मोदी सरकार ने मीडिया पर नया हमला बोलते हुए पत्रकारों को मान्यता देने की नीति तैयार की है। ‘केंद्रीय मीडिया मान्यता निर्देश–2022 के तहत मोदी सरकार ने ऐसी शर्तें पत्रकारों पर थोपी हैं, जिनका उल्लंघन करने पर उनकी मान्यता रद्द हो सकती है। शर्तों में ऐसी पत्रकारिता करने पर रोक लगा दी गई है, जो देश की “सुरक्षा, स्वतंत्रता और एकता” को, सार्वजनिक अमन को नुक़सान पहुँचाती हो। देश की “सुरक्षा, स्वतंत्रता और एकता” को कैसी पत्रकारिता से ख़तरा हो सकता है, यह फ़ैसला सरकार द्वारा बनाई गई कमेटी करेगी।
पत्रकार को मान्यता का अर्थ
क्या है?
पत्रकार को मान्यता मिलने का अर्थ है कि वह सरकारी दफ़्तरों, सरकारी कार्यक्रमों में जा सकते है, वहाँ सरकारी नुमाइंदों से सवाल पूछ सकते हैं। हालाँकि आज पूँजीवादी मीडिया का बड़ा हिस्सा मोदी सरकार ने अपने अधीन कर रखा है, लेकिन फिर भी ये नए निर्देश पत्रकार की बुनियादी परिभाषा को बदलकर सवाल करने वाले गिने-चुने पत्रकारों को भी निपटाने वाला क़दम है, क्योंकि जो भी पत्रकार शासक पार्टी के नज़रीए से सहमत नहीं, उसकी मान्यता रद्द करके उसकी सरकारी कार्यक्रमों में पहुँच बंद की जा सकती है। पत्रकार को मान्यता देने-ना देने का फ़ैसला सरकार द्वारा बनाई जाने वाली 25 सदस्यीय ‘केंद्रीय मीडिया मान्यता कमेटी’ को सौंपा गया है, जिसकी अध्यक्षता प्रेस सूचना ब्यूरो का अध्यक्ष करेगा और बाक़ी के सदस्य सरकार द्वारा नामज़द किए जाएँगे। यही कमेटी तय करेगी कि पत्रकारों द्वारा पेश की गई संबंधित ख़बर ‘भड़काऊ’ या ‘देश विरोधी’ है या नहीं। मोदी सरकार द्वारा जिस तरह ‘देश विरोध’ के ठप्पे को हर जनवादी आवाज़ को कुचलने के लिए पिछले समय में इस्तेमाल किया गया है, उसका साफ़-साफ़ मतलब यही है कि पत्रकारों को सीधा निर्देश यह है कि या तो भाजपा के कार्यकर्ता बनकर हमारे साथ रहो, नहीं तो तुम्हारी मान्यता रद्द करके बाहर कर दिया जाएगा। दिलचस्प बात यह है कि मोदी सरकार द्वारा जारी किए गए ये नए निर्देश संविधान की धारा 19(2) को ही आधार बनाकर जारी किए गए हैं, जिसमें देश के हर नागरिक की अभिव्यक्ति की आज़ादी पर बंदिश लगाने की सहूलत है। यानी पूँजीवादी शासकों द्वारा तैयार इस संविधान को भी बदलने की ज़रूरत नहीं, बल्कि इसकी कमज़ोरियों को इस्तेमाल करके ऐसे अत्याचारी, तानाशाह क़ानून बनाए जा रहे हैं। कहने का मतलब सरेआम तानाशाही का रास्ता भी इसी संविधान से होकर गुज़रता है।
सवालों से क्यों भाग रहे हैं शासक?
