भी इंसान की मौत (वो राज्य द्वारा प्रायोजित हो या मज़हब और धर्म में पागल हुए लोगों द्वारा हो), उस पर सवाल उठना चाहिए. और हर किसी को उठाने चाहिए.
इस सबके बावजूद यह फ़िल्म किसी भी तरह से मेरे दर्द की कहानी नहीं है. मेरे दर्द का सहारा लेकर डायरेक्टर ने हिंदुस्तान में रह रहे मुसलमानों के लिए ज़िंदगी को जहानुम बनाने का प्रोजेक्ट पूरा करने की भूमिका में बड़ा योगदान दिया है…
मेरे दर्द का सहारा लेकर, और तथाकथित वाम को निशाना बनाकर पूरे कम्युनिज्म की विचारधारा को बदनाम करने का काम किया है….
मेरे दर्द का सहारा लेकर राजनीतिक तथ्यों को ज़बरदस्त तोड़ने-मरोड़ने का काम किया गया है. त्रासदी है कि लोग आजकल इतिहास फ़िल्मों से जान रहे हैं!
थिएटर में लग रहे नारे, “ठोक के देंगे आज़ादी, JNU को देंगे आज़ादी” “जिस हिंदू का खून न खोला, खून नहीं वो पानी है” आने वाले दिनों में घटने वाले खूनी मंज़र को साफ़ तौर पर आँखों के सामने रख रहा है. ये नारे RSS के लोग लगा रहे हैं और जनता साथ में बह रही हैं.
कश्मीरी पंडितों का दर्द तो बहाना है, असली निशाना भारत के मुसलमान हैं और कम्युनिज्म है……
यह मुद्दा आज RSS के पाले में इतने बखूबी तरीके से चला गया है. मेरा सवाल उन तमाम लिबरल्स से है, तथाकथित वाम पार्टियों से है, आखिर कैसे? पिछले काफ़ी समय से कोशिश कर रही हूँ कि कम्युनिस्ट पार्टियों का कोई ऐसा स्टेटमेंट मिले जिसमें उन्होंने कश्मीरी पंडितों के पलायन पर और कश्मीर की फिज़ाओं में इस्लामिस्ट नारों की गूंज की निंदा की हो. अभी तक नहीं मिला. आपको मिले, तो मुझे भेजिए. क्योंकि अगर ऐसा कोई स्टेटमेंट नहीं है तो इतिहास में यह चुप्पी ज़रूर और ज़रूर दर्ज होनी चाहिए. क्या विचारधारा को यांत्रिक तरीके से लागू किया जा रहा था?
मैं इतना जानती हूँ कि इस फ़िल्म ने फासिस्ट प्रोजेक्ट को और आसान बनाने का काम किया है और वो भी मेरे दर्द का सहारा लेकर. पर मैं इस खूनी प्रोजेक्ट का हिस्सा नहीं बनूंगी.
मैं सेलेक्टिव प्रतिरोध नहीं करती, मेरा प्रतिरोध हर ज़ुल्म पर है. और आपका?
श्वेता कौल