2007 में अजमेर दरगाह में और 2008 में मालेगाँव मस्जिद में जब बम ब्लास्ट हुए थे तो सरकार और मीडिया के चीख-चीखकर यह कहने के बावजूद कि यह इस्लामिक आतंकवादियों ने किया है, मुझे यकीन नहीं आया था। इस सिलसिले में मुस्लिमों की गिरफ्तारी के बावजूद मैं अपने यकीन पर कायम थी।
मेरे पास बस एक मासूम प्रश्न था, ‘मुसलमान ही जब मुसलमानों को मारेंगे तो इससे क्या फायदा होगा और किसको फायदा होगा?’ उन दिनों राजेश से लंबी-लंबी बहसें हुई थीं।
राजेश ने जवाब दिया था, ‘दंगे भड़केंगे, स्टेट अस्थिर होगा।‘
मेरा सवाल उसी सवाल का एक्सटेंशन था, ‘दंगा कौन करेगा और क्यों? मुस्लिम यदि मुस्लिमों को मारेंगे तो हिंदू तो दंगा करने नहीं आएगा। मुस्लिम किसके खिलाफ दंगा करेगा?’
राजेश ने पूछा था, ‘फिर कौन कर रहा है ये!’
मैं स्पष्ट थी, ‘यह आरएसएस की साजिश है।’
‘तुम कहना चाह रही हो हिंदुओं ने…?’
‘हाँ बिल्कुल।’ राजेश ने मेरी बात को हवा में उड़ा दिया था।
उन ब्लास्ट के दस बारह साल बाद जब ब्लास्ट के आरोप में फिर आरएसएस के प्रचारक देवेंद्र गुप्ता, भावेश पटेल, सुनील जोशी और मालेगाँव ब्लास्ट मामले में प्रज्ञासिंह ठाकुर, शिव नारायण, गोपाल सिंह कलसांगरा और श्याम भँवरलाल साहू गिरफ्तार हुए थे, तब मेरा अपनी सहज बुद्धि पर पहली बार यकीन पुख्ता हुआ था।
26/11 के दौरान जब हेमंत करकरे शहीद हुए तब यह भी पढ़ा था कि हेमंत करकरे आतंकवादियों की गोलियों का शिकार नहीं हुए थे। उन्हें मारा गया था। तब मुझे इस कॉन्सपिरेसी के विचार पर यकीन नहीं था। मगर 2019 के आम चुनाव में प्रज्ञासिंह ठाकुर के हेमंत करकरे पर दिए बयान ने मुझे यकीन दिलाया कि वे आतंकवादियों की गोलियों का शिकार नहीं हुए थे।
जिन देशों में बहुसंख्यक मुस्लिम हैं, वहाँ गैर मुस्लिमों का जीवन कठिन है। जहाँ कहीं मुस्लिम अल्पसंख्यक हैं वहाँ उनका जीवन कठिन है। यह कमोबेश हर तरह के विभाजन पर लागू होता है और हर स्टेट का यही सच है। यहाँ धर्म, जाति, भाषा, वर्ग, वर्ण का मसला नहीं है, सत्ता का मसला है, संख्या और ताकत का मसला है।
कुछ वक्त पहले उज्जैन की बेगमबाग कॉलोनी में भी ऐसी पत्थरबाजी की घटना हुई थी। किसी ने मुझे खबर का लिंक भेजा था। मैंने उससे कहा था कि चार दिन रूक जाइए। चार दिन बाद खबर आई थी कि हिंदुवादियों ने भड़काने वाली हरकतें की थी।
मेरे अविश्वास की वजह यह है कि मुसलमान भावुक होते हैं, मगर बेवकूफ नहीं होते हैं। इस वक्त में जबकि वे यह जान रहे हैं कि सरकार, मीडिया, प्रशासन, सोशल मीडिया औऱ फेलो कंट्रीमेन तक उनकी एक गलती का इंतजार कर रहे हैं, वे जान बुझकर गलती नहीं कर सकते हैं। वे इतने बेवकूफ नहीं हैं कि अपना जीवन, रोजगार, अपने जीवन भर की कमाई, घर ये सब दाँव पर लगाएं।
