मेरे बहुत से मित्र कांग्रेस में भारत का राजनीतिक भविष्य देखते हैं। वर्तमान राजनीतिक परिदृश्य में ये आपकी मज़बूरी हो सकती है लेकिन दो बातें बिल्कुल साफ हैं जिन्हें नजरदांज नहीं करना चाहिए। पहला कॉरपोरेट परस्त नीतियों के मामले में कांग्रेस भाजपा से अलग नहीं होगी इसलिए बहुत सी तकलीफें जो इसी से पैदा होती हैं वो बरकरार रहेगी।
दूसरा, मुसलमान विरोधी साम्प्रदायिकता के मामले में कांग्रेस हमेशा हिन्दुत्व की सियासत के साथ रही है। ऐसा करने में नेहरू जी की मज़बूरी रही होगी लेकिन राजीव जी तक आते आते ये एक सियासी टूल बन चुका था जिसे कांग्रेसी लोगों ने भी इस्तेमाल किया है।
थोड़ा साफ कर देता हूँ, बाबरी मस्जिद में मूर्ति रखी गई तब नेहरू जी प्रधानमंत्री थे, जब ताला खोला गया तब राजीव जी प्रधानमंत्री थे, मस्जिद तोड़ी गई तो नरसिम्हा राव जी प्रधानमंत्री थे। पहला शिलान्यास भी कांग्रेस ने ही करवाये।
पूरे उत्तर भारत में मुसलमान विरोधी दंगे जिनमें सैकड़ो लोग मारे गए हैं, कांग्रेस के दौर में हुए हैं और ज़्यादातर अपराधी कानून के शिकंजे से बच गए या बचा लिए गए। यही नहीं दलित विरोधी मारकाट में भी कांग्रेस का वही रवैया रहा है जो मुसलमानों के मामले में रहा है।
आरएसएस या भाजपा जिस भी हथियार या टूल का इस्तेमाल करते हैं वो अमूमन कांग्रेस की फैक्ट्री में बना होता है। दूसरी तमाम पार्टियों के पास सियासी क़ूवत ज़्यादा नहीं है लेकिन हिन्दुत्व की सियासत उनके लिए भी ज़रूरी है।इसी में कुछ जूठन चाट लेने की कोशिश उनकी भी होती है।
जाति व्यवस्था पर आधारित एक सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक ढांचा वाली हुकूमत बनाने की कोशिश जो लगभग सौ साल पहले शुरू हुई थी वो लगातार बढ़ती ही रही है। और अब तो इसके सामने कोई चुनौती भी नहीं है।
हिन्दुत्व की राजनीति मुसलमानों के खिलाफ नहीं बल्कि शूद्रों (दलित और पिछड़ा) के खिलाफ है लेकिन अगर मुसलमानों पर हमला कुछ महीने भी रुक गया तो लोगों को जातिगत असमानता और आर्थिक लूट नज़र आने लगेगी, इसलिए ये हमले निरंतर जारी रहेंगे। फिलहाल देश का एक बड़ा वर्ग मुसलमानों को लेकर पागलपन की हद तक जा चुका है, पागलों की इस जमात को भी लगातार काम चाहिए। ऐसा न हुआ तो ये पागलपन से बाहर आ जाएंगे।
इस सूरत में मार्क्सवादी सियासत देश और दुनिया का तार्किक विकल्प है लेकिन यहां दो बड़ी चुनौतियां हैं। मीडिया अपनी ताकत से देश के सभी वर्गों में मार्क्सवाद की गलत तश्वीर पेश करती रही है आगे भी करती रहेगी, दूसरे तरह तरह की वामपंथी पार्टियां अपनी मौजूदगी से जनता में कोई आशा फिलहाल नहीं जगा पाई हैं, इनके बीच सही वामपंथ ओझल सा हुआ है और क्रांतिकारी पार्टी अभी तक बन नहीं पाई है।
एक और निराशाजनक स्तिथि है। हमारा पड़ोसी श्रीलंका हो या म्यामार, बरबादी के बाद भी जनता पूंजीवादी लूट को न देख पाए, इसकी कोशिश यहां कामयाब हुई है, यहां एक बार फिर जनता के राजनीतिक प्रशिक्षण की जिम्मेदारी निभाने वाली ताकतें कमज़ोर साबित हुई हैं।
देश का पीड़ित मुसलमान हो या शूद्र, मरते मरते भी इस राजनीतिक ऑक्सीज़न को नहीं पहचान पा रहे हैं। मेरी पोस्ट सभी वर्गों के एक जागरूक तबके तक पहुंचती है। आप मित्रों से एक अनुरोध करता हूँ। अतीत में रूस चीन में क्या हुआ या फ़लाने फ़लाने ने क्या किया, इसे छोड़िए। एक पतली सी किताब पीडीएफ में मिल रही है, नाम है कम्युनिस्ट मेनिफेस्टो, डाऊनलोड कीजिये और पढिये।
हिन्दू बनाम मुसलमान या सवर्ण बनाम दलित की सियासी बहस हमें किसी समाधान पर नहीं ले जाती। हिन्दुत्व की सियासत भी चाहती है कि हम इसी बहस में उलझे रहे, लेकिन भारत जिस राजनीतिक संकट में पहुंच चुका है इसे यहां से बाहर निकालने के लिए प्रचलित और प्रेरित बहस से निकलना होगा, पढ़िए और खुद तय कीजिये कि सही क्या है। फिर बिना किसी पूर्वाग्रह के लोगों से चर्चा कीजिये, जो लोग साथी नज़र आयें उनके साथ आगे बढ़िये।
ये तरीका बहुत अपीलिंग शायद न लगे लेकिन कोई और विकल्प भी नज़र नहीं आता, फिलहाल कम्युनिस्ट मेनिफेस्टो पढ़िए, उसके बाद आगे सोचा जाएगा।
जो लोग बात करना चाहेंगे उनके साथ फोन पर या मिलकर बात की जाएगी। भारतीय जनता के लिए ये संकट का दौर है लेकिन यही वो दौर है जब हमको देश को तबाही की ओर ले वाली ताकतों से निपटना पड़ेगा, कॉरपोरेट लूट या मेहनतकशों की हुकूमत, आज हमारे सामने बस यही दो विकल्प हैं, बीच में भटकाने वाली सियासी भीड़ भी है लेकिन ये सभी कॉरपोरेट लूट के साथ हैं, आपको अपना रास्ता चुनना है।
Dr. Salman Arshad