भारत की अदालतों में, हुजूमी हिंसा, आतंकवाद और सांप्रदायिक क़त्लेआम में मारे गए निर्दोष लोग न्याय के इंतज़ार में ज़िंदगी बिता देते हैं, लेकिन न्याय नहीं मिलता है। हाल के दिनों में अहमदाबाद (गुजरात) की विशेष अदालत ने पूरी दुनिया का ध्यान अपनी ओर खींचा है। भारी सुरक्षा के बीच 7015 पन्नों के फ़ैसले में सामूहिक मौत की सज़ा सुनाते हुए, 1947 के बाद के भारत के इतिहास में एक असाधारण फ़ैसला सुनाया गया। कुल 78 अपराधियों में से 49 को दोषी ठहराया गया था। इनमें से 38 को मौत की सज़ा सुनाई गई। शेष 11 को आजीवन कारावास की सज़ा सुनाई गई। 2008 में अहमदाबाद में सिलसिलेवार बम धमाके हुए थे जिसमें 56 लोग मारे गए और 200 अन्य घायल हो गए थे। आज़ादी के बाद यह पहला मामला है जिसमें इतनी बड़ी गिनती में दोषियों को एक साथ मौत की सज़ा सुनाई गई है। इससे पहले एक मामले में 26 लोगों को मौत की सज़ा सुनाई गई थी। मामले के 78 दोषियों में से 77 पर मुक़द्दमा चलाया गया। उनमें से एक को वादा माफ़ गवाह बना लिया गया।
पाबंदीशुदा आतंकी संगठन इंडियन मुजाहिदीन से संबंध रखने के आरोप में अपराधियों के ख़िलाफ़ मामला दर्ज किया गया था। पुलिस का कहना है कि अपराधी इंडियन मुजाहिदीन के सदस्य हैं और उनके पाबंदीशुदा संगठन सिमी (स्टूडेंट्स इस्लामिक मूवमेंट ऑफ़ इंडिया) से संबंध हैं। उनके अनुसार, इंडियन मुजाहिदीन ने 2002 के गुजरात दंगों का बदला लेने के लिए बम विस्फोटों की योजना बनाई थी।
इस मामले पर टिप्पणी करने से पहले भारतीय न्यायपालिका के इतिहास के कुछ अन्य महत्वपूर्ण फ़ैसलों के बारे में बात करना ज़रूरी है। भारत के पंजाब और बंगाल के विभाजन के समय हमारे इतिहास के सबसे बड़े सांप्रदायिक क़त्लेआम के बाद 1984 में सिखों का नरसंहार, 2002 में गुजरात में मुसलमानों का नरसंहार और इन हत्याओं से संबंधित अदालतों में लंबित मामले हमारी न्याय व्यवस्था के इतिहास के महान उदाहरण हैं, जहाँ आज तक कोई इंसाफ़ नहीं मिला है। 2014 के बाद के मोदी युग में एक ख़ास तरह का वृतांत गढ़ा गया, जिसमें मुख्यधारा के मीडिया और बीजेपी के आईटी सेल ने ख़ास भूमिका निभाई है।
1984 के सिख नरसंहार को उस समय की कांग्रेस सरकार के सिर मढ़कर उस कांड में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) और अन्य हिंदुत्वी सांप्रदायिक संगठनों की भूमिका के बारे में चुप्पी धारण कर ली जाती है। वृतांत यह गढ़ा गया कि आंतकवादियों का संबंध हमेशा अल्पसंख्यक समुदायों, विशेषकर मुसलमानों से जुड़ा होता है। 1991 से भारत में लागू की गई नव-उदारवादी आर्थिक नीतियों ने देश में दक्षिणपंथी फासीवादी ताक़तों को जन्म दिया है। फासीवादी राजनीति उदार पूँजीवादी राजनीति से इस मायने में अलग है कि यह लोगों के सामने एक काल्पनिक दुश्मन खड़ा करती है, मध्यम वर्ग के एक वर्ग और सामान्य कामकाजी आबादी के एक हिस्से को इसके ख़िलाफ़ लामबंद करती है। फासीवाद एक ऐसी मुहिम है, जो लोगों के ख़िलाफ़ ही लक्षित होती है और लोगों को सांप्रदायिक आधार पर बाँटकर इजारेदार पूँजी (कारपोरेट) की सेवा करती है। जर्मनी में हिटलर ने यहूदियों को निशाना बनाया था, भारत में काल्पनिक दुश्मन मुसलमान हैं। सांप्रदायिकता और अंधराष्ट्रवाद के हथियार से मुस्लिम आबादी को निशाना बनाना लगातार तेज़ होता जा रहा है। अल्पसंख्यक समुदाय और विशेष रूप से मुस्लिम समुदाय के ख़िलाफ़ नफ़रती प्रचार की मुहिम का असर नौकरशाही और प्रशासन में भी साफ़ नज़र आने लगा है। भाजपा के चुनाव अभियान में सांप्रदायिक गठबंधन से चुनाव जीते जाते हैं। लेकिन अब अदालती न्याय के मामले में भी पक्षपात साफ़ नज़र आने लगा है। सांप्रदायिक हमले और आतंकवाद जैसे मुद्दों को भी धर्म के आधार पर अलग करके देखा जाता