इसलिए यह मानने में ही नहीं आता है कि उग्र मुसलमान के पीछे भड़काने वाले हिंदू नहीं है। मुझे अपने बचपन की याद है कि क्रिकेट में पाकिस्तान की हार पर आरएसएस के गुंडे मुस्लिम बहुल बस्तियों में जाकर पटाखे चलाते थे और नारेबाजी किया करते थे। मुसलमानों के पास केलकुलेशन नहीं होता है, इसलिए वह अमूमन गणितबाजों के हाथों शिकार हो जाता है।
ऐसा नहीं मानती हूँ कि मुस्लिम मासूम हैं। लेकिन मुझे ये भ्रम भी नहीं है कि हिंदू बेचारे हैं। जिनको ये भ्रम है, दरअसल वे परले दर्जे के धूर्त हैं। अमेरीकी लेखक औऱ वक्ता रॉबर्ट इंगरसोल का एक फेमस कोट है, जिसे अक्सर अब्राहम लिंकन के नाम से कोट किया जाता है, nearly all men can stand adversity, but if you want to test a man’s character, give him power.
अपनी अब तक की समझ में मैंने यह टेस्टर पाया है… सत्ता। मेरे पास हरेक को टेस्ट करने का यही एक टेस्टर है। कोरोना के वक्त में पूरा मीडिया और पूरा सोशल मीडिया सहित सरकार, सरकार समर्थक औऱ ऐसे–ऐसे पढ़े लिखों को मैंने जमातियों पर रोते देखा था कि मैं पढ़ने-लिखने वालों की बुद्धि पर तरस खाने लगी थी। उस वक्त भी मुझे मीडिया की खबरों पर यकीन नहीं था।
मैं टीवी नहीं देखती हूँ, अखबार भी नहीं पढ़ती हूँ। मुझे हर जगह बायसनेस दिखाई देती है। मुझसे कुछ दोस्तों ने पूछा कि सही खबर कहाँ से पाएँ? मेरे पास एक ही जवाब है, अपनी चेतना को जगाइए। अपनी सहज बुद्धि का इस्तेमाल कीजिए। यह देखिए कि सत्ता में कौन हैं, बहुसंख्यक कौन हैं?
मैं इंसान के बेसिक स्वभाव को लॉक और रूसो की तरह अच्छा मानती हूँ। इसलिए कि अपने इर्दगिर्द देखती हूँ कि आमतौर पर इंसान शांतिप्रिय है और अपने जीवन में स्थिरता चाहता है। तो फिर सवाल पैदा होता है कि दुनिया में इतना फसाद क्यों हैं? इंसान के पास लड़ने की इतनी वजहें कैसे हैं!
सत्ता लड़ने की वजहें पैदा करती है। इसलिए मैं हमेशा उन लोगों के साथ होती हूँ, जिनके पास सत्ता नहीं हैं। अपने अनुभवों और विचारों से मैं इस समझ तक पहुँची हूँ कि जहाँ भी सत्ता होगी वहाँ अन्याय, दमन, दलन, भेदभाव, शोषण और षडयंत्र की गुंजाइश निकल आएगी।
मशीनरी सत्ता के साथ है, सत्ता के साथ सुविधा है, सुरक्षा है और कई लाभ है। इसलिए सत्ता जिसे चाहे उसे जिस तरह चाहे उस तरह इस्तेमाल कर सकती है। जिसके पास ताकत होती है, न्याय भी उसी के साथ होता है। जबकि न्याय को कमजोर के साथ होना चाहिए। इसलिए मैं हमेशा ताकतवर पर संदेह करती हूँ।
सत्ता की पद्धति में न न्याय है, न समानता। षडयंत्र और क्रूरता के बीज सत्ता के गर्भ में पलते हैं।
~अमिता नीरव