हेगेल ने कहा था, “ऐसा देखा गया है कि विश्व इतिहास में वे सभी महत्वपूर्ण घटनाएं और हस्तियां दो बार आविर्भूत हुई हैं.”
मार्क्स ने उनके द्वंद्ववाद को सिर के बल से, पैर के बल खड़ा करने की तरह इस कथन को भी पैर के बल पर लाने के लिए उसमें जोड़ दिया कि “वे पहली बार दुखांत नाटक के रूप में परवान चढ़ीं तथा दूसरी बार उनका हश्र प्रहसन के रूप में सामने आया.”
मार्क्स ने अपनी इस जोड़ी गई अभ्युक्ति को, “लुई बोनापार्ट के आठारहवीं ब्रूमेर” में फ़्रांस तथा यूरोप की क्रांतियों एवं हस्तियों के बारे में उदाहरणों के साथ पुष्ट किया.
अगर हम भारत के इतिहास की महत्वपूर्ण परिघटनाओं और हस्तियों से इस कथन के संदर्भ में उदाहरण जुटायें तो हमें प्राचीन भारत की सांस्कृतिक सामाजिक राजनीतिक परिघटनाओं की ज़गह, स्वतंत्रता आंदोलन के प्रारंभिक दौर में पुनरुत्थानवादी आंदोलन; शिवाजी, राणा प्रताप की ज़गह बाल लाल पाल, युगांतर-अनुशीलन, सावरकर; उपनिषद व पुराण की मनीषियों की ज़गह गाँधी, टैगोर, पटेल आदि तथा सत्याग्रह आंदोलन;
बुद्ध , महावीर, कबीर, नानक की परंपरा में ज्योति बा फूले, अंबेडकर; चार्वाकी विवेकवादी आंदोलन और नवजागरण की परंपरा में राष्ट्रीय आंदोलन की बहुलतावादी, सर्वधर्मसमभाव, धर्म निरपेक्षता और गदर, काकोरी, हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन आर्मी की क्रांतिकारी चेतना और चेहरे, अशोक-अकबर-दाराशिकोह की ज़गह नेहरू, सुभाष एवं इसी प्रकार से अन्य घटनाएं और विभूतियाँ!
मुल्क की आज़ादी की लड़ाई, उसके बलिदान, विरासत का यह दूसरा संस्करण, मुल्क के बँटवारे और दुनिया के सबसे बड़े सांप्रदायिक रक्तपात की जिन परिघटनाओं में उपसंहार पाया अगर उसकी निर्मम विवेचना के साथ कठोरता से कहा जाए तो वह उसे प्रथम दुःखान्त प्रेरणाओं का उपहास ही बना देती है!
मार्क्स इसी को आगे पूरा करते हुए लिखते हैं जो हेगेल की प्रस्थापना को बहुत ही विवेकसम्मत तरीक़े से समाहार करता है.
मार्क्स की उत्कृष्ट साहित्यिक शैली की महारत इसे बहुत ही सरस और दिलचस्प बनाता है:
“सभी मृत पीढ़ियों की परंपरा जीवित मानव के मस्तिष्क पर एक दुःस्वप्न के समान सवार रहती है. और ठीक ऐसे समय, जब उन्हें लगता है कि वे अपने को, और अपने इर्दगिर्द की सभी चीज़ों को क्रांतिकारी रूप से बदल रहे हैं, और किसी ऐसी वस्तु का सृजन कर रहे हैं जिसका आज तक अस्तित्व नहीं था, क्रांतिकारी संकट के ठीक ऐसे अवसरों पर अतीत के प्रेतों को अपनी सेवा के लिए उत्कंठापूर्ण बुलावा दे बैठते हैं और उनसे अतीत के नाम, अतीत के रणनाद और अतीत के परिधान मांगते हैं ताकि विश्व इतिहास की नवीन रंगभूमि को इस चिरप्रतिष्ठापित वेश में और इस मंगनी की भाषा में सजाकर पेश कर कर सकें.”
मार्क्स के द्वारा इस सैद्धांतिक विवेचना को उन्नीसवीं सदी के यूरोपीय संदर्भ में सिद्ध किया गया है. लेकिन चूँकि समाज विज्ञान की कसौटी पर मार्क्स की विवेचनाएं स्थापित होती हैं इसलिए यह सर्वकालिक और सार्वभौमिक रूप से उदाहरणस्वरूप मिल जाती हैं.
मार्क्स के यूरोपीय संदर्भ के आइने में हम जब वर्तमान भारत की परिघटनाओं, हस्तियों और परिस्थितियों को देखते हैं तो यह सब कुछ, ख़ासकर के यहाँ के राजनीतिक जीवन में सहज व्याप्त दिखता है और, जैसा कि मार्क्स ने कहा है, यह पिछले “संस्करण का कार्टून” से अधिक कुछ नहीं लगता अगर तटस्थता व निष्पक्षता से इसका वस्तुनिष्ठ विश्लेषण किया जाए.