है। आतंकवाद के मामले में समझौता एक्सप्रेस बम विस्फोट और मालेगाँव बम विस्फोटों में जाँच एजेंसियों द्वारा शक की सुई साफ़-साफ़ हिंदुत्वी आतंकवादी संगठनों की तरफ़ जाती थी। इसके बावजूद मालेगाँव मामले में मुस्लिम युवकों को गिरफ़्तार किया गया। वर्षों के बाद अदालती कार्यवाही में उन युवकों को बेकसूर घोषित किया जाता है। लेकिन जो कम उम्र में ही जेल में बंद हो जाते हैं, रिहा होने पर वे बूढ़े हो चुके होते हैं, उनकी जिं़दगी बर्बाद हो चुकी होती है। दूसरी ओर हिंदुत्ववादी आतंकवादी संगठनों से जुड़े लेफ़्टिनेंट कर्नल पुरोहित और प्रज्ञा ठाकुर जैसे अपराधी ना केवल साफ़-साफ़ बरी हो जाते हैं, बल्कि भाजपा और संघ परिवार उनका गुणगान भी करते हैं। दिल्ली के मुस्लिम विरोधी दंगों में पुलिस की कार्रवाई भी शक के घेरे में है, जहाँ दंगों के शिकार मुस्लिम समुदाय के लोगों के ख़िलाफ़ ही मुक़द्दमे दायर किए गए हैं।
अहमदाबाद अदालत के फ़ैसले और मालेगाँव के फ़ैसले में हमारी न्याय व्यवस्था अलग-अलग दृष्टिकोण रखती नज़र आती है। पक्षपातपूर्ण रवैया साफ़ नज़र आता है। मानव जीवन बहुत क़ीमती है, हर हाल में न्याय मिलना चाहिए। लेकिन इन मामलों में एक समुदाय के प्रति सख़्त रवैया और दूसरे के प्रति नरमी एक ख़तरनाक रुझान है जो अदालती न्याय की निष्पक्षता पर सवाल खड़ा करता है। हमारे पास अदालतों और जजों पर सीधे दबाव के उदाहरण भी हैं। गुजरात के सोहराबुद्दीन शेख फ़र्जी पुलिस एनकाउंटर की सुनवाई जस्टिस लोया कर रहे थे। कुछ दिनों के बाद रहस्यमय हालातों में लोया की मौत हो जाती है। इस मामले का संबंध वर्तमान गृहमंत्री अमित शाह के साथ और गुजरात और राजस्थान के कुछ पुलिस अधिकारियों से भी जुड़ता था।
नागपुर के एक वकील सतीश ने बॉम्बे हाईकोर्ट की नागपुर बेंच में एक याचिका दायर कर जज लोया की संदिग्ध और बेवक़्त मौत की पुलिस जाँच की माँग की है। उन्होंने कहा कि जज लोया की मौत दिल का दौरा पड़ने से नहीं हुई थी, उन्हें मार दिया गया था और उन्हें ज़हर दिया गया था। इस मामले में कोई भी जज मामले की सुनवाई के लिए तैयार नहीं हो रहा था। तीन जजों ने मामले की सुनवाई से इंकार कर दिया था। जिस मामले की सुनवाई करने से जज भी कतरा रहे हों, आप ऐसे मामले में न्याय की उम्मीद कैसे कर सकते हैं? ये कुछ उदाहरण हैं, जो यह साफ़ करते हैं कि न्याय की देवी की आँखों पर बँधी पट्टी पारदर्शी है। वह सबको बिना देखे एक जैसा न्याय नहीं करती, बल्कि अपनी पसंद-नापसंद के हिसाब से न्याय करती है। आर्थिक असमानता के इस भयानक युग में, कामकाजी और ग़रीब कामकाजी आबादी के लिए तो न्याय तक पहुँच ही मुश्किल हो गई है। लेकिन जब अदालतों द्वारा सज़ा देने की बात आती है तो मुज़रिमों में मज़दूर, दलित और अल्पसंख्यक, विशेष रूप से मुस्लिम, आसान लक्ष्य बनते जा रहे हैं।
क्या पूँजीवाद के तहत न्यायपालिका निष्पक्ष हो सकती है?
विधानपालिका और कार्यपालिका की तरह न्यायपालिका भी राज्य का एक अंग है। वर्ग व्यवस्था में, राज्य लूटने वाले वर्गों के हाथों में मेहनतकश जनता को लूटने के लिए दमन का एक हथियार होता है। न्यायपालिका के लिए निष्पक्ष होना संभव नहीं है। जैसे-जैसे पूँजीवाद का संकट गहराता जाता है, न्यायपालिका की निष्पक्षता का भ्रम भी टूटता जा रहा है। मेहनतकश आबादी को बिना किसी पक्षपात के न्याय की गारंटी देने के लिए ज़रूरी है कि मानव द्वारा मानव के शोषण वाली पूँजीवादी व्यवस्था को ख़त्म कर दिया जाए। समाजवादी व्यवस्था में ही मेहनतकश लोग जीवन के हर क्षेत्र में सच्चे लोकतंत्र का आनंद उठा सकेंगे। वर्ग समाज में न्यायपालिका समाज के अन्य क्षेत्रों की तरह निष्पक्ष नहीं हो सकती।
•सुखदेव, 11-3-22
मुक्ति संग्राम – बुलेटिन 17 ♦ अप्रैल 2022 में प्रकाशित