पूँजीवादी मीडिया को छोड़ दें तो ऐसे कुछ गिने-चुने स्वतंत्र पत्रकार या छोटी संस्थाएँ ही बची हैं, जो जनपक्षधर नज़रिए से ख़बरें सामने लाती हैं। आमतौर पर इन संस्थाओं की इतनी भी हैसियत नहीं कि ये बड़े सरकारी सम्मानों तक पहुँच सकें। ऊपर से नए निर्देशों के तहत यदि किसी अख़बार के पत्रकार ने मान्यता हासिल करनी है, तो उसके अख़बार की रोज़ाना बिक्री कम-से-कम 10,000 और ऑनलाइन मीडिया संस्था के लिए महीने के कम-से-कम दस लाख दर्शकों का होना ज़रूरी है। यह अपने-आप में वित्तीय पक्ष से छोटे मीडिया संस्थानों को बाहर रखना है। लेकिन तो भी सरकार का डर यह है कि कोई पत्रकार आकर सरकार की नीतियों पर उससे जवाबदेही ना माँग ले। जैसे-जैसे भारत की अर्थव्यवस्था पतन की ओर गई है, वैसे-वैसे जनवाद का दायरा भी सिकुड़ता गया है और अफ़सरशाही, मंत्री-संत्री लोगों की पहुँच से और दूर होते गए हैं। जैसे किसी राजनेता के साथ चलने वाला भारी सुरक्षा दस्ता उसे आम लोगों की पहुँच से बहुत दूर कर देता है, वैसे ही ये शासक अब ‘वाया मीडिया’ आने वाले तल्ख़ सवालों से भी परे रहना चाहते हैं। शासकों की लोगों से बढ़ती दूरी में यह एक और पड़ाव है।
प्रेस आज़ादियों के मामले में “ख़तरनाक देश” भारत
ऐसा पहली बार नहीं कि शासकों ने ख़ुद को आलोचनात्मक सवालों से बचाने के लिए मीडिया पर पाबंदियाँ लगाने की कोशिश की हो। इंदिरा गाँधी द्वारा लगाए गए आपातकाल के समय भी मीडिया संस्थाओं पर भारी पाबंदियाँ लगाई गई थीं, जिन्हें लंबे तक विरोध के चलते वापिस लेना पड़ा था। इसी तरह राजीव गाँधी हुकूमत ने 1988 में ‘मानहानि बिल’ लाकर प्रेस पर मुक़म्मल ग़लबा क़ायम करने की कोशिश की थी, जिसे मीडिया और जनता के एक हिस्से द्वारा विरोध के कारण वापिस लेना पड़ा था। अब हाल ही में मोदी सरकार ने ‘तकनीकी सूचना क़ानून’ के तहत ऑनलाइन मीडिया पर नई पाबंदियाँ थोपी हैं। इसके अलावा ज़मीनी स्तर पर छोटी संस्थाओं के लिए काम करने वाले कितने ही पत्रकारों के साथ धक्केशाही और क़त्ल तक की वारदातें घटित हुई हैं। यही कारण है कि विश्व प्रेस आज़ादी के सूचकांक में भारत को 180 देशों में से 142वाँ दर्जा दिया गया है। भारत की इस क़दर ख़राब कारगुज़ारी पर टिप्पणी करते हुई रिपोर्ट में कहा गया कि हिंदुत्वी विचारधारा और भाजपा समर्थकों ने “देशद्रोह” के फ़तवे के तहत भारत में उन पत्रकारों के लिए डरावना माहौल बना रखा है जो सरकार की नीतियों की आलोचना करते हैं।
मोदी सरकार द्वारा मीडिया पर नकेल कसने के लिए जारी किए जा रहे फ़रमान वास्तव में उपनिवेशवादी अंग्रेज़ों की नीतियों की याद दिलाते हैं। जैसे अंग्रेज़ शासकों ने 1878 में ‘देसी प्रेस क़ानून’ पारित करके अंग्रेज़ों की नीतियों की आलोचना करने वाले स्थानीय अख़बारों पर बंदिशें लगानी चाही थीं, उसी तरह अब मोदी सरकार भी बचे-खुचे जनपक्षधर मीडिया की ज़ुबान बंद करना चाहती है। जिस तरह कश्मीरी पत्रकारों पर ज़ुल्म किया जा रहा है, उसी तरह मोदी सरकार पूरे भारत में करना चाहती है। लेकिन अपने इन मक़सदों में ना तो अंग्रेज़ शासक कामयाब हुए थे और ना आज के मोदी जैसे पूँजीपतियों के सेवक कामयाब हो सकेंगे। प्रेस की आज़ादी की लड़ाई भारत में नागरिक अधिकारों की बड़ी जनवादी लड़ाई का ही अहम हिस्सा है और आने वाले समय में इस मोर्चे पर भी मोदी सरकार जैसे तानाशाह शासकों को बड़े जनाक्रोश का सामना करना पड़ेगा।
– मानव