प्रधानमंत्री बतौर दिखावे पटेल और डॉक्टर श्यामा प्रसाद मुखर्जी का बाना ओढ़ते हैं जब वे राष्ट्रोन्माद और कश्मीर जैसे संवेदनशील तमाम मुद्दे को परोसते हैं.
पूंजीपतियों के आर्थिक एकाधिकार को परवान चढ़ाने में वे डॉक्टर मनमोहन सिंह और नरसिंह राव का चोला ग्रहण करने में कोई हिचक नहीं दिखाते.
वे इंदिरा गांधी के आपातकाल की दुहाई देकर लोकतंत्र का संरक्षक बनते हैं लेकिन लोकतांत्रिक अधिकारों के हनन को संबोधित क़ानूनों को बहुमत के आधार पर झड़ी लगाने में उनसे कई क़दम आगे बढ़ते हुए इंदिरा गांधी के लिबास को अपनाने में कोई परहेज़ नहीं करते.
सत्ता के एकाधिकार के लिए विद्यमान परिस्थितियों में हर संकट को अवसर बनाने में अतीत के उसी आचरण को दुहराते हैं जो कांग्रेसी हुकूमत के दौर में 1960 से 1980 के दशक तक अपनाए जाते थे.
आपातकाल में जैसे मीडिया पर इंदिरा ने एकाधिकार स्थापित किया था ऐन केन प्रकारेण वही आचरण, उसी परिधान-‘साम दान दंड भेद’ के साथ दोहराते चल रहे हैं.
नेहरू के परिधानों से चिढ़ जताते हुए पाए जाते हैं किंतु आवश्यकता पड़ने पर उनके परिधानों को ओढ़ने के लालच को पचा नहीं पाते. विदेश यात्राओं में, विश्व संस्थाओं में उनकी साख़, उनके कद काठी के सामने नतमस्तक हो उन्हीं की ज़ुबान बोलते हैं.
इतना ही नहीं जब कभी और जहाँ कभी उनके अनुयाई उनकी सत्ता से निडर होकर गोडसे और सावरकर को राष्ट्र का आदर्श स्थापित करने के अभियान में जुटे रहते हैं, वहां ये गाँधी का परिधान पहन कर, गाँधी के चश्मे के प्रतीक के तहत वस्वच्छता अभियान चलाकर, ऐसा महसूस करते हैं कि “वे अपने को और अपने इर्द-गिर्द सभी चीज़ों को क्रांतिकारी रूप से बदल रहे हैं.”
ऐसा ही वे बाबासाहेब अम्बेडकर और भगत सिंह के जन्मदिवस और परिनिर्वाण तथा शहादत दिवस के मौक़े पर ख़ास तौर पर तब करते हैं जब वे दलितों, अक़्क़लियतों और कमज़ोर तबक़े पर आए दिन होनेवाले जुर्मों-सितम पर ख़ामोश हो जाते और भगतसिंह की विरासत की विराटता को राष्ट्रवाद की संकीर्णता की सीखचों तक महदूद रखने के लिए उनके “इंक़्लाब ज़िंदाबाद, साम्राज्यवाद मुर्दाबाद” के नारे को दफ़न करने के लिए “अतीत के रणनाद” “बंदे मातरम” और “भारत माता की जय” का चतुर्दिक उद्घोष करते हैं.
देश के घोर सामाजिक- राजनीतिक-आर्थिक-नैतिक संकट के “ठीक ऐसे ही अवसरों पर” वे भगत सिंह, डॉक्टर अंबेडकर और नेताजी के रूप में “अतीत की आत्माओं को अपनी सेवा के लिए उत्कंठापूर्ण बुलावा दे बैठते हैं “!
लेकिन इन दिवंगत आत्माओं के आह्वान पर विचार करने पर एक प्रत्यक्ष अंतर दिखाई देता है.
जहाँ गाँधी और उनके अनुयायी जंगे आज़ादी में जेल जा रहे थे, मुक़दमे झेल रहे थे, यातनाएं झेल रहे थे वहाँ इनके संगठन का साम्राज्यवाद विरोधी कोई शिरकत नहीं मिलता. अलबत्ता सावरकर हो या डॉक्टर मुखर्जी, दोनों समेत पूरा आरएसएस अंग्रेज़ों का ख़ैर ख़्वाह बना मिलता है!
जहाँ अंबेडकर दलित मुक्ति आंदोलन और जाति उन्मूलन, समानता की बात की राजनीति पर न्योछावर थे, वहाँ उनका आवाहन एक हिंदु राष्ट्वादी मुस्लिम विरोधी हस्ती के रूप में किया जा रहा है.
