अम्मुरारी नंदन मिश्र
इस पर सोचते हुए मुझे एक किताब की याद आ गयी. मुद्राराक्षस ने एक किताब लिखी है- धर्मग्रंथों का पुनर्पाठ.
किताब तो बहुत कुछ कहती है, लेकिन उसकी एक स्थापना है कि आर्य कोई जाति नहीं रही; जाति तो ब्राह्मण ही थी.
यह ब्राह्मण जाति अब्राहम की संतान है. वह संतान, जो त्याग दी गयी थी. उसके वंशज ही वहाँ से निष्कासित होकर एक लंबी यात्रा के बाद भारत पहुँचे. अब्राहम को उन्होंने ब्रह्मा और ब्रह्म के रूप में स्मृति में बचा रखा. अपनी यात्रा के दौरान वे जहाँ से गुजरे वहाँ के विधान को भी अपनाते चले. उनकी यात्रा में वह क्षेत्र भी आया, जहाँ बाद में इस्लाम विकसित हुआ, इसलिए लेखक को ब्राह्मणों और इस्लाम में कुछ मानीखेज समानताएँ मिलती हैं.
मैं उस किताब के एक अंश को ही उद्धृत कर देता हूँ-
“ब्राह्मण के चार शादियाँ करने का विधान मनुस्मृति से मालूम होता है. अध्याय 1 के श्लोक 149 में ब्राह्मण की चार पत्नियों के बेटों में दाय भाग का बँटवारा कैसे हो, यह बताया गया है….चार शादियों का ही विधान संयोग से इस्लाम में भी मौज़ूद है.
हैरानी है कि इश्तिंजा या लघुशंका के बाद मिट्टी के ढेले से जननांग की सफ़ाई करना इस्लामी प्रथा है, पर मनुस्मृति (अध्याय 5, श्लोक 136) में भी लघुशंका के बाद जननांग की सफाई के लिए मिट्टी के ढेले का ही विधान है.
कला संगीत की इस्लाम में इजाज़त नहीं है. ब्राह्मणों ने भी कलाओं को शूद्रता से जोड़कर वर्जित कर दिया है….
इस्लाम में पाँच बार नमाज़ का विधान है और ब्राह्मणों में पाँच बार संध्योपासना का. यज्ञ भी पाँच हैं. पंच महायज्ञ इस्लाम से ज़्यादा परवर्ती (या पूर्ववर्ती?) है, पर पाँच बार नमाज़ या ईश्वरोपासना इस्लाम में क्षेत्रीय परंपरा से आई होगी.”
रक्तसंबंधों के बीच की शादियों का हिंदुओं द्वारा अक्सर उपहास किया जाता है, लेकिन लेखक ने इस किताब में इसे भी ब्राह्मणी विधान के रूप में दिखाया है.
कहने का मतलब कि हम अब अपने उस अतीत तक पहुँच रहे हैं, जहाँ हमारी संस्कृति एकसार हो जाती है.
एकता का यह एक नया युग है. नया भारत कह लीजिए. पाँच वक़्ती चालीसी होने के लिए तैयार रहिए!
(और हाँ, चालीस का अंक भी इस्लामी प्रथा के ज़्यादा नज़दीक है)