जिस भगत सिंह ने सोशलिज़्म को अपना आदर्श बनाया और जिसके लिए साम्राज्यवादियों ने भारतीय पूंजीपतियों की शह पाकर, उन्हें फांसी पर लटकाया, उन्हें फासीवादी राष्ट्रोन्मादवाद के चौखटे में बांधने के लिए आह्वान किया जा रहा है!
यही सलूक नेताजी के साथ होता है. कांग्रेस में “सर्वप्रथम वामपंथी अध्यक्ष” के रूप में निर्वाचित होने के लिए सुप्रसिद्ध हुए नेताजी की वह छवि गढ़ने की ताबड़तोड़ कोशिश हो रही है जिसमें देशभक्ति के आवेग में, वे ब्रिटिश साम्राज्य के विरुद्ध उसके तत्कालीन शत्रु, विश्व के बदनाम फ़ासीवादी शासकों हिटलर, मुसोलिनी और तोजो के साथ हो लिए थे.
किसी राष्ट्र के लिए जो आज़ादी के बाद विभिन्न क्रांतियों से गुजर कर विचार, विकास, और व्यवस्था की नई मंज़िलों की ओर पग बढ़ाने की आस लगाए था, जिसने उपनिवेशवादी साम्राज्यवाद से निजात पाकर “त्वरित ऐतिहासिक गति” से क्षमतायुक्त हो रहा था, अतीत या इतिहास के दोहराये जाने से “सहसा अपने को मृत युग में प्रत्यावर्तित पाता है”, जहाँ वही पुरानी नफ़रतों का ज्वार बड़पा है 1947 में जिस त्रासदी से निकल कर आगे आया था!
प्रतिक्रांति की प्रेतात्माएं राष्ट्र की जीवंतता को ग्रसने के लिए आतुर हैं जिसके बारे में फांसी के फंदे पर चढ़ते हुए भगत सिंह ने चेताया था कि, “गोरे की ज़गह भूरे शासक आ जाएं, रीडींग की ज़गह ठाकुरदास और इरविन की ज़गह सप्रू आ जांय तब इस आज़ादी का क्या मतलब रह जाएगा (?)”, “प्रहसन” बन जाएगा!
वास्तविकता में यही हो रहा है.
देश को पुरानी हालत ने फिर से ग्रसना शुरू कर दिया है.
ईस्ट इंडिया कंपनी की ज़गह “वेस्ट इंडिया कंपनी” और उसके “गवर्नर जनरल” ने लिया है.
जिस अवैज्ञानिक, सामंती, भाग्यवादी मूल्यों की सनातनी सांस्कृतिक जड़ता के चलते, हिंदुस्तानी समाज को विदेशी आक्रांताओं के हाथों निरंतर पराजयों का मुँह देखना पड़ा, भारतीय संविधान में उल्लिखित वैज्ञानिक चिंतन के आत्मसातीकरण की ज़गह “तमाम पुरानी तारीख़ें, पुराना इतिहासवृत्तक्रम, पुराने नाम, पुरानी तिथियाँ, और पुरानी राजाज्ञाएं (अंग्रेज़ी क़ानूनों को नए नामों के साथ) और क़ानून के वे सभी अलमबरदार (मनुस्मृति और चाणक्यस्मृति के समावेशन का आह्वान के साथ), जो न जाने कब के मर-गल चुके होते थे, (आधुनिक संविधान के लागू होने के बाद), फिर उठ खड़े होते हैं!”
मृत प्रेतात्माओं को बुलाकर तथा उसके वैचारिक परिधान पहनकर
राष्ट्र को लाउडस्पीकरों की नफ़रती मज़हबी चीख़ में शामिल होने के लिए, उसी तरह तैयार किया जा रहा है, जिस तरह ईस्ट इंडिया कंपनी और ब्रिटिश ताज के राज में “हिंदु पानी, मुस्लिम पानी” की आवाज़ लगाते पानी पांडे, रेलवे प्लेटफ़ार्मों पर मुल्क बँटवारे के लिए जवाज़ पेश कर रहे थे.
“विश्वगुरु” बनने के अतीत के निनाद को दुहरा कर, देश भले प्राचीन शताब्दियों में जाने को उत्कंठित होने के त्रासदी और प्रहसन से गुजरता रहे, इसकी परवाह ईस्ट इंडिया कंपनी के कुछ संवेदनशील अफ़सरों और हेस्टिंग्स और विलियम बैंटिंग जैसे गवर्नर जनरलों के पास तो थी, निजी स्वार्थ साधन के लिए ही सही मैकाले, जोन्स, मिल के पास भी थी, लेकिन आज की तारीख़ में “वेस्ट इंडिया कंपनी” के न “डायरेक्टर्स” को इस त्रासदी और प्रहसन की परवाह दिखती है, न उनके परवरदिगार “गवर्नर जनरल” को ही!!
—भगवान प्रसाद सिन्हा